शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

कहानी : एडवेंचर कैंप

कहानी : एडवेंचर कैंप 

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 

अरे सुनो! (पीछे की ओर से सहसा एक आवाज़ आई) 

मैंने जैसे ही आवाज की ओर मुड़कर देखा तो बस देखता ही रह गया, एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ एक किशोरी थी जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, हवा में लहराते सुन्दर रेशमी बाल तथा गुलाब की पंखड़ियों से अधर यह एहसास करा रहे थे कि यह सामान्य से हटकर है। चेहरे पर उसकी मासूमियत व भोलेपन के कारण नजरें बस वहीं ठहर गई।

तभी मेरी तंद्रा को तोड़ते हुए वही भारी सी आवाज फिर गूँजी- 

अरे भाई ! ये एडवेंचर कैंप का ट्रेनिंग सेंटर कहाँ है? 

मेरा ध्यान फिर से भंग हो गया था, परियों की दुनिया से जैसे मुझे किसी ने जमीन पर धक्का दे दिया हो, हड़बड़ाकर बोला- वहीं तो है वो सामने वाली पहाड़ी पर ...

इतना सुनते ही वे चल पड़े किन्तु मैं उन्हें तब तक देखता रहा जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हो गये। 

उस हुस्नपरी का एक भी बार पीछे मुड़कर न देखना मेरी हार की शुरुआत जैसी थी किन्तु उसका साया मेरे मन-मस्तिष्क में इसप्रकार से बस गया था जैसे शयनकक्ष में प्रियतम की तस्वीर लगी हो।

मैंने भी और छात्रों की तरह एडवेंचर कैंप में भाग लेने के लिए आज सुबह ही यहाँ पहुँचा था। हम सब कॉलेज की ओर से लड़के-लड़कियों की अलग-अलग आवास की व्यवस्था के अनुसार यहाँ पहाड़ी पर बने कैंपस में अपना सामान रखकर सारे दिन की थकावट उतारने के लिए सैर करने नीचे आ गये थे। जो विद्यार्थी किसी कारण कॉलेज बस में नहीं आ सके वो एक-एक करके पहुँच रहे थे। कल सुबह से ही एडवेंचर की ट्रेनिंग कक्षा शुरु होनी थी अतः ट्रेनिंग सेंटर के बाहर दिनचर्या लगा दी गई थी। सुबह से शाम तक दिनचर्या बहुत सख्ती थी किंतु संध्याकाल के बाद किसी भी प्रतिभागी पर कोई बंधन नहीं था। यह हमारा व्यक्तिगत समय था। चाहे हम घूमें , चाहे नाचें , गायें या गप्पे मारे। सुबह जल्दी उठकर दौड़-भाग करने की आदत थी किंतु यहाँ कैंप में दौड़ लगाते, नहात-धोते, ट्रेनिंग-कक्षा आदि में हर समय उस किशोरी का ही ख्याल मेरे मन में घूमता रहता। मानो वह तस्वीर की भाँति हर समय साये की तरह मेरे साथ रहने लगी। कई बार तो मैं स्वयं को झिंझोड़कर इस अजीब सी गिरफ्त से निकलने का प्रयास करता परन्तु कुछ ही क्षण पश्चात् फिर उसी शून्य में जा ठहरता। यह सिलसिला मेरी दिनचर्या का हिस्सा बनता जा रहा था। बुद्धि का प्रयोग कर स्वयं को सम्भालता तो दिल मुझ पर भारी पड़ता और मैं फिर उसी धुन में मस्त हो जाता। कुछ दिन बाद शायद उसको भी यह लगने लगा कि मैं उस पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगा हूँ। दिन यूँ ही देखते व सोचते हुए गुजरने लगें।  

