रविवार, 8 अप्रैल 2012

कविता- छाया

छाया

मैं जिंदगी के थेपेड़ों से

रोज की तरह

कुछ उदास

और हताश

घर के आंगन में पहुँचा

गिरने लगा

पास ही बिछी खाट पर

महसूस करने लगा

नस-नस में थकान को

टूटने लगा

मेरा सारा बदन

तभी जोर से चीखते-चिल्लाते

दौड़ते-भागते

लड़ते-झगड़ते

बादलों की भाँति उमड़ते

शाँति भंग करते

शोर मचाते

मेरे ही अक्स

मेरी ही छाया

सुत और सुता

कहते हुए पिता-पिता

धप्प से गिर पड़े

मेरे ही ऊपर खाट पर

एक छाती तो

दुसरा लात पर

वे चिल्लाते जा रहे थे

शिकवा के अंदाज में

बतियाते जा रहे थे

संगीतमय भरे साज में

परवाह से अति दूर

थकान से अनजान

मासूमियत के सहारे

दोनों बेचारे

एक-दुसरे की

गल्तियां निकालते

अपनी गलती

बिल्कुल भी ना मानते

सतत् बोले जा रहे थे

किन्तु ! नही जानते थे

उनके इस फसाद ने

बेवजह की बात ने

अनचाहे ही सही

मुझे…

अवसाद से

निराशा और हताश से

एकदम

मुक्त कर दिया

मानो…

मुझे बहुत सी ऊर्जा मिल गई हो

जानो…

नई स्फूर्ति का संचार हो गया हो

मैं देख रहा था

अपना बचपन और अपनी छाया

दोनों मासूम

इस सबसे अनजान

बस बोले ही जा रहे थे