मंगलवार, 12 सितंबर 2023

यात्रा वृतांत - चूड़धार की वह भयावह रात

 यात्रा वृतांत - चूड़धार की वह भयावह रात

  • डॉ उमेश प्रताप वत्स 


ग्रीष्मकालीन दिनों में हर कोई ठंडे क्षेत्र में जाने की योजना बनाता है। सबसे पहले कोई भी मित्र मंडली यूट्यूब, गूगल मैप के माध्यम से अनेकों ठंडे व दुर्गम स्थलों को खंगालना प्रारंभ कर देती है। दिन, समय, दूरी का ध्यान रखते हुए किसी एक स्थल को फाइनल कर योजना बनाई जाती है। कोई परिवार के साथ तो कोई मित्रों के साथ एक यादगार टूर प्रोग्राम बनाने की दृढ़ इच्छा रखते हैं। हमारी मित्र मंडली प्रतिवर्ष किसी ना किसी स्थल पर घूमने जाती ही हैं। हम कोई बहुत बड़े ट्रैकर तो नहीं किंतु फिर भी ऐसे स्थल को फाइनल करने का प्रयास करते है जहां आध्यात्मिक स्थल के साथ-साथ दुर्गम, आकर्षक, प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण एवं साहसिक ट्रैकिंग करने हेतु थका देने वाली पगडंडियाँ भी हो, क्योंकि थकने के बाद ही ठंडी हवाओं का आन्नद व्यक्ति को मदमस्त कर जाता है। 

मुझे अपने मित्र श्रीश की बात बार-बार याद आती है कि जब तक शरीर में हिम्मत है, दम है, हमें दुर्गम स्थलों के दर्शन कर लेने चाहिए क्योंकि सुगम स्थलों पर तो गाड़ी में बैठकर कभी भी जाया जा सकता है। 

प्रकृति की गोद में बसे हिमाचल प्रदेश में तमाम तीर्थस्‍थल हैं। जिनके दर्शनों के लिए देश-विदेश से श्रद्धालु पहुंचते हैं। इन्‍हीं में से एक बेहद खास तीर्थ स्थल है सिरमौर जिले में चूड़धार। यहां चूडेश्वर महादेव शिरगुल महाराज के दर्शनों के लिए देश ही नहीं विदेश से भी श्रद्धालु आते हैं। इस स्‍थान की अपनी अलग ही महत्‍ता है।

इस बार भी जब पर्वतीय भ्रमण की योजना बनी तो एक-दो पुराने ट्रैकर मित्र के स्थान पर नये मित्र जुड़ गये। 

तीन वर्ष पहले मित्र राकेश हमारे साथ हरिपुर धार के रास्ते चूड़धार ट्रैकिंग के लिए गया था किंतु एक अन्य मित्र की तबीयत खराब होने के कारण राकेश भी ट्रैकिंग को बीच में ही छोड़कर उसके साथ वापस आ गया किंतु चूड़धार जाने का सपना जो अधूरा रह गया था, उसे वह इस बार पूरा करना चाहता था। अतः चूड़धार के लिए ही चूडेश्वर महादेव के दर्शनों हेतु ट्रैकिंग की योजना बनी। आखिरकार सभी ने चूड़धार जाने के लिए अपनी तैयारियां शुरू कर दी। सामान्यतः दुर्गम ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी तथा घाटी मार्गों से पैदल यात्रा करने को ही ट्रैकिंग कहते हैं और ट्रैकिंग करने वाले को ट्रैकर। ट्रैकिंग के दौरान मनुष्य जुझारु एवं निडर बनता है। मिल कर काम करने से उसमें सहयोग की भावना भी विकसित होती हैं। ट्रैकिंग रास्ते के पेड़-पौधे, जीव-जन्तु एवं नयनाभिराम दृश्य व्यक्ति की सारी थकान हर लेते हैं। हमारी मित्र मंडली की विशेष बात यह रहती है कि पर्वतीय धार्मिक स्थल भ्रमण को ही प्राथमिकता पर रखा जाता है।

