मंगलवार, 26 सितंबर 2023

यात्रा वृतांत - चूड़धार की वह भयावह रात

 यात्रा वृतांत - चूड़धार की वह भयावह रात

  • डॉ उमेश प्रताप वत्स 


ग्रीष्मकालीन दिनों में हर कोई ठंडे क्षेत्र में जाने की योजना बनाता है। सबसे पहले कोई भी मित्र मंडली यूट्यूब, गूगल मैप के माध्यम से अनेकों ठंडे व दुर्गम स्थलों को खंगालना प्रारंभ कर देती है। दिन, समय, दूरी का ध्यान रखते हुए किसी एक स्थल को फाइनल कर योजना बनाई जाती है। कोई परिवार के साथ तो कोई मित्रों के साथ एक यादगार टूर प्रोग्राम बनाने की दृढ़ इच्छा रखते हैं। हमारी मित्र मंडली प्रतिवर्ष किसी ना किसी स्थल पर घूमने जाती ही हैं। हम कोई बहुत बड़े ट्रैकर तो नहीं किंतु फिर भी ऐसे स्थल को फाइनल करने का प्रयास करते है जहां आध्यात्मिक स्थल के साथ-साथ दुर्गम, आकर्षक, प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण एवं साहसिक ट्रैकिंग करने हेतु थका देने वाली पगडंडियाँ भी हो, क्योंकि थकने के बाद ही ठंडी हवाओं का आन्नद व्यक्ति को मदमस्त कर जाता है। 

मुझे अपने मित्र श्रीश की बात बार-बार याद आती है कि जब तक शरीर में हिम्मत है, दम है, हमें दुर्गम स्थलों के दर्शन कर लेने चाहिए क्योंकि सुगम स्थलों पर तो गाड़ी में बैठकर कभी भी जाया जा सकता है। 

प्रकृति की गोद में बसे हिमाचल प्रदेश में तमाम तीर्थस्‍थल हैं। जिनके दर्शनों के लिए देश-विदेश से श्रद्धालु पहुंचते हैं। इन्‍हीं में से एक बेहद खास तीर्थ स्थल है सिरमौर जिले में चूड़धार। यहां चूडेश्वर महादेव शिरगुल महाराज के दर्शनों के लिए देश ही नहीं विदेश से भी श्रद्धालु आते हैं। इस स्‍थान की अपनी अलग ही महत्‍ता है।

इस बार भी जब पर्वतीय भ्रमण की योजना बनी तो एक-दो पुराने ट्रैकर मित्र के स्थान पर नये मित्र जुड़ गये। 

तीन वर्ष पहले मित्र राकेश हमारे साथ हरिपुर धार के रास्ते चूड़धार ट्रैकिंग के लिए गया था किंतु एक अन्य मित्र की तबीयत खराब होने के कारण राकेश भी ट्रैकिंग को बीच में ही छोड़कर उसके साथ वापस आ गया किंतु चूड़धार जाने का सपना जो अधूरा रह गया था, उसे वह इस बार पूरा करना चाहता था। अतः चूड़धार के लिए ही चूडेश्वर महादेव के दर्शनों हेतु ट्रैकिंग की योजना बनी। आखिरकार सभी ने चूड़धार जाने के लिए अपनी तैयारियां शुरू कर दी। सामान्यतः दुर्गम ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी तथा घाटी मार्गों से पैदल यात्रा करने को ही ट्रैकिंग कहते हैं और ट्रैकिंग करने वाले को ट्रैकर। ट्रैकिंग के दौरान मनुष्य जुझारु एवं निडर बनता है। मिल कर काम करने से उसमें सहयोग की भावना भी विकसित होती हैं। ट्रैकिंग रास्ते के पेड़-पौधे, जीव-जन्तु एवं नयनाभिराम दृश्य व्यक्ति की सारी थकान हर लेते हैं। हमारी मित्र मंडली की विशेष बात यह रहती है कि पर्वतीय धार्मिक स्थल भ्रमण को ही प्राथमिकता पर रखा जाता है।

मेरे सहित राकेश, संजय और विनोद हम चारों यमुनानगर से लगभग 60 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के प्रवेश द्वार अर्थात् पौंटा साहिब मित्र अनुज के घर इकट्ठे हुए। अनुज व विनोद व्यक्तिगत कारणों से हमारे साथ इस महत्वपूर्ण ट्रैकिंग रूट पर न जा सके। अतः हम तीनों ही शाम को 7 बजे ही पौंटा साहिब से स्तोन के रास्ते 70 किलोमीटर दूर लगभग 10 बजे शिलाई पहुंच गए। शिलाई के इस मुख्यमार्ग के चौडीकरण का तेजी से कार्य चल रहा था जो भविष्य में आने वाले यात्रियों के लिए सुखद आभास करायेगा। शिलाई में हम रेस्टोरेंट में रुके और सुबह 6 बजे ही हम नेरवा के लिए निकल पड़े जो कि लगभग 60 किलोमीटर दूर था। इस रास्ते में ऊँचे झरनों एवं अठखेलियाँ खाती हुई सड़क के साथ-साथ बहती नदी का दृश्य मन को लुभा जाता है। हम स्वयं को नदी में जाने से न रोक सके, गाड़ी को सड़क किनारे पार्क कर हम नदी में उतर गए। नदी का स्वच्छ, शीतल जल हमारे शरीर व आत्मा दोनों को अंदर तक भिगो गया। प्रकृति का आनंद लेते हुए हम 9 बजे तक नेरवा पहुंच गए। यहां नाश्ते में मक्खन परोंठा आदि लेकर हमने चौपाल रोड़ पर सराहन की राह पकड़ी जो कि चारों ओर से विशालकाय पर्वतों से घिरा घाटी में एक छोटा सा किंतु बहुत ही सुन्दर पहाड़ी गांव है। हम ठीक 10 बजे यहां पहुंच गए थे। यहां हमने कॉफी का आन्नद लिया। कॉफी स्टाल के ठीक पीछे पहाड़ी नाला जिसे गदरा कहते है बह रहा था, सामने देवदार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष मानों आसमाँ के कानों में कोई रहस्य बता रहे हो। यद्यपि कॉफी पीने के बाद भी इस रोमांचक जगह से उठने का मन नहीं कर रहा था किंतु हमारी मंजिल चूडेश्वर महादेव और शिरगुल महाराज का मंदिर अभी दूर थे। कॉफी वाले ने पूछने पर बताया कि वैसे तो मंदिर यहां से लगभग 12 किलोमीटर दूर है, यदि तुम आज ही दर्शन करके वापस आना चाहते हो तो अपनी गाड़ी यहीं खड़ी कर यहां से किराये पर एसयूवी या बुलेरो गाड़ी आदि कर लो जो लगभग 800 रुपये लेकर तुम्हें 5-6 किलोमीटर आगे बेस कैंप तक छोड़ देगी। वहां से मंदिर का रास्ता आधा ही रह जायेगा। यह सुझाव सभी को बहुत अच्छा लगा और हमने बिना समय गंवाये एक बुलेरो ली और आधे घंटे में ही बेस कैंप पहुंच गए। यहाँ एनर्जी ड्रिंक, बिस्कुट, पानी आदि की अस्थाई झोपड़ी नुमा दूकानें भी लगी थी। यहां से मेरे साथ संजय व राकेश ने ट्रैकिंग शुरु की। लगभग तीन किलोमीटर तक पगडंडियाँ उतार-चढ़ाव वाली थी जिस कारण थकावट न के बराबर हो रही थी और साथ ही देवदार के जंगलों से संगीतमय हवा के झोंके तन और मन दोनों की थकान उड़ाकर ले जाते। यद्यपि इस रास्ते पर आसपास कोई झरना अथवा गदरा तो नहीं बहता किंतु कुदरत की असीमित सुंदरता के कारण हर दृश्य को आखों के साथ-साथ अपने मोबाईल में बार-बार कैद करने का मन करता हैै। तीन किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अब खड़ी चढ़ाई शुरु हुई जो कि सीधा मंदिर की ओर जाती थी। श्रद्धालु हर-हर महादेव कहते हुए चढ़ते जा रहे थे और जो थकान का अनुभव कर भी रहे थे वे पीछे से आते बुजुर्ग श्रद्धालुओं को तथा महिला-बच्चों को चढ़ते देखकर फिर उत्साह के साथ नई ऊर्जा प्राप्त कर चढ़ने लगते। अब वह पर्वत आ चुका था जिसके शिखर पर चूडेश्वर मठ स्थापित है। श्रद्धालुओं ने कालांतर में शिखर की ओर ट्रैकिंग करते हुए अनेक पगडंडियाँ बना दी थी जिस पर चढ़ते हुए सभी श्रद्धालु ऐसे लग रहे थे मानो भोले की सेना किसी लक्ष्य की ओर बढ़ रही हो। थोड़ा और आगे चले तो पगडंडियाँ बर्फ से ढ़की मिली। सभी का बर्फ देखकर मारे खुशी के कोई ठिकाना न रहा और हम तीनों एक-दूसरे के ऊपर बर्फ के गोले बनाकर फेंकने लगे।