शिवालिक की पहाड़ियों की प्राकृतिक सुन्दरता, अक्तुबर मास के अतं की हल्की-हल्की सर्द हवा, कहीं धूप तो कहीं छाँव और ऊपर से यह अजीब सी भ्रामक चाहत जिसके बारे में मैं भी अनजान था, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। प्रकृति का प्रेमी तो मैं बाल्यकाल से ही रहा था, जब मैंने अपना बचपन कश्मीर की वादियों में प्रकृति की गोद में ही जीया था किन्तु अब तो यह और भी आकर्षित करने लगी शायद प्रेम और प्रकृति का आपस में गहरा सम्बन्ध है। कई बार दिल में आता कि मैं अपने दिल में उठे तूफान को उसके सामने जाकर साफ-साफ कहकर शान्त कर दूँ किन्तु हिम्मत ही न जुटा पाता और यह मौन साधना यूँ ही चलती रही। फिर एकबार मन में आया कि उसे भी तो अहसास होना चाहिए कि मैं उसे चाहता हूँ और यह सोचकर एक दिन जहाँ वह पहाड़ी के ऊपर दूसरे छोर पर बने लड़कियों के लिए आरक्षित होस्टल में सहेलियों के साथ ठहरी हुई थी, ठीक उसके कमरे की खिड़की के सामने लगभग दो सौ हाथ दूर एक छोटे से मंदिर के समीप चट्टान पर बैठकर मैं बाँसुरी बजाने लगा, एक-एक कर मैंने कई पुराने फिल्मी गीत अपनी अंगुलियों से नचायें किन्तु फिर भी खिड़की नहीं खुली। इधर जैसे-जैसे दिन ढ़लने लगा तो हवा भी तेज होने लगी कब चार से छः बज गये पता ही न चला। कई बार मन में उदासी भी आयी कि क्यों मैं पागलों की भाँति यहाँ बैठकर व्यर्थ समय गवां रहा हूँ किन्तु आज दिल कतई हारने को तैयार नहीं था। हवा प्रचण्ड़ वेग से बहने लगी। एक ओर तो मैं बाँसुरी बजा रहा था दूसरी ओर हवा के सर्द-थपेड़े मेरे कान में बाँसुरी बजा रहे थे। कई बार तो तेज हवा मेरे बाँसुरी के स्वरों को भी उड़ाकर ले जाती थी, फिर मैं हवा के विपरीत बाँसुरी थामकर स्वर निकालता और खिड़की पर एक टकी लगाए रहता। कुछ देर बाद खिड़की का एक पल्ला धीरे से एक इंच के लगभग खुला और कमरे के अन्दर कुछ हलचल सी भी नजर आई। बेशक पल्ला हवा से खुला हो किन्तु मुझे लगा था कि कोई मुझे देख रहा है, कोई क्यों वही, जिसे देख मेरा चैन खो गया था। मैंने उत्साहित होकर उच्च स्वर में मुरली की धुन निकालनी शुरु कर दी। परन्तु कोई प्रतिक्रिया न होने पर मन में निराशा स्वभाविक ही थी। अतः कई बार सोचा कि बहुत देर हो चुकी है शाम के सात बजे से भी अधिक समय हो चुका था, अपने कमरे में चलना चाहिए। अन्धेरा बढ़ता जा रहा था और हवा भी सर्द होती जा रही थी किन्तु मन तो आज निर्णायक बन बैठा था कि बिना दर्शन करे नहीं चाहे कितनी भी देर क्यों न हो जाये। गहराते अन्धकार तथा सर्द हवाओं के बीच बैठकर मुरली के माध्यम से दर्शन करने की इच्छा किसी साधना से कम न थी। मैं स्वयं को किसी तपस्वी से कम नहीं मान रहा था। मैंने अपना प्रयास जारी रखा तथा पुनः एक पुराने हिन्दी नग्में की धुन उच्च स्वर में निकालनी शुरु ही की थी मेरी किस्मत जागी, जब खिड़की के दोनों पल्ले पूरी तरह खुल चुके थे और उसमे से तीन-चार चेहरे बाहर झाँकते दिखाई पड़े। शायद वे उसकी सहेली होगी। अन्ततः जीत मेरी जिद की हुई, मैंने कुछ क्षण के लिए अपने हाथों को विराम दिया और खिड़की में उस हुस्नपरी के चेहरे को ढ़ूढ़ने का प्रयास किया जिसकी प्रतीक्षा में चार बजे से यहाँ बैठा था, तभी गुलाब की तरह हंसता हुआ उसका चेहरा दिखाई पड़ा तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। कमरे में लाइट होने के कारण उन सबके चेहरे साफ-साफ दिखाई दे रहे थे किन्तु मेरी उन्हें शायद चाँद की मध्यम रोशनी में छाया ही दिखाई दे रही होगी। फिर जब तक खिड़की खुली रही मेरी ऊँगलियां मुरली पर थिरकती रही। खिड़की बन्द होने पर मैं अपने कमरे में आकर सो गया, खुली आँख से मधुर स्वपन की कल्पना करते-करते न जाने कब मुझे नींद आ गई। 