मेरे सहित राकेश, संजय और विनोद हम चारों यमुनानगर से लगभग 60 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के प्रवेश द्वार अर्थात् पौंटा साहिब मित्र अनुज के घर इकट्ठे हुए। अनुज व विनोद व्यक्तिगत कारणों से हमारे साथ इस महत्वपूर्ण ट्रैकिंग रूट पर न जा सके। अतः हम तीनों ही शाम को 7 बजे ही पौंटा साहिब से स्तोन के रास्ते 70 किलोमीटर दूर लगभग 10 बजे शिलाई पहुंच गए। शिलाई के इस मुख्यमार्ग के चौडीकरण का तेजी से कार्य चल रहा था जो भविष्य में आने वाले यात्रियों के लिए सुखद आभास करायेगा। शिलाई में हम रेस्टोरेंट में रुके और सुबह 6 बजे ही हम नेरवा के लिए निकल पड़े जो कि लगभग 60 किलोमीटर दूर था। इस रास्ते में ऊँचे झरनों एवं अठखेलियाँ खाती हुई सड़क के साथ-साथ बहती नदी का दृश्य मन को लुभा जाता है। हम स्वयं को नदी में जाने से न रोक सके, गाड़ी को सड़क किनारे पार्क कर हम नदी में उतर गए। नदी का स्वच्छ, शीतल जल हमारे शरीर व आत्मा दोनों को अंदर तक भिगो गया। प्रकृति का आनंद लेते हुए हम 9 बजे तक नेरवा पहुंच गए। यहां नाश्ते में मक्खन परोंठा आदि लेकर हमने चौपाल रोड़ पर सराहन की राह पकड़ी जो कि चारों ओर से विशालकाय पर्वतों से घिरा घाटी में एक छोटा सा किंतु बहुत ही सुन्दर पहाड़ी गांव है। हम ठीक 10 बजे यहां पहुंच गए थे। यहां हमने कॉफी का आन्नद लिया। कॉफी स्टाल के ठीक पीछे पहाड़ी नाला जिसे गदरा कहते है बह रहा था, सामने देवदार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष मानों आसमाँ के कानों में कोई रहस्य बता रहे हो। यद्यपि कॉफी पीने के बाद भी इस रोमांचक जगह से उठने का मन नहीं कर रहा था किंतु हमारी मंजिल चूडेश्वर महादेव और शिरगुल महाराज का मंदिर अभी दूर थे। कॉफी वाले ने पूछने पर बताया कि वैसे तो मंदिर यहां से लगभग 12 किलोमीटर दूर है, यदि तुम आज ही दर्शन करके वापस आना चाहते हो तो अपनी गाड़ी यहीं खड़ी कर यहां से किराये पर एसयूवी या बुलेरो गाड़ी आदि कर लो जो लगभग 800 रुपये लेकर तुम्हें 5-6 किलोमीटर आगे बेस कैंप तक छोड़ देगी। वहां से मंदिर का रास्ता आधा ही रह जायेगा। यह सुझाव सभी को बहुत अच्छा लगा और हमने बिना समय गंवाये एक बुलेरो ली और आधे घंटे में ही बेस कैंप पहुंच गए। यहाँ एनर्जी ड्रिंक, बिस्कुट, पानी आदि की अस्थाई झोपड़ी नुमा दूकानें भी लगी थी। यहां से मेरे साथ संजय व राकेश ने ट्रैकिंग शुरु की। लगभग तीन किलोमीटर तक पगडंडियाँ उतार-चढ़ाव वाली थी जिस कारण थकावट न के बराबर हो रही थी और साथ ही देवदार के जंगलों से संगीतमय हवा के झोंके तन और मन दोनों की थकान उड़ाकर ले जाते। यद्यपि इस रास्ते पर आसपास कोई झरना अथवा गदरा तो नहीं बहता किंतु कुदरत की असीमित सुंदरता के कारण हर दृश्य को आखों के साथ-साथ अपने मोबाईल में बार-बार कैद करने का मन करता हैै। तीन किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अब खड़ी चढ़ाई शुरु हुई जो कि सीधा मंदिर की ओर जाती थी। श्रद्धालु हर-हर महादेव कहते हुए चढ़ते जा रहे थे और जो थकान का अनुभव कर भी रहे थे वे पीछे से आते बुजुर्ग श्रद्धालुओं को तथा महिला-बच्चों को चढ़ते देखकर फिर उत्साह के साथ नई ऊर्जा प्राप्त कर चढ़ने लगते। अब वह पर्वत आ चुका था जिसके शिखर पर चूडेश्वर मठ स्थापित है। श्रद्धालुओं ने कालांतर में शिखर की ओर ट्रैकिंग करते हुए अनेक पगडंडियाँ बना दी थी जिस पर चढ़ते हुए सभी श्रद्धालु ऐसे लग रहे थे मानो भोले की सेना किसी लक्ष्य की ओर बढ़ रही हो। थोड़ा और आगे चले तो पगडंडियाँ बर्फ से ढ़की मिली। सभी का बर्फ देखकर मारे खुशी के कोई ठिकाना न रहा और हम तीनों एक-दूसरे के ऊपर बर्फ के गोले बनाकर फेंकने लगे।