जैसे-जैसे हम शिखर की ओर जा रहे थे, थकान व ठंडी हवा का परस्पर मेल देखने को मिला। जैसे रोते हुए बच्चें को माँ मिल जाये तो वह आन्नद से उसकी गोद में लिपट जाता है वैसे ही हवा के आँचल में आते ही थकान छूमंतर हो गई। ऊपर शिखर पर सैंकड़ों भीमकाय चट्टानें ऐसे दिखाई दे रही थी मानों किसी कलाकार ने उन्हें सलीके से टिकाकर सजाया हो। चट्टानों के बीच से चूडेश्वर मठ सामने दिखाई दे रहा था किंतु यह अभी भी लगभग एक किलोमीटर दूर होगा। यहां बक्करवाल झोपड़ी नुमा दुकानें लगाकर थके हुए भक्तों के लिए चाय, कॉफी, मैगी आदि बनाकर रखते हैं। अल्पाहार के रूप में राकेश व संजय ने मैगी ली तथा लंबे-चौड़े मखमली घास पर लेट गये और मैं पास ही फोरेस्ट द्वारा बनाई गई एक मचान पर चढ़कर प्रकृति के सौंदर्य में गुम हो गया। एक ओर शिरगुल महाराज की पर्वत शिखा थी दूसरी ओर हजारों फीट गहरी खाई। शिखर से खाई तक देवदार वृक्षों ने ऐसी आभा बिखेरी हुई थी जो समेटे न समेटी जाये। मैं धीरे-धीरे शून्य में जा रहा था। प्रकृति का सौंदर्य मेरी आँखों के रास्ते कब मेरे अन्तःकरण में उतर गया मुझे इसका भान भी न रहा। मुझे एक विशेष तरह की अनुभूति हो रही थी मानो सारा सौंदर्य मेरे अन्तःकरण में बूँद-बूँद टपक रहा था। मेरी आत्मा इस बूँद-बूँद टपकते अमृत रुपी सौंदर्य से भीग रही थी। मैं स्वयं में खो चुका था। मुझे अपने होने का बिल्कुल भी एहसास नहीं था। जाने कब संजय ने मुझे पकड़कर झकझोरा तब मैं अपने अंतःकरण से बाहर आया। संजय ने कहा कि हम कब से तुम्हें आवाजें लगा रहे हैं? कहां खो गये थे? ऊपर मचान पर ही आना पड़ा तुम्हें बुलाने के लिए, अभी मंदिर दूर है चलो देर हो रही है। मैं जैसे महीनों की नींद से जगा था, खोया हुआ सा मित्रों के साथ चूडेश्वर महादेव मठ की ओर चल पड़ा।

मठ से पहले ढलान पर रास्ते के दोनों ओर बक्करवाल गूजरों ने बांस व लकड़ी के सहारे पलड़ बाँधकर खाने-पीने का प्रबंध किया हुआ था। यहां से गुजरते हुए हम ठीक तीन बजे तक चूड़धार के स्वामी चूडेश्वर महादेव मठ में पहुंच गए। मठ के एक दम बाहर ऐतिहासिक बावड़ी के दर्शन कर पंचस्नान किया। मठ में पूज्य महात्मा जी से मिले। यहां पर सर्दियों में 20-25 फुट तक बर्फ जमा हो जाती है। इस दौरान चूड़धार यात्रा पर रोक लग जाती है एवं छह महीनों तक मंदिर में यहां के महंत और पुजारी ही रहते हैं। इनके लिए चूड़ेश्वर सेवा समिति और प्रशासन द्वारा छः माह का राशन आदि और रहने का प्रबंध किया जाता है। छः महीने तक बाहर की दुनिया से इनका नाता कट जाता है और दुनिया बनाने वाले से जुड़ जाता है। ऐसे महान संत के दर्शन कर हमने देवदार की लकड़ी से सुसज्जित मंदिर में परम पवित्र शिवलिंग के दर्शन कर पुजारी जी से इतिहास की जानकारी प्राप्त की। पुजारी जी ने बताया कि इस क्षेत्र के सबसे ऊंचे पर्वत के शिखर पर वह ऐतिहासिक स्थान है, जहां योगीराज योगेश्वर श्री कृष्ण भगवान ने महाभारत का युद्ध दिखाने के लिए बभ्रूभान (बबरीक) का कटा हुआ शीश रखा था तथा वहीं चूडेश्वर महादेव की गगनचुम्बी प्रतिमा भी है। स्थानीय लोगों में इसे चुरीचंदनी (बर्फ की चूड़ी) के रूप में जाना जाता है। भगवान शिव के अंशावतार शिरगुल महाराज की यात्रा हर वर्ष वैशाखी संक्रांति से शुरू होकर मार्गशीर्ष संक्रांति तक चलती है। हिमपात के बाद नवंबर से 14 अप्रैल तक यात्रा पर प्रतिबंध रहता है। 

अब हमारा अगला लक्ष्य तय हो चुका था। मंदिर के पीछे भीमकाय चट्टानों के बीच से गुजरते हुए हम लगभग बारह हजार फीट ऊँची उस चोटी की ओर बढ़ रहे थे, जहां महाभारत का अद्भुत इतिहास महाभारत की घटना का बखान कर रहा था। शिखर की ओर बढ़ते हुए रास्ते में एक ऐसी बड़ी चट्टान आई, जिसके ऊपर स्थानीय पहाड़ी लोगों ने कुछ 4-5 छोटे-छोटे पत्थर रखकर माँ भद्रकाली का स्थान बना रखा था और एक झंडा भी लगा रखा था। सभी उसके पास से गुजर रहे थे किंतु तभी एक स्थानीय भक्त चट्टान के साथ एक टिकाई गई लकड़ी के ऊपर से चलकर छिपकली की भांति चट्टान को पकड़कर काली देवी के उस स्थान तक पहुंच गया। सभी गुजरने वाले उसकी हिम्मत को तो सराह रहे थे किंतु युवा लड़के भी अनुसरण करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। तभी एक स्थानीय युवा महिला भी उसी बल्ली नुमा लकड़ी के ऊपर से माँ काली के स्थल तक पहुंची। अब तो मुझसे रहा न गया और मैंने भी जूते निकालकर देवी माँ के दर्शन हेतु हिम्मत जुटाई। ऊपर जाकर जब पीछे मुड़कर देखा तो दिल बैठ गया। चट्टान से सीधे कई हजार फीट गहरी खाई थी और हवा के झोके से लग रहा था कहीं इस खाई में ही समाधि ना बन जाये। खैर, माना जाता है कि बेशक हजारों की संख्या में से कोई इक्का-दुक्का ही यहां देवी के दर्शन हेतु चढ़े किंतु देवी के आशीर्वाद से आज तक किसी के साथ कोई भी अनहोनी नहीं हुई। यहां से हम चूडेश्वर महादेव की प्रतिमा से सज्जित शिखर की ओर बढ़़ चले। कुछ दूर चढ़ाई चढ़कर अब चूडेश्वर महादेव की प्रतिमा के दर्शनों हेतु वह चोटी सामने थी जिसकी गोडे तोड़ सीधी खड़ी चढ़ाई हमको करनी थी। बहुत ही संकरी वह एकदम खड़ी पगडंडी। यहां सांप के फन की तरह नजर आने वाली विशाल चट्टान पर चढ़कर जो दृश्य देखा, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। 

जितनी थकान नीचे से 6 किलोमीटर की चढ़ाई करके हुई थी, उससे अधिक इस आधा किलोमीटर की चढ़ाई में हो गई। आधा किलोमीटर चढ़ाई चढ़ने में आधा-पोना घंटा लग जाता है। 

अब हम हिमालय पर्वत की इस शृंखला के सबसे ऊंचे पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर थे। एक ऊंची सी चट्टान पर बनी महादेव की विशाल प्रतिमा ऐसी लग रही थी जैसे तांडव करने को तत्पर हो। पर्वत चारों ओर से थाल सजाकर शिव की आरती उतार रहे हो और सनसनाती हवाएं आरती गा रही हो, शिखरों के थोड़े नीचे खड़े देवदार के विशाल वृक्ष ताली बजा रहे हो और आसमान फूल बरसा रहा हो, घटाएं शंख बजा रही हो। अद्भुत! अवर्णनीय! अति सुन्दर, मनमोहक। यहां बैठकर साधना करने का मन करता है। यह शिखर बामुश्किल लगभग 50-60 गज में वर्गाकार सा रहा होगा जिसके चारों ओर दूर तक फैली घाटियां, हजारों फीट गहरी खाई अथवा कम ऊचें पर्वतों की शृंखला शोभा बढ़ा रहे हैं। हम सभी पर्वत के शिखर पर थे और यह एहसास हो रहा था कि हम जिंदगी के भी शिखर पर हैं। पुजारी जी ने दक्षिण की ओर संकेत करते हुए कहा कि उधर कुरुक्षेत्र का मैदान दिखाई देता है, इसी शिखर से बबरीक ने सारा युद्ध देखा था। जब युद्ध समाप्त होने के बाद पांडवों ने बबरीक के शीश से पूछा कि तुमने युद्ध में किस महान योद्धा को सर्वाधिक लड़ते हुए देखा तो बबरीक ने कहा कि मैंने तो पूरे युद्ध में बस! कृष्ण जी का सुदर्शन चक्र ही चलते हुए देखा।

