गुरुवार, 28 नवंबर 2013

नारी का रूप



 

नारी तेरे रूप हजार, तू सृष्टि की रचयिता है।

तुझ बिन अधूरा ये संसार, नारी तेरे रूप हजार।

                       

तू हरिश्चन्द्र की तारा भी, भगवान राम की सीता भी।

                                    तू अहल्या तू शबरी, तू कैकयी और मंथरा भी।

 

ममता के आँचल की यशोदा, कान्हा की राधा भी है तू।

तू ही कुन्ती और पाँचाली, चीरहरण की साक्षी भी तू।

                       

जहर का पान किया तूने, मीरा बनकर के कान्हा की।

                                    बेटा अपना कटवा डाला, बन पन्ना कुँवर की रक्षा की।

 

कभी पद्मिनी, दुर्गाबाई, कभी हाड़ारानी, जीजाबाई।

पुत्र बाँध लड़ी फिरंगी से, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई।

                       

बिस्मिल, सुभाष, आजाद, भगत की, माता का गौरव भी है तू।

                                    भारत के रणबाँकुरों की, शक्ति और भक्ति भी है तू।

 

 

तू ज्ञान की कल्पना चावला, उर्जा की स्रोत कालीरमण है।

तू डॉक्टर और इंजीनियर, जहाज उड़ाती पायलट भी है।

                                    तू चंदा की शीतलता, शोलों की अग्नि भी है तू।

लज्जा का गहना पहने, क्षमा-संयम की मूरत तू।

 

तू कवि की कविता है, लेखक की लेखनी भी तू।

सदाचार की अनुभूति है, दुराचार की आँधी भी तू।

                       

तूने समझौता कर डाला, अपने सतीत्व की गरिमा से।

                                    रातों में रोज सजती है, कभी इस दर से कभी उस दर से।

 

कई घरों की लक्ष्मी है और, कई घरों की बर्बादी।

नैतिक-मूल्यों से परे पश्चिम रूप में, क्यों चाहती है आजादी।

                       

क्यों ऐतिहासिक तस्वीरों को, धुंधला करने को चली।

                                    इसी देश की माटी में तू, बचपन से है पली बढ़ी।

 

तेरे कारज पर निर्भर, परिवारों के स्तम्भ खड़े।

तू चाहे गिरादे इनको, वरना तूफाँ में भी अड़े।

 

तू सुनार है तू लौहार है, तू विश्वकर्मा और कुम्हार है।

माटी के कच्चे कुम्भों की, तू कर्णधार व सिपहसालार है।

 

तू भोग विलास की चीज नहीं, शीशों में जड़ी तस्वीर नहीं।

तेरे हाथों में भाग्य देश का, शयनकक्ष की तकदीर नहीं।

                       

अबला नहीं तू सबला है, हाथों की तू कठपुतली नहीं।

                                    कायर नहीं तू शक्ति है, भोंडे लेखों की पात्र नहीं।

 

भौतिकता की दौड़ में, तू बार-बार पथ से भटकी।

झूठी शान दिखाने को, मझधार में नैया अटकी।

                       

तुझ पर जो भी कलंक लगे है, गंगा-जल से धो देना।

                                    सत्य-धर्म की खेती पर, बीजों को फिर से बो देना।

 

तेरी सिञ्चन शक्ति से, लहरायेंगी मूल्यों की फसलें।

मानवता फिर से जागृत हो, जन-जन का भाग्य बदले।

 

भ्रमित मन को समझाकर, आगे कदम बढ़ा देना।

अपने सतीत्व की गरिमा से, फिर से इतिहास दोहरा देना।

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