जैसे-जैसे हम शिखर की ओर जा रहे थे, थकान व ठंडी हवा का परस्पर मेल देखने को मिला। जैसे रोते हुए बच्चें को माँ मिल जाये तो वह आन्नद से उसकी गोद में लिपट जाता है वैसे ही हवा के आँचल में आते ही थकान छूमंतर हो गई। ऊपर शिखर पर सैंकड़ों भीमकाय चट्टानें ऐसे दिखाई दे रही थी मानों किसी कलाकार ने उन्हें सलीके से टिकाकर सजाया हो। चट्टानों के बीच से चूडेश्वर मठ सामने दिखाई दे रहा था किंतु यह अभी भी लगभग एक किलोमीटर दूर होगा। यहां बक्करवाल झोपड़ी नुमा दुकानें लगाकर थके हुए भक्तों के लिए चाय, कॉफी, मैगी आदि बनाकर रखते हैं। अल्पाहार के रूप में राकेश व संजय ने मैगी ली तथा लंबे-चौड़े मखमली घास पर लेट गये और मैं पास ही फोरेस्ट द्वारा बनाई गई एक मचान पर चढ़कर प्रकृति के सौंदर्य में गुम हो गया। एक ओर शिरगुल महाराज की पर्वत शिखा थी दूसरी ओर हजारों फीट गहरी खाई। शिखर से खाई तक देवदार वृक्षों ने ऐसी आभा बिखेरी हुई थी जो समेटे न समेटी जाये। मैं धीरे-धीरे शून्य में जा रहा था। प्रकृति का सौंदर्य मेरी आँखों के रास्ते कब मेरे अन्तःकरण में उतर गया मुझे इसका भान भी न रहा। मुझे एक विशेष तरह की अनुभूति हो रही थी मानो सारा सौंदर्य मेरे अन्तःकरण में बूँद-बूँद टपक रहा था। मेरी आत्मा इस बूँद-बूँद टपकते अमृत रुपी सौंदर्य से भीग रही थी। मैं स्वयं में खो चुका था। मुझे अपने होने का बिल्कुल भी एहसास नहीं था। जाने कब संजय ने मुझे पकड़कर झकझोरा तब मैं अपने अंतःकरण से बाहर आया। संजय ने कहा कि हम कब से तुम्हें आवाजें लगा रहे हैं? कहां खो गये थे? ऊपर मचान पर ही आना पड़ा तुम्हें बुलाने के लिए, अभी मंदिर दूर है चलो देर हो रही है। मैं जैसे महीनों की नींद से जगा था, खोया हुआ सा मित्रों के साथ चूडेश्वर महादेव मठ की ओर चल पड़ा।

मठ से पहले ढलान पर रास्ते के दोनों ओर बक्करवाल गूजरों ने बांस व लकड़ी के सहारे पलड़ बाँधकर खाने-पीने का प्रबंध किया हुआ था। यहां से गुजरते हुए हम ठीक तीन बजे तक चूड़धार के स्वामी चूडेश्वर महादेव मठ में पहुंच गए। मठ के एक दम बाहर ऐतिहासिक बावड़ी के दर्शन कर पंचस्नान किया। मठ में पूज्य महात्मा जी से मिले। यहां पर सर्दियों में 20-25 फुट तक बर्फ जमा हो जाती है। इस दौरान चूड़धार यात्रा पर रोक लग जाती है एवं छह महीनों तक मंदिर में यहां के महंत और पुजारी ही रहते हैं। इनके लिए चूड़ेश्वर सेवा समिति और प्रशासन द्वारा छः माह का राशन आदि और रहने का प्रबंध किया जाता है। छः महीने तक बाहर की दुनिया से इनका नाता कट जाता है और दुनिया बनाने वाले से जुड़ जाता है। ऐसे महान संत के दर्शन कर हमने देवदार की लकड़ी से सुसज्जित मंदिर में परम पवित्र शिवलिंग के दर्शन कर पुजारी जी से इतिहास की जानकारी प्राप्त की। पुजारी जी ने बताया कि इस क्षेत्र के सबसे ऊंचे पर्वत के शिखर पर वह ऐतिहासिक स्थान है, जहां योगीराज योगेश्वर श्री कृष्ण भगवान ने महाभारत का युद्ध दिखाने के लिए बभ्रूभान (बबरीक) का कटा हुआ शीश रखा था तथा वहीं चूडेश्वर महादेव की गगनचुम्बी प्रतिमा भी है। स्थानीय लोगों में इसे चुरीचंदनी (बर्फ की चूड़ी) के रूप में जाना जाता है। भगवान शिव के अंशावतार शिरगुल महाराज की यात्रा हर वर्ष वैशाखी संक्रांति से शुरू होकर मार्गशीर्ष संक्रांति तक चलती है। हिमपात के बाद नवंबर से 14 अप्रैल तक यात्रा पर प्रतिबंध रहता है। 