चूडेश्वर महादेव को षाष्टांग प्रणाम कर हम नीचे उतरने लगे। जिस रास्ते में चढ़ते हुए आधा-पोना घंटा लग रहा था, उतरते हुए मात्र 10-12 मिनट ही लगे। अब हम पुनः मठ में आ गए थे। छः बज चुके थे, पुजारी जी ने कहा कि भोले की कृपा से यहां खाने व ठहरने का अच्छा प्रबंध है, आप सब यहीं ठहरे, सुबह भगवान के दर्शन करके चले जाना। किंतु हमने आज ही नीचे उतरने का निर्णय लिया जो कि हमारा अदूरदर्शिता से परिपूर्ण सबसे गलत निर्णय था। हवाएं भयानक रूप ले चुकी थी। संजय व राकेश तो फुल बाजू का अपर आदि डाले हुए थे किंतु मैं केवल टीशर्ट पहने हुए था, शीत लहर मेरे बदन को चीर रही थी। गर्दन से ऊपर का हिस्सा ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो बर्फ मे घुसा दिया हो किंतु अक्ल पर ऐसे पत्थर पडे़ हुए थे कि एक बार भी मन में यह नहीं आया कि वापस मठ में ही चलते हैं। हवा की चुभन की प्रतिक्रिया में कदमों की तीव्रता में ओर गति आ गई। एक बार भी नहीं सोचा कि हम कल से चले हुए हैं और आज सुबह से ही लगातार ट्रैकिंग कर रहे हैं, तीनों अर्धशतायु की ओर हैं, मठ में ही ठहर कर विश्राम करना चाहिए था। बस! जल्दबाजी ऐसी कि डेढ़ घंटे में ठीक साढ़े सात बजे हम आधे रास्ते बक्करवाल की दुकान तक पहुंच गए। बक्करवाल के पास चाय-वाय पी। उसने पूछा कि कहां तक जाओगे, हमने बताया कि बेस कैंप तक, वहां से गाड़ी लेकर नीचे सराहन पहुंच जायेंगे, जहां हमारी गाड़ी खड़ी है। बक्करवाल ने कहा कि बेस कैंप में अब कोई गाड़ी नहीं मिलेगी और यहां से सराहन 8-9 किलोमीटर पड़ेगा। मैं तुम्हें शार्टकट रास्ता बताता हूंँ, जो सीधा नीचे उतरता है, सीधी उतराई है जो मात्र तीन किलोमीटर है, जिससे तुम डेढ़ घंटे में सराहन पहुंच जाओगे। हम सबकी किस्मत ऐसी कि ना बक्करवाल ने कहा कि अब रात को 8 बजे जंगल में कहां जाओगे, यहीं मेरी झोपड़ी में ही रात काट लो, सुबह चले जाना और ना हमने ही एक बार भी रुकने के लिए निवेदन किया। पहली गलती मंदिर में न रुककर की और दूसरी यहां बक्करवाल की बातों मेंआकर। ना हमारे पास टॉर्च, ना डंडे, ना कपड़ा और ना माचिस, विह्सल आदि और शार्टकट के लालच में चल पड़े घने जंगल के बीचो-बीच एक अनजान राह पर। मन में विचार उठ रहे थे कि एक ही रास्ता होगा जो सीधा नीचे जायेगा, सभी बातचीत करते हुए पहुंच जायेंगे, रात को होटल में ठहरेंगे और सुबह-सुबह गाड़ी उठाकर घर के लिए रवाना हो जायेंगे। कहते हैं कि जैसा सोचते हैं वैसा ही हो यह जरूरी नहीं है। अभी आधा किलोमीटर ही चले थे कि राकेश की टांगे जवाब दे गई, उसकी माँसपेशिया खिंच गई, अक्सर अधिक चढ़ाई पर ऐसी समस्या आ जाती है। वह नीचे बैठ गया, उसे सहारा देकर खड़ा किया तो एक सेकेंड भी खड़ा नहीं हो पाया, धड़ाम से नीचे गिर गया। इधर मेरे फोन की बैटरी भी समाप्त हो गई, जिससे टॉर्च का काम ले रहे थे। इतना होने पर भी वापस बक्करवाल के पास जाने की बजाय हमने नीचे उतरने का निर्णय लिया। संजय ने अपना फोन निकाला, उसमें अभी 35 प्रतिशत बैटरी थी। अन्धेरा इतना अधिक था कि वह चार कदम आगे जाकर रास्ता देखता फिर हमे टॉर्च दिखाकर आगे-आगे चलता और राकेश मेरे दोनों कंधे के सहारे धीरे-धीरे नीचे उतरता।  

हमारी चलने की गति सामान्य गति से 10-15 प्रतिशत ही रही होगी, इस तरह हम तीनों लगभग बड़ी मुश्किल से एक किलोमीटर ही उतर पाए। आगे घुप्प अंधेरा तो था ही अब देवदार के घनघोर जंगल में आसमान भी दिखाई नहीं दे रहा था, टिमटिमाते तारें भी हमारा साथ छोड़ चुके थे। जंगल में झिंगुर व जानवरों की मिलीजुली आवाज़ें भय उत्पन्न कर रही थी। संजय के मोबाईल की बैटरी भी अब 12 प्रतिशत रह गई थी, जिसकी टॉर्च के सहारे ही हम एक-एक कदम नीचे उतर रहे थे। अब एक ओर समस्या खड़ी हो गई आगे दो पगडंडियाँ दिखाई दे रही थी।  ट्रैकिंग करने वाले शार्टकट के चक्कर में कई रास्ते बना देते हैं, दिन में तो ठीक है किंतु रात के साढ़े दस बजे कैसे जाने कि कौन सा रास्ता सही है। तभी मेरी नजर कुछ रैपर पर पड़ी जो कि दिन में चलने वालों ने चिप्स व बिस्कुट आदि खाकर फेंक दिये थे, लगा कि यही रास्ता सही होगा, तभी संजय की नजर एक जड़ से कटे देवदार के वृक्ष पर पड़ी जिसके ऊपरी सतह पर लोगों ने आते-जाते एक-दो रुपये के सिक्के घुसा रखे थे, अब यह पहचान हमारे लिए लैंड मार्क का काम कर रही थी। आगे जगह-जगह ऐसे कटे वृक्ष दिखाई दिये, जिन पर सिक्के लगे हुए थे। अब एक और समस्या खड़ी हो गई। उधर संजय का मोबाईल स्विचऑफ होने वाला था और इधर राकेश अब कंधों का सहारा लेकर भी नहीं चल पा रहा था, निराश होकर बोला - तुम लोग जाओ, मुझे यहीं छोड़ दो। हमने कहा कि यह कैसी बात कर रहे हो, रहेंगे तो सभी और चलेंगे तो तब भी एक साथ। हमने उसे समझाया कि यहां जंगल में ना कोई गुफा है ना ठिकाना, कड़ाके की ठंड पड़ रही है, यहां रुके तो कोई न कोई रीछ-भालू या बघेरा मानव गंध सूंघता हुआ आकर हमें अपना निवाला बना डालेगा, उनसे बचे तो ठंड में अकड़कर वैसे ही मर जायेंगे। जब तक एक भी सांस है, चलते रहना है। भय और थकान तो हम सबको हो रही थी किंतु चलते रहने के सिवाय अन्य कोई चारा भी नहीं था। पुजारी जी को सहायता के लिए फोन कर लेते किंतु उनका नम्बर मेरे फोन में था जो पहले ही स्विचऑफ हो चुका था वैसे भी नेटवर्क नहीं था। तब राकेश ने हिम्मत दिखाई, उससे खड़े होकर तो नहीं चला जा रहा था किंतु वह बैठकर ही सरक-सरक कर चलने लगा, राकेश को देखकर हमारी भी हिम्मत बढ़ गई, बीच-बीच में सहारा देकर उतारते किंतु खड़ा न रह पाने के कारण वह फिर बैठ-बैठकर ही सरकते हुए उतरने लगा। इस तरह वह लगभग एक घंटा उतरा। रात में घने जंगल का बहुत ही भयावह वातावरण होता है और चूड़धार के इन जंगलों में रीछ-भालू व बघेरे आदि स्थानीय लोगों द्वारा अक्सर देखे गये हैं। मारे डर के ठंड का तो कुछ अता-पता न था किंतु पैर ओर तेज चलना चाहते थे परंतु राकेश के साथ-साथ ही एक-दूसरे का उत्साहवर्धन करते हुए हम धीरे-धीरे चलते रहे। हम शिव शंभू को याद करते हुए चले जा रहे थे, तभी संजय का मोबाइल भी स्विचऑफ हो गया। अब बचा राकेश का मोबाइल, जिसमें मात्र 14 प्रतिशत बैटरी बची थी। 

संजय पहले मोबाइल की टॉर्च से आगे रास्ता देखकर आता फिर हम सबको टॉर्च दिखाता हुआ हमारे साथ चलता। इस प्रकार समय और मेहनत दोनों दोगुणा लग रहे थे। वह बोला उमेश मोबाइल में बैटरी बहुत कम है, रास्ता पता नहीं अभी कितना है और यह भी सच है कि बिना टॉर्च के हम एक भी कदम नहीं चल सकते। मैने कहा - तो फिर क्या करें? संजय बोला राकेश को एक ओर से कंधे पर मैं उठाता हूँ और एक ओर तुम उठाओ और थोड़ा तेज चलते हैं। हमने ऐसे ही किया, राकेश ने भी पूरी हिम्मत दिखाकर हमारा साथ दिया और हमारी गति पाँच गुणा बढ़ गई। मोबाइल की बैटरी 8 प्रतिशत रह गई थी। हमारे पास कोई माचिस भी नहीं थी कि कहीं चट्टान के सहारे सूखी लकड़ियों में आग जलाकर ही रात काट लें। रात के 12 बज चुके थे, रास्ते की दूरी का कोईअनुमान नहीं था। ठंड के साथ-साथ भय भी बढ़ता जा रहा था, सुबह से नाश्ते के सिवाय कुछ नहीं खाया हुआ था। भूख और थकान की ओर तो किसी का ध्यान भी नहीं गया। 