अगले ही दिन पहली ही मुलाकात पानी के नल पर हुई, जहाँ हम सभी ट्रेनर अपनी-अपनी बाल्टियाँ लेकर अपनी बारी आने का इन्तजार करते थे। जैसे ही उसकी नजर मुझ पर पड़ी तुरन्त उसने आँखें झुका ली। उसके चेहरे पर एक अजीब सी हिचकिचाहट थी। फिर कभी क्लास में या शाम को घूमने जाते हुए या फिर नल पर मेरी नजर उससे चार होती तो वह एक दम नजरें झुका लेती। कई दिन तक यह सिलसिला चलता रहा। उसकी सहेलियों को भी यह मालूम हो गया कि मैं उसके पीछे कुछ ज्यादा ही दीवाना हो रहा हूँ। 

एक दिन कैंप में बुखार होने के कारण वह दो दिन के लिए छुट्टी लेकर अपने घर चली गई। कैंप का नियम था कि आवश्यकता पड़ने पर कोई भी प्रतिभागी दो दिन के लिए अवकाश ले सकता था किंतु जब वह दो दिन पूरे होने पर भी कैंप में नहीं आई तो मन बहुत उदास हुआ। पता लगा कि तीसरे दिन कैंप में उसके पापा का फोन आया कि वह तेज बुखार से पीड़ित है तो कैंप में नहीं आ पायेगी। जब यह खबर उसकी सहेलियों के माध्यम से मुझे मिली तो मुझे लगा कि जैसे मेरा मन उसके दुःख के कारण तड़फ रहा हो, उससे मिलने को तरस रहा हो। मैं उससे मिलने के लिए बेचैन सा होने लगा। अगले दिन अवकाश लेकर मुझे भी घर जाना था तो उसकी सहेली मुझे बोली –

सुनिये!

मैंने कहा – बोलिए…

आप घर जा रहे है ना

जा तो रहा हूँ, बोलिए…

आप जाते हुए अम्बाला में शालू की तबीयत का पता करते हुए भी निकल जाना।

अन्धे को क्या चाहिए दो आँखें। मैं तो यही चाह रहा था कि कोई अवसर मिले कि मैं उसकी जीती जागती तस्वीर निकटता से देख सकूँ। मैंने अनजान से होते हुए कहा-

किन्तु मैं तो उसका घर नहीं जानता…

(कुछ लिखते हुए) ये लो घर का पता 

(मेरी खुशी का ठिकाना न था, मैं सोच रहा था कि यहाँ तो वो सबके सामने बोलने की हिम्मत नहीं करती किन्तु घर तो खूब खुलकर बोलेगी और कुछ पूछेगी कुछ बतलाएगी।)

उसकी सहेली ने शालू का पता पकड़ाते हुए कहा- हां ये कुछ सामान भी है उसी को पकड़ा देना।  