अब हमारा अगला लक्ष्य तय हो चुका था। मंदिर के पीछे भीमकाय चट्टानों के बीच से गुजरते हुए हम लगभग बारह हजार फीट ऊँची उस चोटी की ओर बढ़ रहे थे, जहां महाभारत का अद्भुत इतिहास महाभारत की घटना का बखान कर रहा था। शिखर की ओर बढ़ते हुए रास्ते में एक ऐसी बड़ी चट्टान आई, जिसके ऊपर स्थानीय पहाड़ी लोगों ने कुछ 4-5 छोटे-छोटे पत्थर रखकर माँ भद्रकाली का स्थान बना रखा था और एक झंडा भी लगा रखा था। सभी उसके पास से गुजर रहे थे किंतु तभी एक स्थानीय भक्त चट्टान के साथ एक टिकाई गई लकड़ी के ऊपर से चलकर छिपकली की भांति चट्टान को पकड़कर काली देवी के उस स्थान तक पहुंच गया। सभी गुजरने वाले उसकी हिम्मत को तो सराह रहे थे किंतु युवा लड़के भी अनुसरण करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। तभी एक स्थानीय युवा महिला भी उसी बल्ली नुमा लकड़ी के ऊपर से माँ काली के स्थल तक पहुंची। अब तो मुझसे रहा न गया और मैंने भी जूते निकालकर देवी माँ के दर्शन हेतु हिम्मत जुटाई। ऊपर जाकर जब पीछे मुड़कर देखा तो दिल बैठ गया। चट्टान से सीधे कई हजार फीट गहरी खाई थी और हवा के झोके से लग रहा था कहीं इस खाई में ही समाधि ना बन जाये। खैर, माना जाता है कि बेशक हजारों की संख्या में से कोई इक्का-दुक्का ही यहां देवी के दर्शन हेतु चढ़े किंतु देवी के आशीर्वाद से आज तक किसी के साथ कोई भी अनहोनी नहीं हुई। यहां से हम चूडेश्वर महादेव की प्रतिमा से सज्जित शिखर की ओर बढ़़ चले। कुछ दूर चढ़ाई चढ़कर अब चूडेश्वर महादेव की प्रतिमा के दर्शनों हेतु वह चोटी सामने थी जिसकी गोडे तोड़ सीधी खड़ी चढ़ाई हमको करनी थी। बहुत ही संकरी वह एकदम खड़ी पगडंडी। यहां सांप के फन की तरह नजर आने वाली विशाल चट्टान पर चढ़कर जो दृश्य देखा, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। 

जितनी थकान नीचे से 6 किलोमीटर की चढ़ाई करके हुई थी, उससे अधिक इस आधा किलोमीटर की चढ़ाई में हो गई। आधा किलोमीटर चढ़ाई चढ़ने में आधा-पोना घंटा लग जाता है। 

अब हम हिमालय पर्वत की इस शृंखला के सबसे ऊंचे पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर थे। एक ऊंची सी चट्टान पर बनी महादेव की विशाल प्रतिमा ऐसी लग रही थी जैसे तांडव करने को तत्पर हो। पर्वत चारों ओर से थाल सजाकर शिव की आरती उतार रहे हो और सनसनाती हवाएं आरती गा रही हो, शिखरों के थोड़े नीचे खड़े देवदार के विशाल वृक्ष ताली बजा रहे हो और आसमान फूल बरसा रहा हो, घटाएं शंख बजा रही हो। अद्भुत! अवर्णनीय! अति सुन्दर, मनमोहक। यहां बैठकर साधना करने का मन करता है। यह शिखर बामुश्किल लगभग 50-60 गज में वर्गाकार सा रहा होगा जिसके चारों ओर दूर तक फैली घाटियां, हजारों फीट गहरी खाई अथवा कम ऊचें पर्वतों की शृंखला शोभा बढ़ा रहे हैं। हम सभी पर्वत के शिखर पर थे और यह एहसास हो रहा था कि हम जिंदगी के भी शिखर पर हैं। पुजारी जी ने दक्षिण की ओर संकेत करते हुए कहा कि उधर कुरुक्षेत्र का मैदान दिखाई देता है, इसी शिखर से बबरीक ने सारा युद्ध देखा था। जब युद्ध समाप्त होने के बाद पांडवों ने बबरीक के शीश से पूछा कि तुमने युद्ध में किस महान योद्धा को सर्वाधिक लड़ते हुए देखा तो बबरीक ने कहा कि मैंने तो पूरे युद्ध में बस! कृष्ण जी का सुदर्शन चक्र ही चलते हुए देखा।