बस! ऐसे संकट की घड़ी में बजरंगबली हनुमान जी याद आयें। मैंने हनुमान चालीसा पढ़नी आरंभ कर दी। मन-मस्तिष्क में आने लगा कि नीचे उतरने की जिद में भगवान का आश्रय ठुकरा कर आये हैं, यह सब उसी का परिणाम है। यदि पुजारी जी की बात मान लेते तो वहीं मठ में महात्मा जी के पास रुकते, खाने-रहने की सारी व्यवस्था थी, ओढ़ने के लिए एक-एक व्यक्ति को 3-4 कंबल भी मिल जाते हैं। हम एक टीशर्ट में यह सोचकर चल पड़े कि शाम से पहले नीचे होटल में आ जायेंगे। फिर मन को शांत कर हनुमान जी से प्रार्थना की। हे संकटमोचन! हमारा संकट दूर करो, मोबाइल स्विचऑफ होने से पहले हमे जंगल से बाहर निकाल दो और फिर हमने हनुमान चालीसा दोहरानी शुरु कर दी। बेशक राकेश थक गया था, उसकी टांगे बेजान हो गई थी किंतु मानसिक रूप से वह हम सबसे भी दृढ़ था, वह बार-बार कह रहा था कि अब तो हम पहुंच ही गये, उसकी हिम्मत देखकर हमारा भी हौंसला बढ़ रहा था। मोबाइल की बैटरी मात्र 2 प्रतिशत रह गई। एक बार फिर सबके चेहरे की हवाइयां उड़ रही थी, हम तीनों ही बजरंगबली को याद करने लगे। उतराई थोड़ी कम होने लगी, पगडंडी भी पहले से अधिक चौड़ी दिखाई देने लगी, जो पर्वत की उतराई समाप्त होने का लक्षण था। तभी कुत्तों के भौंकने की आवाज आई, जो इस बात का संकेत था कि बजरंगबली की कृपा से हम जंगल से बाहर निकल चुके थे। मोबाइल की बैटरी भी मात्र एक प्रतिशत रह गई थी। हम ढलान पर चल रहे थे। ऊँचे-ऊँचे देवदार के वृक्ष पीछे रह गए थे। कुत्ते भौंकते हुए हमारी ओर आ रहे थे। मोबाइल में एक बज चुका था। आगे साईड में दूर तक कांटेदार तार की बाड़ लगी हुई थी,ओर आगे चलने पर बाड़ के अन्दर कोई 15-16 टैंट लगे दिखाई दिये। हमने जोर-जोर से आवाज लगाई कि कोई है? यहां कोई है? कुत्तों के भौंकने की आवाज और हमारी पुकार से दो व्यक्ति टैंट से बाहर निकल कर आए। पहले हमने पूछा कि सराहन गाँव का रास्ता कौन-सा है और कितनी दूर है। एक व्यक्ति ने बताया कि रास्ता तो यही है, जिस पर तुम चल रहे हो, लगभग एक किलोमीटर दूर होगा परंतु इतनी रात, एक बजे तुम आ कहाँ से रहे हो? उसने बहुत ही हैरानी से पूछा। हमने संक्षेप में सारी बात बताई। हमने निवेदन किया कि हम सब बहुत थके हुए हैं, ठंड भी बहुत लग रही है, यदि ठहरने के लिए कोई टैंट मिल जाये तो…। वह बोला टैंट तो कोई खाली नहीं है, दिल्ली से आये कॉलेज के विद्यार्थियों ने एडवेंचर कैंप हेतु यह सारे टैंट बुक किये हुए है, सभी विश्राम कर रहे हैं। उसने आगे बताया कि हम एडवेंचर कैंप ऑर्गनाइज करते हैं। टैंट और खाने की व्यवस्था के साथ ही हम एडवेंचर एक्टिविटी कराते हैं, आप हमारे इस टैंट में ही रात बिता सकते हैं। हमने पूछा कि कोई ओढ़ने के लिए कंबल वगैरा… उसने बात काटते हुए कहा कि सब बच्चों में बांटे हुए है कोई भी अतिरिक्त नहीं है। वे स्वयं भी अपने-अपने स्लीपिंग बैग में लेटे हुए थे। खैर वे बोले कि आपने कुछ खाया भी नहीं होगा, पहले कुछ खाना वगैरा ले लो। वे हमे पास ही एक दूसरे टैंट में लेकर गए, जहां उन्होंने कैंप के लिए मैस बनाया हुआ था। मैस में रात के खाने में से राजमा तो बचा हुआ था और दूसरे इंस्ट्रक्टर ने तभी गर्मागर्म रोटी बनाई। अपेक्षा के विपरीत खाना मिल जाने से सभी को कुछ एनर्जी सी मिल चुकी थी रात का डेढ़ बज चुका था। टैंट में आकर हमने एक बार फिर पूछा कि भाई साहब क्या कोई टैंट की चादर या दरी या कुछ भी ओढ़ने को मिल पायेगा। किंतु उन्होंने लाचारी में ना कहते हुए सिर हिलाया। हम अपने घुटनों को पेट में फंसाते हुए लेट गए। बजरंगबली की कृपा से एडवेंचर कैंप के ये इंस्ट्रक्टर हमारे लिए देवदूत बनकर आए थे।

ठंड के मारे ढंग से नींद भी कहां आ रही थी, दो-ढाई घंटे बाद ही हम उठ गए किंतु हमारे लिए देर तक जगे दोनों इंस्ट्रक्टर बार-बार जगाने पर भी नहीं जग रहे थे। वे भी पूरे दिन के थके होंगे फिर देर रात तक जागे। हमने जोर-जोर से हिला-डुलाकर कर कहा- भाई साहब, हम जा रहे हैं, सुबह हो गई है,आप दोनों का बहुत-बहुत आभार, शुक्रिया। वह नींद में ही बोला - ओके, ऑल राइट। हम उनकी नींद में विघ्न नहीं डालना चाहते थे और हम वहां से चल पड़े। राकेश पहले से बेहतर था और हम उसे सहारा देकर छः बजे तक नीचे सराहन ले आये। यहां आकर हमने एक होटल लिया। गर्म पानी से नहाकर थकान में कुछ राहत मिली। सुबह भरपेट नाश्ता किया और फिर कुछ देर विश्राम कर रात की नींद पूरी की। लगभग 11 बजे हम सराहन से घर के लिए नेरवा के रास्ते ही वापस चले। रास्ते में बिना रुके प्राकृतिक सौन्दर्य, पर्वत शिखरों पर देवदार वृक्षों की बिछी चादर सी की सुंदरता, वादियों व सड़क के साथ बहती कल-कल करती नदी के दृश्य को देखते हुए,अपनी आंखों में बसाकर आन्नद से सरोबार शाम तक अपने घर पहुंच गए। 


  • स्तंभकार

डॉ उमेश प्रताप वत्स

 लेखक : प्रसिद्ध कथाकार, कवि एवं स्तंभकार है ।

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रविवार, 24 सितंबर 2023

शोधपत्र - भारतीय ज्ञान परम्परा का परिभाषिकीकरण विषय के अन्तर्गत "वर्तमान युग में आष्टांग योग से रुपांतरित आधुनिक योग का महत्व " डॉ उमेश प्रताप वत्स

 शोधपत्र - भारतीय ज्ञान परम्परा का परिभाषिकीकरण विषय के अन्तर्गत 

"वर्तमान युग में आष्टांग योग से रुपांतरित आधुनिक योग का  महत्व "

  • डॉ उमेश प्रताप वत्स 


योग का उद्भव सृष्टि के साथ ही माना जाता है । भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में योगीराज श्री कृष्ण, महावीर और महात्मा बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। भगवान शंकर के अवतार माने जाने वाले गुरु गोरक्ष नाथ ने भी योग को संशोधित कर अपनाया। इसके पश्चात ऋषि पतञ्जलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।

अतः माना जाता है कि निसंदेह योग सृष्टि के आरम्भ से ही था किंतु इसे सूत्रबद्ध कर योग दर्शन का आविष्कार महर्षि पतंजलि ने किया।

योग की उत्पत्ति हजारों साल पहले उत्तरी भारत में मानी जाती है । हिमालय का आँचल योग की प्रयोग स्थली बना। योग शब्द का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद नामक प्राचीन पवित्र ग्रंथों में किया गया था।

योग के मुख्यतः तीन मूल तत्व हैं -प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा।

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था- 'प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया'।

'सेवा' शब्द का मूल तात्पर्य है मनुष्य के लिए कल्याणमूलक कुछ काम करना।

यहां 'परिप्रश्न' का अर्थ है- आध्यात्मिकता का व्यवहारिक स्तर से सबंधित गुरुत्वपूर्ण प्रश्न। 

द्वितीय तत्व यह है कि साधक कभी भी निरर्थक प्रश्न कर अपना मूल्यवान समय नष्ट नहीं करेगा। अतः 'प्रश्न' नहीं, साधक करेगा 'परिप्रश्न' अर्थात वह उपयुक्त पात्र के पास जाकर प्रश्न कर, जानकारी प्राप्त कर उसे जीवन में अनुशीलन करेगा।

तीसरा तत्व है- प्रणिपात। 'प्रणिपात' का अर्थ हुआ परमपुरुष के श्रीचरणों में संपूर्ण आत्मसमर्पण। 

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ''योग : कर्मसु कौशलम्'' अर्थात् योग से कर्मों में कुशलता आती है। व्यावाहरिक स्तर पर योग शरीर, मन और भावनाओं में संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने का एक साधन है।

योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ना। योग शारीरिक व्यायाम, शारीरिक मुद्रा (आसन), ध्यान, सांस लेने की तकनीकों और व्यायाम को जोड़ता है। इस शब्द का अर्थ ही 'योग' या भौतिक का स्वयं के भीतर आध्यात्मिक के साथ मिलन है।

योग शरीर और मन की एक संतुलित अवस्था है। योग भावनाओं की संतुलित अवस्था है। योग विचार और बुद्धि की संतुलित अवस्था है। योग व्यवहार की एक संतुलित अवस्था है । अगर कर्म करने पर हम ध्यान देते हैं, तो कर्म में कुशलता आती है। अगर फलाफल का विचार करते रहते हैं, तो कर्म में हमारा ध्यान नहीं रहता। हमारा ध्यान फल पर चला जाता है, और कर्म में फिर कुशलता नहीं आती है। दूसरा सम्यक योग खुदसे जुड़ना।

भगवत गीता में भी कर्म योग का जिक्र मिलता है। इसके अनुसार, वैराग्य भाव रखते हुए अपने कर्म करने चाहिए। 

भगवद गीता में, भगवान कृष्ण ने कहा, कर्म योग अथवा निस्वार्थ सेवा श्रेष्ठ है और परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है। एक बार कर्म योग का पालन करने के बाद, व्यक्ति ध्यान के गहन अभ्यास के साथ आगे बढ़ सकता है।

योग के मुख्य चार प्रकार होत हैं। राज योग, कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग।

भारत में जितने भी वेदमत पर आधारित ग्रंथ व दर्शन है, उन सभी का यही मानना है कि जीवन का एक ही लक्ष्य है और वह है पूर्णता को प्राप्त करके आत्मा को जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्त कर लेना। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वामी विवेकानंद के अनुसार भी सर्वश्रेष्ठ माध्यम अष्टांग योग है।

बहिरंग के पाँच साधनों में भी पहले दो अंग अर्थात यम और नियम सामाजिक तथा सांसारिक के साथ-साथ हमारे निजी व्यवहार में भी कुशलता और एकरूपता लाने में हमारी सहायता करते हैं, जबकि अन्य अंग हमारे आत्मिक, शारीरिक और मानसिक विक्षेपों को दूर करते हैं। इसलिए अगर हम साधना के उच्चतम शिखर अर्थात मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें इन आठों श्रेणियों से होकर गुजरना ही होगा और इनमें निपुणता लानी ही होगी।

1) यम :

अष्टांग योग का प्रथम अंग है यम, महर्षि पतंजलि ने इन यमों की परिगणना इस प्रकार की है –

“अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।” (योगसूत्र- 2.30)

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह – ये पाँच यम हैं।

१) अहिंसा – मन, वचन और कर्म आदि से किसी के साथ हिंसा न करना, किसी का अहित न चाहना, सभी का सम्मान करना और सभी के लिए प्रेम का भाव रखना।

२) सत्य – जो चीज जैसी है उसे वैसा ही स्वीकार करना और वैसा ही बोलना।

३) अस्तेय – इसका शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना, किसी चीज को प्राप्त करने के लिए मन में आने वाले चोरी के भाव से भी दूर रहना।

४) ब्रह्मचर्य – शरीर के सभी सामर्थ्यों की संयम पूर्वक रक्षा करना, व्यभिचार से दूर रहना, इंद्रियों को अपने वश में रखना।

५) अपरिग्रह – मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों को त्याग देना या उनका संग्रह न करना, सिर्फ उतना ही लेना और रखना जितने की जरूरत हो।

2) नियम :

अष्टांग योग का दूसरा अंग है नियम, इसके बारे में महर्षि पतंजलि ने लिखा है –

“शौचसन्तोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।” (योगसूत्र- 2.32)

नियम के भी 5 विभाग हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।

१) शौच – शरीर व मन की को पवित्र रखना ही शौच है। हमारा शरीर स्नान, सात्विक भोजन, मल त्याग इत्यादि से पवित्र होता है, तो वहीं मन राग-द्वेष के त्याग और अंतःकरण की शुद्धि से पवित्र होता है।

२) संतोष – अपना कर्म करते हुए जो भी फल प्राप्त हो, उसे ईश्वर कृपा समझकर उसी में संतुष्ट रहना और लालच न करना।

३) तप – सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्दों में भी समभाव रखते हुए शरीर व मन को साध लेना।

४) स्वाध्याय – ज्ञान प्राप्ति के लिए धर्म शास्त्रों का विवेकपूर्ण अध्ययन करना, संतों के सानिध्य में सत्संग करना व सदविचारों का आदान प्रदान करना।

५) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर की भक्ति करना, पूर्ण मनोयोग से ईश्वर को समर्पित होकर उनके नाम, रूप, गुण, लीला इत्यादि का श्रवण, उच्चारण, मनन और चिंतन करना।

यम और नियम के विषय में स्वामी विवेकानंद कहते हैं –

“यम और नियम चरित्र निर्माण के साधन है। इनको नींव बनाए बिना किसी तरह की योग साधना सिद्ध न होगी।”   

(राजयोग, द्वितीय अध्याय, पृष्ठ 17)

3) आसन : 

अष्टांग योग का तीसरा अंग है आसन। पतंजलि योग दर्शन के अनुसार शरीर की जिस स्थिति में रहते हुए सुख का अनुभव होता हो और उस शारीरिक स्थिति में स्थिरता पूर्वक अधिक देर तक सुख पूर्वक रहा जा सकता हो, उस स्थिति विशेष को आसन कहा जाता है।

आसन न केवल शरीर को लचीला बनाता है बल्कि यह शरीर की सक्रियता और मानसिक एकाग्रता को भी उन्नत करता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक संरचना में कुछ विभिन्नताएँ भी होती है। अतः उसे अपनी सुविधा के अनुसार ही आसन का चयन करना चाहिए।  लेकिन कुछ ऐसी भी बातें हैं जो सभी के लिए अनिवार्य और आवश्यक है। स्वामी विवेकानंद जी इस विषय में कहते हैं –

“आसन के संबंध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदंड को सहज स्थिति में रखना आवश्यक है, ठीक से सीधा बैठना होगा। वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहे, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े।” 

(राजयोग , द्वितीय अध्याय , पृष्ठ – 18)

आसन की सिद्धि से नाड़ियों की शुद्धि, आरोग्य की वृद्धि एवं शरीर व मन को स्फूर्ति प्राप्त होती है। 

आसन के अनेक प्रकार हैं, जैसे मर्कटासन, मयूरासन, गोमुखासन इत्यादि। हालांकि, साधना में लंबे समय तक बैठने के लिए कुछ विशेष प्रकार के आसनों को ही उपयुक्त माना जाता है, जैसे सिद्धासन, पद्मासन इत्यादि। जब तक बहुत उच्च अवस्था प्राप्त ना हो जाए तब तक प्रत्येक साधक को इन आसनों में नियमानुसार रोज बैठना पड़ता है और अंततः एक अवस्था आती है जब व्यक्ति इस आसन में पूर्णत: पारंगत हो जाता है, इस अवस्था को आसन सिद्धि कहते है।

4) प्राणायाम :

अष्टांग योग का चौथा अंग है प्राणायाम, प्राणायाम दो शब्दों अर्थात प्राण और आयाम से मिलकर बना है। प्राण शब्द का अर्थ है – चेतना शक्ति और आयाम शब्द का अर्थ है –  नियमन करना, संयम करना अर्थात लयबद्ध करना। अतः स्वामी विवेकानंद मानते हैं कि प्राणायाम का अर्थ है “सांसों को लयबद्ध करके प्राणों का संयम कर लेना”।

योगियों के अनुसार मानव शरीर में प्रमुख तीन सुक्ष्म नाड़ियां है, जिनसे होकर ऊर्जा समस्त शरीर के विभिन्न अंगों और नाड़ियों में प्रवाहित होती है। ये तीन नाड़ियां है – इडा, पिंगला और सुषुम्ना। साधारण मनुष्य में मुख्यतः इड़ा और पिंगला ही जागृत होती है और सुषुम्ना प्रायः निष्क्रिय अवस्था में ही रहती है। सुषुम्ना में शक्ति प्रवाह को हम कुंडलिनी जागरण भी कह सकते हैं, सुषुम्ना में शक्ति प्रभाव होने के साथ ही व्यक्ति में मन व चेतना के स्तर पर अनेक बदलाव होते हैं, जैसे एक-एक पर्दा हटता जा रहा हो और तब योगी इस जगत की सूक्ष्म या कारण रूप में उपलब्धि प्राप्त करते हैं।

5) प्रत्याहार :

“प्रत्याहार का अर्थ है एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना। मन की बहिर्गति को रोककर इंद्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमें सफल होने पर हम यथार्थ चरित्रवान होंगे, हमें अनुभूति होगी कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गए हैं, इससे पहले हम तो मशीन मात्र हैं।” 

ध्यान किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन में प्रारम्भ करना चाहिए और धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। अन्यथा लाभ की बजाय हानि भी हो सकती है। प्रारंभ में आँख बंद कर शांत होकर बैठना कठिन लगेगा। एकाग्रता नहीं बनेगी। प्रतिदिन 5 मिनट बैठने से अभ्यास प्रारंभ कर सकते हैं।

6) धारणा : 

अष्टांग योग का छठा अंग है धारणा अर्थात अपने मन और चित्त को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान विशेष पर केंद्रित या धारण करना। धारणा धारण किया हुआ चित्त जैसी भी धारणा या कल्पना करता है, वैसा ही घटित होने लगता है। स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी विषय में अर्थात् हृदय, भृकुटि, जिह्वा, नासिका आदि आध्यात्मिक प्रदेश तथा इष्ट देवता की मूर्ति आदि बाह्य विषयों में चित्त को लगा देने को धारणा कहते हैं। धारणा में किसी विशेष स्थान पर ध्यान लगाने की विधि के बारे में स्वामी विवेकानंद कहते हैं– “मान लो ह्रदय के एक बिंदु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतः सहज उपाय यह है कि ह्रदय में एक पद्म(पुष्प) की भावना करो और कल्पना करो कि वह ज्योति से पूर्ण है। चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो।”

स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी विषय में अर्थात् हृदय, भृकुटि, जिह्वा, नासिका आदि आध्यात्मिक प्रदेश तथा इष्ट देवता की मूर्ति आदि बाह्य विषयों में चित्त को लगा देने को धारणा कहते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि के उचित अभ्यास के पश्चात् यह कार्य सरलता से होता है। प्राणायाम से प्राण वायु और प्रत्याहार से इंद्रियों के वश में होने से चित्त में विक्षेप नहीं रहता, फलस्वरूप शांत चित्त किसी एक लक्ष्य पर सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। विक्षिप्त चित्त वाले साधक का उपरोक्त धारणा में स्थित होना बहुत कठिन है। जिन्हें धारणा के अभ्यास का बल बढ़ाना है, उन्हें आहार-विहार बहुत ही नियमित करना चाहिए तथा नित्य नियमपूर्वक श्रद्धा सहित साधना व अभ्यास करना चाहिए।

7) ध्यान :

आष्टांग योग का सातवां अंग ध्यान है। जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए, उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना अर्थात् केवल ध्येय मात्र की एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके बीच में किसी भी दूसरी वृत्ति का न उठना ध्यान कहलाता है ।

ध्यान एक योगक्रिया है, विद्या है, तकनीक है, आत्मानुशासन की एक युक्ति है जिसका प्रयोजन है एकाग्रता, मानसिक स्थिरता व संतुलन, धैर्य और सहनशक्ति प्राप्त करना।

ध्यान का तात्पर्य है, वर्तमान में जीना। वर्तमान में जीकर ही मन की चंचलता को समाप्त किया जा सकता है, एकाग्रता लायी जा सकती है। इसी से मानसिक शक्ति के सारे भंडार खुलते हैं। उसी के लिए ही ध्यान की अनेक विधियां हैं। जो साधक को समाधि की ओर ले जाती है।

8) समाधि : 

आष्टांग योग का अंतिम अंग समाधि है।

समाधि वह अवस्था है ,जहां साधक चेतना के उस बिंदू पर पहुंचता है जिससे परे कोई चेतना नहीं होती।

आधुनिक काल में योग :

1700-1900 ईसवी के बीच की अवधि को आधुनिक काल के रूप में माना जाता है जिसमें महान योगाचार्यों - रमन महर्षि, रामकृष्‍ण परमहंस, परमहंस योगानंद, विवेकानंद आदि ने राज योग के विकास में योगदान दिया है। यह ऐसी अवधि है जिसमें वेदांत, भक्ति योग, नाथ योग या हठ योग फला - फूला।

स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी 1863 - 4 जुलाई 1902) : आधुनिक योग का इतिहास शुरू होता है 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म संसद के साथ। उन्नीसवीं सदी के अंत में आधुनिक योग अमेरिका पहुंचा।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार समाधि प्रत्येक मनुष्य ही नहीं अपितु प्रत्येक प्राणी का भी अधिकार है। इसे निम्नतम प्राणी जैसे कीट-पतंग से लेकर अत्यंत उन्नत देवता तक सभी कभी न कभी अवश्य प्राप्त करेंगे और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जाएगी, तभी वह सभी बन्धनों से मुक्त होगा। स्वामी विवेकानंद की 'राज योग' मूलतः महर्षि पतंजलि के योग सूत्रों पर आधारित है, जिसकी सबसे अधिक चर्चा तब शुरू हुई, जब 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए और न्यूयॉर्क में अपने शिष्यों के समक्ष योग की बारीकियों और गहराइयों पर आधारित व्याख्यान दिया। इन्हीं व्याख्यानों को संकलित करके एक पुस्तक का स्वरूप दिया गया जिसका नाम है- राजयोग।