चूडेश्वर महादेव को षाष्टांग प्रणाम कर हम नीचे उतरने लगे। जिस रास्ते में चढ़ते हुए आधा-पोना घंटा लग रहा था, उतरते हुए मात्र 10-12 मिनट ही लगे। अब हम पुनः मठ में आ गए थे। छः बज चुके थे, पुजारी जी ने कहा कि भोले की कृपा से यहां खाने व ठहरने का अच्छा प्रबंध है, आप सब यहीं ठहरे, सुबह भगवान के दर्शन करके चले जाना। किंतु हमने आज ही नीचे उतरने का निर्णय लिया जो कि हमारा अदूरदर्शिता से परिपूर्ण सबसे गलत निर्णय था। हवाएं भयानक रूप ले चुकी थी। संजय व राकेश तो फुल बाजू का अपर आदि डाले हुए थे किंतु मैं केवल टीशर्ट पहने हुए था, शीत लहर मेरे बदन को चीर रही थी। गर्दन से ऊपर का हिस्सा ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो बर्फ मे घुसा दिया हो किंतु अक्ल पर ऐसे पत्थर पडे़ हुए थे कि एक बार भी मन में यह नहीं आया कि वापस मठ में ही चलते हैं। हवा की चुभन की प्रतिक्रिया में कदमों की तीव्रता में ओर गति आ गई। एक बार भी नहीं सोचा कि हम कल से चले हुए हैं और आज सुबह से ही लगातार ट्रैकिंग कर रहे हैं, तीनों अर्धशतायु की ओर हैं, मठ में ही ठहर कर विश्राम करना चाहिए था। बस! जल्दबाजी ऐसी कि डेढ़ घंटे में ठीक साढ़े सात बजे हम आधे रास्ते बक्करवाल की दुकान तक पहुंच गए। बक्करवाल के पास चाय-वाय पी। उसने पूछा कि कहां तक जाओगे, हमने बताया कि बेस कैंप तक, वहां से गाड़ी लेकर नीचे सराहन पहुंच जायेंगे, जहां हमारी गाड़ी खड़ी है। बक्करवाल ने कहा कि बेस कैंप में अब कोई गाड़ी नहीं मिलेगी और यहां से सराहन 8-9 किलोमीटर पड़ेगा। मैं तुम्हें शार्टकट रास्ता बताता हूंँ, जो सीधा नीचे उतरता है, सीधी उतराई है जो मात्र तीन किलोमीटर है, जिससे तुम डेढ़ घंटे में सराहन पहुंच जाओगे। हम सबकी किस्मत ऐसी कि ना बक्करवाल ने कहा कि अब रात को 8 बजे जंगल में कहां जाओगे, यहीं मेरी झोपड़ी में ही रात काट लो, सुबह चले जाना और ना हमने ही एक बार भी रुकने के लिए निवेदन किया। पहली गलती मंदिर में न रुककर की और दूसरी यहां बक्करवाल की बातों मेंआकर। ना हमारे पास टॉर्च, ना डंडे, ना कपड़ा और ना माचिस, विह्सल आदि और शार्टकट के लालच में चल पड़े घने जंगल के बीचो-बीच एक अनजान राह पर। मन में विचार उठ रहे थे कि एक ही रास्ता होगा जो सीधा नीचे जायेगा, सभी बातचीत करते हुए पहुंच जायेंगे, रात को होटल में ठहरेंगे और सुबह-सुबह गाड़ी उठाकर घर के लिए रवाना हो जायेंगे। कहते हैं कि जैसा सोचते हैं वैसा ही हो यह जरूरी नहीं है। अभी आधा किलोमीटर ही चले थे कि राकेश की टांगे जवाब दे गई, उसकी माँसपेशिया खिंच गई, अक्सर अधिक चढ़ाई पर ऐसी समस्या आ जाती है। वह नीचे बैठ गया, उसे सहारा देकर खड़ा किया तो एक सेकेंड भी खड़ा नहीं हो पाया, धड़ाम से नीचे गिर गया। इधर मेरे फोन की बैटरी भी समाप्त हो गई, जिससे टॉर्च का काम ले रहे थे। इतना होने पर भी वापस बक्करवाल के पास जाने की बजाय हमने नीचे उतरने का निर्णय लिया। संजय ने अपना फोन निकाला, उसमें अभी 35 प्रतिशत बैटरी थी। अन्धेरा इतना अधिक था कि वह चार कदम आगे जाकर रास्ता देखता फिर हमे टॉर्च दिखाकर आगे-आगे चलता और राकेश मेरे दोनों कंधे के सहारे धीरे-धीरे नीचे उतरता।  