संतुलित आहार और योग :

योगासन-प्राणायाम प्रतिदिन करते हैं और संतुलित आहार नहीं लेते तो योगासन-प्राणायाम का स्वास्थ्य पर प्रभाव बहुत कम होगा। संतुलित आहार का मन-मस्तिष्क पर भी प्रभाव पड़ता है। “जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन” – ये कहावत सभी ने सुनी है। आजकल तामसिक भोजन यथा जंकफूड, अधपका हुआ, बासी व भोजन निर्माण की मूल प्रक्रिया को बदल कर बनाए गए व्यंजनों का प्रचलन अधिक हो गया है। साथ ही असमय खाना भी प्रचलन में है। तामसिक भोजन ग्रहण करेंगे, असमय करेंगे और योग करेंगे तो ये समन्वय कैसे संभव है? ऐसे में स्वास्थ्य लाभ की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है।

योगासन, प्राणायाम व ध्यान योग के इन तीनों अंगों को नियमित अभ्यास में लाने से स्वास्थ्य को उचित लाभ मिलता है। कभी-कभी करने से स्वास्थ्य लाभ नहीं मिलता। सामान्यतः लोग प्रारम्भ करते हैं और कुछ दिन करके छोड़ देते हैं। दृढ़तापूर्वक नियमित योग अभ्यास करने की आदत लगनी चाहिए। योगासन करते समय श्वास क्रिया महत्वपूर्ण है। सामान्य नियम है – शरीर का विस्तार करते समय श्वास भरना और संकुचन करते समय श्वास छोड़ना। बिना श्वास क्रिया के योगासन करना मात्र व्यायाम ही होता है।


हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है –


चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२.२॥


अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिए।

श्वास नियमन व नियंत्रण के लिए प्राणायाम का अभ्यास अच्छा रहता है। कपालभाति के बाद इन तीन भस्त्रिका, अनुलोम-विलोम व भ्रामरी प्राणायाम को नियमित अभ्यास में जोड़ सकते हैं। न्यूनतम 15 मिनट प्राणायाम नियमित करना चाहिए। धीरे-धीरे समय बढ़ा सकते हैं।

योग की प्रचलित धारणा से निकल कर योग आधारित जीवन शैली को जीवनचर्या का भाग बनाना आवश्यक है। इस भाग-दौड़ के जीवन में आहार-विहार के सामान्य नियमों को दिनचर्या में सम्मिलित करने से स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। 

संतुलित आहार , संयमित व्यवहार एवं प्रेरणादायी आचार यही मानव के जीवन को उच्च बनाते हैं तथा आष्टांग योग में इन सभी बातों पर विस्तृत वर्णन किया गया है । अतः हम आष्टांग योग के प्रत्येक अंग को अपने जीवन में उतारते हुए ,साधते हुए न केवल मानव से मानवता की यात्रा पूर्ण कर सकते हैं अपितु परम वैभव ईश्वर प्राप्ति भी कर सकते हैं ।

ध्यान सिद्धि में राग द्वेष और मोह बाधक तत्व हैं। ध्यान करने वाले को इसका तत्काल परित्याग कर देना चाहिए। चेतन आत्मा का शाश्वत सत्य है।

योग के माध्यम से स्वस्थ जीवन की परिकल्पना को लेकर भारत के उन्नत प्रयासों से 11 दिसम्बर 2014 को अमेरिका में स्थित संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के प्रस्ताव को मंजूरी मिलने के बाद सर्वप्रथम इसे 21 जून 2015 को पूरे विश्व में 'अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस' (इंटरनेशनल डे ऑफ योगा) के नाम से मनाया गया।

सांसारिक जीवन में समय अभाव देखते हुए स्वस्थ जीवन हेतु योग का संक्षिप्त रूप में अभ्यास करने के लिए नियमित सूर्यनमस्कार करने की सलाह दी जाती है। जिसके भेद है - 

प्रणामासन: ॐ मित्राय नमः।

हस्त उत्तानासन: ॐ सूर्याय नमः।

उत्तानासन: ॐ भानवे नमः।

अश्व संचालनासन: ॐ खगाय नमः।

चतुरंग दंडासन: ॐ पूष्णे नमः।

अष्टांग नमस्कार: ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।

भुजंगासन: ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।

अधोमुख श्वानासन: ॐ मरीचये नमः।

प्रतिदिन सूर्यनमस्कार करने से शरीर की ऊर्जा का स्तर बेहतर बना रहता है साथ ही शारीरिक कार्यक्षमता और दक्षता में भी अद्भुत सुधार देखने को मिलता है ।

शरीर, मन और आत्मा को नियंत्रित करने में योग हमारी बहुत मदद करता है। शरीर और मन को शांत करने के लिए यह शारीरिक और मानसिक अनुशासन का एक संतुलन बनाता है। यह तनाव और चिंता का प्रबंधन करने में भी सहायता करता है और आपको आराम से रहने में मदद करता है।

पतंजल‍ि ने प्राणायाम की चार क्रियाएं बताई हैं- प्रथम बाह्‍य वृत्तिक, द्वितीय आभ्यांतर वृत्तिक, तृतीय स्तम्भक वृत्तिक और चतुर्थ वह प्राणायाम होता है, जिसमें बाह्‍य एवं आभ्यांतर दोनों प्रकार के विषय का अतिक्रमण होता है।

पारंपरिक योग की उत्पत्ति वेदों और तंत्रों के आध्यात्मिक दर्शन से हुई है। आधुनिक योग स्वयं को दुनिया भर की दार्शनिक प्रणालियों से प्रेरित करता है। पारंपरिक योग धीरे-धीरे बाहरी, संवेदी, क्षणिक दुनिया से दूर जाकर ऊर्जा को आंतरिक, आध्यात्मिक, स्थायी सत्य पर अधिक केंद्रित करने की दिशा में काम करता है।

आधुनिक काल में स्वामी विवेकानंद जी की भाँति महर्षि महेश योगी ने भी योग विद्या का प्रचार प्रसार सम्पूर्ण विश्व में किया। महर्षि महेश योगी के द्वारा हिमालय पर, दो वर्षों तक मौन साधना करने के उपरान्त भावातीत ध्यान की शिक्षा दी गयी। महर्षि महेश योगी के द्वारा प्रतिपादित भावातीत ध्यान सम्पूर्ण विश्व में एक आन्दोलन के रुप में चला।

पारंपरिक योग में सिर्फ आसन ही नहीं बल्कि अन्य अभ्यास भी शामिल हैं जो मन और हृदय को शुद्ध करते हैं। चूंकि यह समग्र विकास से जुड़ा है, इसलिए लक्ष्य हासिल करने में थोड़ा वक्त लगेगा. यह मन, शरीर और आत्मा के विकास पर केंद्रित है। आधुनिक योग चटाई पर एक घंटे तक आसन का अभ्यास करने के बारे में है। 

पारंपरिक योग आमतौर पर शरीर और आत्मा को सद्भाव और एक साथ लाने के लिए ध्यान अभ्यास से शुरू होता है। आधुनिक योग में ऐसा नहीं है।

सरल योग जिसका वर्णन ऋषि पतंजलि द्वारा "पतंजलि योग प्रदीप" में किया गया जन साधारण के लिए है जो आज भी प्रचलित है। इसका उपयोग स्वस्थ जीवन शैली के लिए किया जाता है और यह कई रोगों के इलाज़ में भी प्रभावी है।

लोग इस आधुनिक जीवन में बहुत व्यस्त है, जब मस्तिष्क को आराम नही मिलता तो यह योग ही हमारे मस्तिष्क को 8 घंटे की नींद जितना आराम देता है, योग द्वारा कई प्रकार की न्यूरो बीमारियों को ठीक होते देखा गया है, और आजकल के युग में न्यूरो बीमारियों से ग्रसित लोग योग को ज्यादा महत्व देते है क्योंकि योग उन्हें एक प्रकार से बीमारी से सुकून प्राप्त करवाता है। योग में बताए गए आसन हमारे शरीर की सभी नसों और तंत्रिकाओं को खींचती है जिनसे हमारी नसें सही रूप से कार्य कर सके योग में अलग अलग आसन मस्तिष्क के अलग अलग तंत्रिकाओं को सक्रिय करती है और उन्हें ठीक करती है। और यह एक बहुत सटीक कारण है की अन्य देशों में योग को क्यों एकदम से अपना लिया। क्योंकि वो यह जानते है की योग बहुत कारगर है मानव शरीर को स्वस्थ रखने हेतु। इसीलिए योग आधुनिक जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।

आधुनिक जीवन शैली ने मन-शरीर के संबंधों में सामजंस्य खो दिया है जिससे उच्च रक्तचाप, कोरोनरी हृदय रोग और कैंसर जैसी कई तनाव-आधारित बीमारियां हो गई हैं। इन बीमारियों को रोकने और उनका इलाज करने के प्रयास ने बेहतर जीवन शैली और बेहतर रणनीतियों की खोज को गति दी, जो कि योग जैसे प्राचीन विषयों की पनुर्खोज में परिवर्तित हो गए। अक्सर शरीर के मतभेदों और सीमाओं के बारे में पूरी जानकारी और समझ के बिना, आसन का अभ्यास किया जाता है। इससे गंभीर चोट लग सकती है और आसन की तकनीक, उद्देश्य और लाभ के बारे में जागरूकता की कमी हो सकती है।

वर्तमान में योग के अनेक परिवर्तित रुप प्रचलित है । हॉट योग भी विश्वभर में पसंद किया जा रहा है । भारतीय योगी बिक्रम चौधरी वह गुरु हैं, जो अमेरिका में गर्म कमरे में 26 योग मुद्राओं की थका देने वाली श्रृंखला लेकर आए। वह कक्षा में चिल्लाने, छात्रों के लिए गाने और अपने अनुयायियों के शरीर की बीमारियों को ठीक करने के लिए जाने जाते हैं। हॉट योग एक गर्म कमरे में किया जाता है, जिसका तापमान कम से कम 40-45 डिग्री रखा जाता है। यही वजह है कि इसे हॉट योगा कहा जाता है। 90 मिनट के इस योगासन सेशन में 26 आसन और 2 प्राणायाम किए जाते हैं। हॉट योगा करने के लिए सबसे पहले आप योग श्रंखला के सरल योग को करने का अभ्यास करते हैं जैसे कि बालासन, वृक्षासन और भुजंगासन आदि। 

जिसके अभ्यास से व्यक्ति स्वस्थ रहता है ।

योगाभ्यास से मांसपेशियों को मजबूत बनाना, बेहतर नींद, लचीलापन बढ़ाना और तनाव कम करना शामिल है। 

वर्तमान युग में बदलते परिवेश में योगाभ्यास से अपने जीवन को संयमित करते हुए स्वस्थ जीवन हेतु यही एकमात्र सही मार्ग है।


संदर्भ -

पतंजलि दर्शन शास्त्र

राज योग -स्वामी विवेकानंद

एम ए योग विज्ञान पाठ्य पुस्तक


प्रलेख : जब तक भारत की अदालत-कचहरी में हिंदी भाषा में काम शुरू नहीं हुआ तब तक हिंदी का सम्मान अधूरा है -डॉक्टर राम प्रताप वत्स

 आलेख : 

जब तक भारत के कोर्ट-कचहरी में हिंदी भाषा में कार्य प्रारंभ नहीं होता तब तक हिंदी का सम्मान अधूरा है

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 


एक स्वतंत्र देश की खुद की एक भाषा होती है, जो उस देश का मान-सम्मान और गौरव होती है। भाषा और संस्कृति ही उस देश की असली पहचान होती है। भाषा ही एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा हम अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। विश्व में कई सारी भाषाएँ बोली जाती है, जिसमें हिंदी भाषा का विशेष महत्व है। यह भाषा भारत में सबसे अधिक बोली जाती है तथा विश्व में बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी भाषा का दूसरा स्थान है।

राष्ट्रभाषा किसी भी देश की पहचान और गौरव होती है। हिन्दी हिंदुस्तान को एक सूत्र में बांधे रखती है। भारत में '14 सितंबर' को हर वर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाता है। हिन्दी हिंदुस्तान की भाषा है। इसके प्रति आस्था व निष्ठा रखना हमारा परम कर्तव्य है। 14 सितंबर को 'हिन्दी दिवस' पर हिंदी वैज्ञानिकों एवं हिंदी भाषा से जुड़े लोगों के लंबे-लंबे भाषण होते हैं। हिंदी को सरल बनाने पर माथापच्ची होती है। भविष्य में यह भी डर है कि कहीं हिंदी भाषा को सरल बनाते-बनाते इसका रूप ही न बिगाड़ दिया जाये। इन विद्वानों के कारण हिंदी भाषा के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराता दिखाई दे रहा है। 

जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा सदैव क्षेत्रीय भाषा के निकट होती है और हिंदुस्तान के बहुत बड़े भूभाग पर हिंदी से अत्यंत मिलती-जुलती बोली अथवा भाषा ही अधिकतम लोगों की मातृभाषा है। किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। अतः हिंदी हमारी पहचान है। 

अपनी मातृभाषा से जुड़कर ही व्यक्ति अपनी धरोहर से जुड़ता है और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करता है। मातृभाषा व्यक्ति की समाजिक भाषाई पहचान को दर्शाता है। 

राष्ट्रभाषा अर्थात् आमजन की जनभाषा। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन–जन के विचार–विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। यद्यपि देश के अधिकतम राज्यों में जो भी मलयालम, कन्नड़, तेलुगू, मराठी, गुजराती आदि भाषाएं बोली जाती है हैं वे सभी राष्ट्रभाषा ही है। इस दृष्टि से राष्ट्रभाषा हिंदी को को संपर्क भाषा कहना अधिक सही रहेगा। राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। हिंदी संपर्क भाषा के रूप में एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच तालमेल बैठाकर सामंजस्य बनाती है।

हिंदी भाषा समाज के सभी लोगों को आपस में जोड़ने का कार्य करती है। हिंदी भाषा का प्रयोग हमें गौरव और मान सम्मान प्राप्त कराता है, विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी भाषा का दूसरा स्थान है, हमारी मातृभाषा हिंदी भारत की संस्कृति, गौरव और मान-सम्मान है। हिंदी भाषा के वृहद रूप से ही भारत की पहचान है। किंतु हिंदी की चिंता का दिखावा करने वाले विद्वत जन स्वयं अंग्रेजी बोलकर शेखी बघारते मिल जाते हैं। देश के अधिकतम हिंदी अध्यापक, प्राध्यापक प्रार्थना पत्र को भी अंग्रेजी में लिखना गौरव समझते हैं। अपने बच्चों, पोतों के साथ टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात करने से उन्हें लगता है जाने कौन-सा किला फतेह कर आये हैं। 14 सितंबर के तुरंत बाद हिंदी दिवस कार्यक्रम के आयोजक भी बाजार का पूरा हिसाब-किताब अंग्रेजी में करके आते हैं। इन चिंतकों के युवा बच्चों में अंग्रेजी फिल्में देखने का भूत सवार है। घर की अनपढ़ या कम पढ़ी-लिखी महिला बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती हुई जुराब को शॉक्स व जूतों को शूज कहना ज्यादा पसंद करती हैं। समाज के आम लोगों के साथ-साथ प्रशासन भी हिंदी के प्रयोग के लिए प्रेरणादायी कार्यक्रम आयोजित कर स्वयं भी विभागीय पत्र व्यवहार अंग्रेजी में ही करते हैं। ज्ञान सभी भाषाओं का होना चाहिए किंतु आप अंग्रेजी को जब जबरदस्ती किसी पर थोपते है तो यह अत्याचार कहलाता है। 

हरियाणा एक विशुध्द हिंदी भाषी प्रांत है। हिंदी की छोटी बहन हरियाणवी बोली के रूप में प्रयुक्त होती है। हरियाणा का हर व्यक्ति हिंदी भाषा बहुत अच्छी तरह पढ़-लिख लेता है किंतु यहां भी सभी शत-प्रतिशत विभागों में अधिकतर विभागीय पत्र अंग्रेजी में आते हैं क्योंकि हरियाणा के आइएएस अधिकारी अंग्रेजी भाषा के इतने अधिक विद्वान हैं कि हिंदी में पत्र भेजने से उनकी आत्मा उन्हें कचोटने लगेगी। 

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां संसद और विधानसभा सदस्य के लिए एक अनपढ़ व्यक्ति भी चुनाव लड़ सकता है और अपने सेवाभाव अथवा लोकप्रियता के कारण पढ़े-लिखे प्रत्याशी को हराकर चुनाव जीत सकता है। ऐसे में यदि वह किसी विभाग का मंत्री बन जाये और विभाग में सारा कार्य, पत्र व्यवहार अंग्रेजी में होता हो तो मंत्री क्या खाक काम करेगा? वह अंग्रेजी के उस बोझ को ढोता रहेगा किंतु हिंदी में सब कार्य हो इसके लिए प्रयास नहीं करेगा क्योंकि उसको भी लगता है ऐसा करने से लोग क्या कहेंगे? इसी संकोच के कारण स्वतंत्र होने के 75 वर्ष बाद भी हमारे कोर्ट-कचहरी में आज भी सारा कार्य ऊर्दू-अंग्रेजी में होता है। वर्षों की मेहनत के बाद जब कोई व्यक्ति सिर छिपाने के लिए जमीन खरीदता है तो उसकी रजिस्ट्री की भाषा स्वयं तहसीलदार भी नहीं समझा पाता कि लिखा क्या है। जमीन आदि के झगड़े-फसाद के मामले कोर्ट में वर्षों चलते रहते हैं और जब 15-20 वर्षों में जाकर जज कोई निर्णय सुनाता है तो वह लिखित निर्णय जिसे वकील साहब बहुत ही गर्व से जजमेंट की कॉपी बोलते हैं, अंग्रेजी में लिखी होती है। कब तक चलता रहेगा यह सब? कब बदलेगी हमारी व्यवस्था? जो नक्शानवीस रजिस्ट्री लेखक उर्दू भाषा को देवनागरी में टाइप करता है, वह उन मुश्किल उर्दु के शब्दों को हिंदी में क्यों नहीं लिख पाता। माननीय जजों को हिंदी से इतनी नफरत क्यों हैं कि जिसके लिए निर्णय सुना रहे हैं, उसे ही समझ में नहीं आता तब वकील उसे अपने ढंग से समझाता है। 

यदि हम सच में ही हिंदी प्रेमी है तथा हिंदी का मान-सम्मान करना चाहते हैं तो फादर कामिल बुल्के की तरह मन कर्म वचन से हिंदी के लिए समर्पित होना पड़ेगा जो एक विदेशी होते हुए भी हिंदी की वैज्ञानिकता, सौम्यता, सरलता से इस कद्र प्रभावित थे कि पूरा जीवन ही हिंदी सेवा में लगा दिया। 

फादर बुल्के बेल्जियम से भारत आये एक मिशनरी थे। भारत आकर मृत्युपर्यन्त हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे। वे कहते थे कि संस्कृत महारानी है, हिन्दी बहूरानी और अंग्रेजी तो नौकरानी है। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। 

हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसके बारे जितना लिखा जाए उतना काम ही है। इस भाषा से हम कई और भाषाओं का ज्ञान भी ले सकते हैं। 

विश्व की प्राचीन और सरल भाषाओं की सूचि में हिंदी को अग्रिम स्थान मिला हैं। हिंदी भारत की मूल है। यह भाषा हमारी संस्कृति और संस्कारों की पहचान है। हिंदी भाषा हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान और गौरव प्रदान करवाती है। 

हिंदी एक भावात्मक भाषा है, जो लोगों के दिल को आसानी से छू लेती है। हिंदी भाषा देश की एकता का सूत्र है।


करते हैं तन मन से वंदन, 

जन मन की अभिलाषा का

अभिनंदन अपनी संस्कृति का, 

आराधन हिंदी भाषा का....