हमारी चलने की गति सामान्य गति से 10-15 प्रतिशत ही रही होगी, इस तरह हम तीनों लगभग बड़ी मुश्किल से एक किलोमीटर ही उतर पाए। आगे घुप्प अंधेरा तो था ही अब देवदार के घनघोर जंगल में आसमान भी दिखाई नहीं दे रहा था, टिमटिमाते तारें भी हमारा साथ छोड़ चुके थे। जंगल में झिंगुर व जानवरों की मिलीजुली आवाज़ें भय उत्पन्न कर रही थी। संजय के मोबाईल की बैटरी भी अब 12 प्रतिशत रह गई थी, जिसकी टॉर्च के सहारे ही हम एक-एक कदम नीचे उतर रहे थे। अब एक ओर समस्या खड़ी हो गई आगे दो पगडंडियाँ दिखाई दे रही थी।  ट्रैकिंग करने वाले शार्टकट के चक्कर में कई रास्ते बना देते हैं, दिन में तो ठीक है किंतु रात के साढ़े दस बजे कैसे जाने कि कौन सा रास्ता सही है। तभी मेरी नजर कुछ रैपर पर पड़ी जो कि दिन में चलने वालों ने चिप्स व बिस्कुट आदि खाकर फेंक दिये थे, लगा कि यही रास्ता सही होगा, तभी संजय की नजर एक जड़ से कटे देवदार के वृक्ष पर पड़ी जिसके ऊपरी सतह पर लोगों ने आते-जाते एक-दो रुपये के सिक्के घुसा रखे थे, अब यह पहचान हमारे लिए लैंड मार्क का काम कर रही थी। आगे जगह-जगह ऐसे कटे वृक्ष दिखाई दिये, जिन पर सिक्के लगे हुए थे। अब एक और समस्या खड़ी हो गई। उधर संजय का मोबाईल स्विचऑफ होने वाला था और इधर राकेश अब कंधों का सहारा लेकर भी नहीं चल पा रहा था, निराश होकर बोला - तुम लोग जाओ, मुझे यहीं छोड़ दो। हमने कहा कि यह कैसी बात कर रहे हो, रहेंगे तो सभी और चलेंगे तो तब भी एक साथ। हमने उसे समझाया कि यहां जंगल में ना कोई गुफा है ना ठिकाना, कड़ाके की ठंड पड़ रही है, यहां रुके तो कोई न कोई रीछ-भालू या बघेरा मानव गंध सूंघता हुआ आकर हमें अपना निवाला बना डालेगा, उनसे बचे तो ठंड में अकड़कर वैसे ही मर जायेंगे। जब तक एक भी सांस है, चलते रहना है। भय और थकान तो हम सबको हो रही थी किंतु चलते रहने के सिवाय अन्य कोई चारा भी नहीं था। पुजारी जी को सहायता के लिए फोन कर लेते किंतु उनका नम्बर मेरे फोन में था जो पहले ही स्विचऑफ हो चुका था वैसे भी नेटवर्क नहीं था। तब राकेश ने हिम्मत दिखाई, उससे खड़े होकर तो नहीं चला जा रहा था किंतु वह बैठकर ही सरक-सरक कर चलने लगा, राकेश को देखकर हमारी भी हिम्मत बढ़ गई, बीच-बीच में सहारा देकर उतारते किंतु खड़ा न रह पाने के कारण वह फिर बैठ-बैठकर ही सरकते हुए उतरने लगा। इस तरह वह लगभग एक घंटा उतरा। रात में घने जंगल का बहुत ही भयावह वातावरण होता है और चूड़धार के इन जंगलों में रीछ-भालू व बघेरे आदि स्थानीय लोगों द्वारा अक्सर देखे गये हैं। मारे डर के ठंड का तो कुछ अता-पता न था किंतु पैर ओर तेज चलना चाहते थे परंतु राकेश के साथ-साथ ही एक-दूसरे का उत्साहवर्धन करते हुए हम धीरे-धीरे चलते रहे। हम शिव शंभू को याद करते हुए चले जा रहे थे, तभी संजय का मोबाइल भी स्विचऑफ हो गया। अब बचा राकेश का मोबाइल, जिसमें मात्र 14 प्रतिशत बैटरी बची थी। 

संजय पहले मोबाइल की टॉर्च से आगे रास्ता देखकर आता फिर हम सबको टॉर्च दिखाता हुआ हमारे साथ चलता। इस प्रकार समय और मेहनत दोनों दोगुणा लग रहे थे। वह बोला उमेश मोबाइल में बैटरी बहुत कम है, रास्ता पता नहीं अभी कितना है और यह भी सच है कि बिना टॉर्च के हम एक भी कदम नहीं चल सकते। मैने कहा - तो फिर क्या करें? संजय बोला राकेश को एक ओर से कंधे पर मैं उठाता हूँ और एक ओर तुम उठाओ और थोड़ा तेज चलते हैं। हमने ऐसे ही किया, राकेश ने भी पूरी हिम्मत दिखाकर हमारा साथ दिया और हमारी गति पाँच गुणा बढ़ गई। मोबाइल की बैटरी 8 प्रतिशत रह गई थी। हमारे पास कोई माचिस भी नहीं थी कि कहीं चट्टान के सहारे सूखी लकड़ियों में आग जलाकर ही रात काट लें। रात के 12 बज चुके थे, रास्ते की दूरी का कोईअनुमान नहीं था। ठंड के साथ-साथ भय भी बढ़ता जा रहा था, सुबह से नाश्ते के सिवाय कुछ नहीं खाया हुआ था। भूख और थकान की ओर तो किसी का ध्यान भी नहीं गया। 

बस! ऐसे संकट की घड़ी में बजरंगबली हनुमान जी याद आयें। मैंने हनुमान चालीसा पढ़नी आरंभ कर दी। मन-मस्तिष्क में आने लगा कि नीचे उतरने की जिद में भगवान का आश्रय ठुकरा कर आये हैं, यह सब उसी का परिणाम है। यदि पुजारी जी की बात मान लेते तो वहीं मठ में महात्मा जी के पास रुकते, खाने-रहने की सारी व्यवस्था थी, ओढ़ने के लिए एक-एक व्यक्ति को 3-4 कंबल भी मिल जाते हैं। हम एक टीशर्ट में यह सोचकर चल पड़े कि शाम से पहले नीचे होटल में आ जायेंगे। फिर मन को शांत कर हनुमान जी से प्रार्थना की। हे संकटमोचन! हमारा संकट दूर करो, मोबाइल स्विचऑफ होने से पहले हमे जंगल से बाहर निकाल दो और फिर हमने हनुमान चालीसा दोहरानी शुरु कर दी। बेशक राकेश थक गया था, उसकी टांगे बेजान हो गई थी किंतु मानसिक रूप से वह हम सबसे भी दृढ़ था, वह बार-बार कह रहा था कि अब तो हम पहुंच ही गये, उसकी हिम्मत देखकर हमारा भी हौंसला बढ़ रहा था। मोबाइल की बैटरी मात्र 2 प्रतिशत रह गई। एक बार फिर सबके चेहरे की हवाइयां उड़ रही थी, हम तीनों ही बजरंगबली को याद करने लगे। उतराई थोड़ी कम होने लगी, पगडंडी भी पहले से अधिक चौड़ी दिखाई देने लगी, जो पर्वत की उतराई समाप्त होने का लक्षण था। तभी कुत्तों के भौंकने की आवाज आई, जो इस बात का संकेत था कि बजरंगबली की कृपा से हम जंगल से बाहर निकल चुके थे। मोबाइल की बैटरी भी मात्र एक प्रतिशत रह गई थी। हम ढलान पर चल रहे थे। ऊँचे-ऊँचे देवदार के वृक्ष पीछे रह गए थे। कुत्ते भौंकते हुए हमारी ओर आ रहे थे। मोबाइल में एक बज चुका था। आगे साईड में दूर तक कांटेदार तार की बाड़ लगी हुई थी,ओर आगे चलने पर बाड़ के अन्दर कोई 15-16 टैंट लगे दिखाई दिये। हमने जोर-जोर से आवाज लगाई कि कोई है? यहां कोई है? कुत्तों के भौंकने की आवाज और हमारी पुकार से दो व्यक्ति टैंट से बाहर निकल कर आए। पहले हमने पूछा कि सराहन गाँव का रास्ता कौन-सा है और कितनी दूर है। एक व्यक्ति ने बताया कि रास्ता तो यही है, जिस पर तुम चल रहे हो, लगभग एक किलोमीटर दूर होगा परंतु इतनी रात, एक बजे तुम आ कहाँ से रहे हो? उसने बहुत ही हैरानी से पूछा। हमने संक्षेप में सारी बात बताई। हमने निवेदन किया कि हम सब बहुत थके हुए हैं, ठंड भी बहुत लग रही है, यदि ठहरने के लिए कोई टैंट मिल जाये तो…। वह बोला टैंट तो कोई खाली नहीं है, दिल्ली से आये कॉलेज के विद्यार्थियों ने एडवेंचर कैंप हेतु यह सारे टैंट बुक किये हुए है, सभी विश्राम कर रहे हैं। उसने आगे बताया कि हम एडवेंचर कैंप ऑर्गनाइज करते हैं। टैंट और खाने की व्यवस्था के साथ ही हम एडवेंचर एक्टिविटी कराते हैं, आप हमारे इस टैंट में ही रात बिता सकते हैं। हमने पूछा कि कोई ओढ़ने के लिए कंबल वगैरा… उसने बात काटते हुए कहा कि सब बच्चों में बांटे हुए है कोई भी अतिरिक्त नहीं है। वे स्वयं भी अपने-अपने स्लीपिंग बैग में लेटे हुए थे। खैर वे बोले कि आपने कुछ खाया भी नहीं होगा, पहले कुछ खाना वगैरा ले लो। वे हमे पास ही एक दूसरे टैंट में लेकर गए, जहां उन्होंने कैंप के लिए मैस बनाया हुआ था। मैस में रात के खाने में से राजमा तो बचा हुआ था और दूसरे इंस्ट्रक्टर ने तभी गर्मागर्म रोटी बनाई। अपेक्षा के विपरीत खाना मिल जाने से सभी को कुछ एनर्जी सी मिल चुकी थी रात का डेढ़ बज चुका था। टैंट में आकर हमने एक बार फिर पूछा कि भाई साहब क्या कोई टैंट की चादर या दरी या कुछ भी ओढ़ने को मिल पायेगा। किंतु उन्होंने लाचारी में ना कहते हुए सिर हिलाया। हम अपने घुटनों को पेट में फंसाते हुए लेट गए। बजरंगबली की कृपा से एडवेंचर कैंप के ये इंस्ट्रक्टर हमारे लिए देवदूत बनकर आए थे।