पुरे विश्व में भारतीय संस्कृति का प्रचार करने का श्रेय एक मात्र हिंदी भाषा को जाता है। भाषा की जननी और साहित्य की गरिमा हिंदी भाषा जन-आंदोलनों की भी भाषा रही है। आज भारत में पश्चिमी संस्कृति को अपनाया जा रहा है, जिसके चलते अंग्रेजी भाषा का सभी क्षेत्रों में चलन बढ़ गया है। कहीं न कहीं इसमें सरकार का तथा इससे भी बढ़कर प्रशासन का दोष है, उनकी अकर्मण्यता, निस्क्रियता है। 

वास्तविक जीवन में भले ही हम हिंदी का प्रयोग जरूर करते है लेकिन कॉर्पोरेट जगत में ज्यादातर अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग होता है, जो हमारे लिए एक लज्जा की बात है।

हिंदी भाषा इतनी लचीली है कि इसमें दूसरी भाषाओं के शब्द भी आसानी से समा जाते हैं। हिंदी में साइलेंट अक्षर नहीं होते। जो लिखा जाता वह बोला भी जाता है। इसलिए इसके लेखन और उच्चारण में शुद्धता रहती है। इस भाषा में निर्जीव वस्तुओं के लिए भी लिंग का निर्धारण होता है। हिंदी ऐसी व्यावहारिक भाषा है जिसमें हर संबंध-रिश्ते के लिए अलग-अलग शब्द दिए गए हैं। मामा, फीफा, मौसा, ताऊ, चाचा आदि अंग्रेजी की तरह अंकल बोलकर ही काम नहीं चलाया जाता। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, साक्षर से निरक्षर तक प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति हिन्दी भाषा को आसानी से बोल-समझ लेता है। यही इस भाषा की पहचान भी है कि इसे बोलने और समझने में किसी को कोई परेशानी नहीं होती। पहले के समय में अंग्रेजी का ज्यादा चलन नहीं हुआ करता था, तब यही भाषा भारतवासियों या भारत से बाहर रह रहे हर वर्ग के लिए सम्माननीय होती थी। लेकिन बदलते युग के साथ अंग्रेजी ने भारत की जमीं पर अपने पांव गड़ा लिए हैं। अब समय आ गया है कि हम अपनी इस समृद्ध भाषा को और अधिक समृद्ध बनाने के लिए मन कर्म वचन से समर्पित होकर आगे आयें। तभी राष्ट्रीय हिंदी दिवस मनाने का उद्देश्य सफल होगा। 

(लेखक शिक्षा विभाग हरियाणा में हिंदी प्राध्यापक हैं ) 


स्तंभकार : 

डॉ उमेश प्रताप वत्स

umeshpvats@gmail.com

#14 शिवदयाल पुरी, निकट आइटीआइ

यमुनानगर, हरियाणा - 135001

9416966424

प्रलेख - हरियाणा शहीदी दिवस पर मेजर आशीष धोनैक का बलिदान युवाओं को देश प्रेम के लिए प्रेरित किया गया। -डॉक्टर राम प्रताप वत्स

 आलेख - हरियाणा शहीदी दिवस पर मेजर आशीष धोनैक का बलिदान युवाओं को देश प्रेम के लिए प्रेरित कर गया।

- डॉ उमेश प्रताप वत्स 


हरियाणा के बारे में एक कहावत है कि 

'जित दूध-दही का खाना , वो मेरा हरियाणा'

यद्यपि हरियाणा बांके युवाओं , मुछैल-लठैत चौधरियों के बारे में जाना जाता है किंतु देश में मुगल काल से आज तक हरियाणा के युवाओं ने सदा ही अपनी धरती व देश के लिए बलिदान होने में भी तनिक जान की परवाह नहीं की और इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अपना नाम अमर कर दिया।

अभी हाल ही में देश के मुकुट कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले में बुधवार 13 सितंबर को आतंकियों से मुठभेड़ में शहीद हुए सेना के कर्नल मनप्रीत सिंह, मेजर आशीष धोनैक और जम्मू कश्मीर पुलिस के डीएसपी हुमायूं मुजम्मिल भट्ट की शहादत में हरियाणा के पानीपत जिले के रहने वाले मेजर आशीष धोनैक देश के दुश्मन पाकिस्तानी आंतकियों से लड़ते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान कर हरियाणा के बलिदानी इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करा अमर हो गए।

पानीपत के मेजर आशीष धौंचक अनंतनाग में टीम के साथ मिशन पर थे। घने जंगलों के बीच आतंकियों से मुठभेड़ चल रही थी। इसी बीच उनकी जांघ में गोली लग गई। आर्मी की मेडिकल टीम आई और उन्हें इलाज के लिए ले जाना चाहा। मेजर आशीष ने कहा- मैं आतंकियों को मारकर ही जाऊंगा। वे घायल हालत में ही आतंकियों से भिड़ते रहे। करीब 10 घंटे तक उनके पैर से खून बहता रहा। इससे हालत बिगड़ती चली गई। लड़ते-लड़ते उनकी हालत नाजुक हो गई और वे शहीद हो गए। 

हरियाणा की बलिदानी परम्परा का इतिहास बहुत पुराना है । भारत में अनेक राज्यों की भाँति हरियाणा भी वीरों का प्रदेश रहा है । राजा हेमचन्द्र उपाख्य हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली के तख्त पर बैठकर मुगलों को भारतीय ताकत की अनुभूति कराई थी। समय की अपनी चाल होती है , यदि अकबर के साथ युद्ध में लड़ते हुए सेनापति बैरमखाँ का तीर हेमू विक्रमादित्य की आँख में न लगता और उसके बाद हेमू की सेना में भगदड़ न मचती तो इतिहास कुछ ओर ही होना था । होनी बड़ी बलवान है , होता वही है जो विधाता ने रच रखा है ।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में भी राजा राव तुला राम ने हरियाणा का नाम सम्मानित अक्षरों में अंकित करा रखा है ।कहा जाता है कि यह स्वतंत्रता संग्राम राजा राव तुलाराम व नारनौल क्षेत्र के गांव नसीबपुर में हुई लड़ाई के जिक्र के बिना अधूरा है। 16 नवम्बर 1857 को भारतीय वीरों व अंग्रेजों के बीच हुई। इस लड़ाई की तैयारी राजा राव तुला राम ने की।

इस लड़ाई में सैंकड़ों भारतीय योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए जबकि अंग्रेज सेना के कर्नल आई. जी. गेरार्ड सहित अंग्रेजी सेना के 70 से अधिक सैनिक व अधिकारी मारे गए थे।

नसीबपुर की लड़ाई में कम संसाधनों के बावजूद भारतीय वीरों के बलिदान व जज्बे से स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती मिली जिससे भविष्य में देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त हुआ। 

शहीदों की गौरव गाथाएं आने वाली पीढ़ी को सदैव अपनी समृद्ध विरासत की याद दिलाएंगी, इसी भाव को ध्यान में रखते हुए हरियाणा वीर एवं शहीदी दिवस मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को याद करते हुए उनके बलिदान को युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बनाने हेतु मनाया जाता है।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हरियाणा के अमर शहीद वीर राव तुला राम की महत्वपूर्ण भूमिका को स्मरण करते हुए 23 सिंतबर 1863 को उनके बलिदान दिवस के अवसर पर ही हरियाणा शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। यद्यपि इस दिन 1857 तथा 1947 के स्वतंत्रता संघर्ष में हरियाणा से संबंधित सभी वीर बलिदानी क्रांतिवीरों को स्मरण किया जाता है। 

हरियाणा के वीर बलिदानी राव तुला राम का जन्म रेवाड़ी के रामपुरा में 9 दिसंबर 1825 को हुआ था। उस वक्त उनके पिता राव पूर्ण सिंह अहीरवाल रेवाड़ी के राजा थे। युवावस्था में राव तुला राम के पिता का स्वर्गवास होने के कारण इन्हें 14 साल की उम्र में ही राज गद्दी पर बैठा दिया गया। किंतु राजा पूर्ण सिंह के स्वर्गवास के बाद अंग्रेजों की कुत्सित नजर उनकी रियासत पर थी। अतः अंग्रेजों ने धीरे-धीरे अहीरवाल पर कब्जा करना शुरु कर दिया। इसके बाद राव तुला राम ने अपनी सेना तैयार की। 1857 के विद्रोह की आग जब मेरठ तक पहुंची तो वो भी इस क्रांति में कूद पड़े। राव तुला राम और उनके भाई के नेतृत्व में रेवाड़ी की सेना ने अंग्रेजी हुकूमत की नाक में दम कर दिया और रेवाड़ी व उसके आस-पास के कई इलाकों पर नियंत्रण कर लिया। 23 सितंबर 1863 को उन्होंने काबुल में अंतिम सांस ली। राव तुला राम ने भारत की स्वतंत्रता के लिए होने वाले संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

इसी प्रकार भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे कैथल के 20 स्वतंत्रता सेनानियों के नाम इतिहास में अंकित हैं। इसमें कैथल से काका राम, महाश्य बृज लाल, नराता राम भल्ला आदि कई नाम अंकित हैं। वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन रामनाथ शर्मा ने अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया यह सब जानते हैं।

हरियाणा वीरों की धरती कही जाती है। जहां स्वतंत्रता से पूर्व हरियाणा के असंख्य वीर देश की आजादी के लिए अग्रिम पंक्ति में लड़ते रहे वहीं स्वतंत्रता के बाद भी सेना द्वारा लड़े गये लगभग सभी युद्धों में हरियाणा के सैनिक देश की सुरक्षा करते हुए शहीद हो गए। आज भी देश की सेना में हरियाणा के हजारों सैनिक देश सेवा हेतु संकल्पबद्ध हैं।

आज हरियाणा के अनेको वीर सैनिक जल, थल , नभ सेना में मेजर आशीष धोनैक जैसे बलिदानी वीरों , भारत माता के सच्चे सपूतों से प्रेरणा प्राप्त कर देश की रक्षा-सुरक्षा में तैनात खड़े हैं । आज इन वीर बलिदानी सपूतों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अपने बच्चों को प्राइवेट सैक्टर से पहले देश की सेना में जाने के बाद प्रेरित करें। कुशाग्र बुद्धि वाले बालक जब तन-मन से सेना में आयेंगे तो भारत की सेना शीघ्र ही विश्व की सर्वाधिक शक्ति सेना कही जायेगी।


स्तंभकार : 

डॉ उमेश प्रताप वत्स

umeshpvats@gmail.com

#14 शिवदयाल पुरी, निकट आइटीआइ

यमुनानगर, हरियाणा - 135001

9416966424