ठंड के मारे ढंग से नींद भी कहां आ रही थी, दो-ढाई घंटे बाद ही हम उठ गए किंतु हमारे लिए देर तक जगे दोनों इंस्ट्रक्टर बार-बार जगाने पर भी नहीं जग रहे थे। वे भी पूरे दिन के थके होंगे फिर देर रात तक जागे। हमने जोर-जोर से हिला-डुलाकर कर कहा- भाई साहब, हम जा रहे हैं, सुबह हो गई है,आप दोनों का बहुत-बहुत आभार, शुक्रिया। वह नींद में ही बोला - ओके, ऑल राइट। हम उनकी नींद में विघ्न नहीं डालना चाहते थे और हम वहां से चल पड़े। राकेश पहले से बेहतर था और हम उसे सहारा देकर छः बजे तक नीचे सराहन ले आये। यहां आकर हमने एक होटल लिया। गर्म पानी से नहाकर थकान में कुछ राहत मिली। सुबह भरपेट नाश्ता किया और फिर कुछ देर विश्राम कर रात की नींद पूरी की। लगभग 11 बजे हम सराहन से घर के लिए नेरवा के रास्ते ही वापस चले। रास्ते में बिना रुके प्राकृतिक सौन्दर्य, पर्वत शिखरों पर देवदार वृक्षों की बिछी चादर सी की सुंदरता, वादियों व सड़क के साथ बहती कल-कल करती नदी के दृश्य को देखते हुए,अपनी आंखों में बसाकर आन्नद से सरोबार शाम तक अपने घर पहुंच गए। 


  • स्तंभकार

डॉ उमेश प्रताप वत्स

 लेखक : प्रसिद्ध कथाकार, कवि एवं स्तंभकार है ।

umeshpvats@gmail.com

#14 शिवदयाल पुरी, निकट आइटीआइ

यमुनानगर, हरियाणा - 135001

9416966424

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