मैंने सामान और पता लिया तथा अपनी खुशी को सम्भालता हुआ घर के लिए रवाना हो गया।

जब मैं बस में बैठा तो नीचे उसकी सहेलियां खड़ी मुस्करा रही थी शायद वे मुझसे अर्थात् मेरे प्रेम से सहानुभूति रखती हो। तभी सामान देकर भेजा कि कोई दिक्कत न आए। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझकर शालू के बारे में सोचने लगा। बस गंतव्य की ओर जिस गति से बढ़ी जा रही थी, उसी गति से मेरे मन में विचार कौन्धने लगे कि जब मैं उसके घर जाउंगा तो क्या कहकर उसका सामना करूँगा। यदि द्वार खोलने उसका भाई आया तो क्या कहूँगा और यदि पापा हुए तो क्या बोलूँगा कि मुझे किसने भेजा है और यदि स्वयं शालू आ गई तो…अरे बाप रे! क्या बोलूँगा कि मैं उसके घर पर क्या करने आया हूँ, मैं क्यों...किसने...कैसे...क्या कहूँगा? जब तक सारी बात बताने का प्रयास करूँगा तो हो सकता है कि वह पहले ही मुझ पर बिगड़ जाये। यह सोचकर घबराहट से शरीर के रोंगटे तन गये। मैं कुछ और सोचने का सिलसिला आगे बढ़ाता तब तक बस अम्बाला पहूँच गई। मैंने बिना देर किये रिक्शा ली और दिए गये पते पर पहूँच गया। पते के अनुसार जिस घर में मुझे दस्तक देनी थी वहां घर के सामने बने पार्क में वही अधेड़ उम्र का व्यक्ति चहलकदमी कर रहा था जिसके साथ पहली बार मैंने अपनी सपनों की राजकुमारी को देखा था। मुझे समझते देर न लगी कि यह उसके पापा है। मैंने हिम्मत करके आगे बढ़ते हुए प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद दिया और गौर से मुझे देखने लगे। शायद वे मुझे पहचानने का प्रयास कर रहे थे फिर उन्होंने पूछ ही लिया-

किससे मिलना है बेटे?

पहला प्रश्न ही उलझाने वाला था। मैंने हिम्मत जुटाकर आने का कारण और अपना परिचय दिया तो वे बड़े आदर के साथ मुझे घर के अन्दर ले गये। उसकी छोटी बहन पानी लेकर आई और पापा उसे बुलाने चले गए शायद वह रसोई में खाना बना रही थी। कुछ ही देर में उसकी मम्मी कॉफी लेकर आये तथा बातचीत करने लगे। समय बढ़ता जा रहा था और मैं भी यही चाह रहा था कि समय यूँ ही बढ़ता जाये ताकि मुझे शालू के घर ही रुकने का अवसर मिले। मुझे लग रहा था कि कहीं मुझसे हालचाल पूछकर तथा सामान आदि लेकर शीघ्र ही चलता ना कर दें। सर्द ऋतु की हल्की-हल्की ठंडक अपना प्रभाव बढ़ा रही थी। मेरा मन था कि जब शालू आएगी और मैं उसे राजी खुशी पूछकर जाने के लिए कहूँगा तो आगे बढ़कर मुझे कहे कि अब इतनी देर हो गई है, कहाँ जाओगे? यही ठहरो सुबह जाना। और मैं उसके हाथों बना खाना खा कर फिर उसके साथ ढ़ेरों बातें करूँ और अपनापन का रिश्ता बना लूँ। मैं सोच ही रहा था कि तभी रिलैक्श ड्रैस में शालू अन्दर आई। मुझे देखते ही सकपका गई। शायद उसने सोचा भी नहीं होगा कि कोई आने वाला व्यक्ति मैं हो सकता हूँ। वह भी इस वक्त, इतनी देर से। मैंने उसकी मनोदशा को भाँप कर हिम्मत करते हुए पूछा-

तबियत कैसी है अब?

अब तो ठीक हूँ।

क्या हो गया था?

वैसे ही बस।

आपकी सहेलियाँ बहुत परेशान है आपकी सहेत को लेकर।

नहीं ऐसी चिंता की तो कोई बात नहीं है। 

फिर मैंने उसकी सहेलियों के द्वारा सामान व कुछ पुस्तकें उसके सुपुर्द की और चलने का अभिनय किया-

अच्छा जी! मैं चलता हूँ।

तभी उसके पापा बोले- नहीं बेटा अब रात को कहाँ जाओगे, खाना खाओ और आराम करो, सुबह चले जाना। 

मैं तो यही चाहता था किन्तु उनको मेरी योजना का भान न हो अतः मैंने फिर कहा-

नहीं अंकल जी बस तो मिल ही जाएगी, मैं चला जाउँगा।

उसके पापा ने मेरा बैग पकड़ते हुए कहा-

कहाँ रात को परेशान होते फिरोगे, सुबह चले जाना, चलो बैग रखो और खाना खाकर आराम करो।

इस बार मैं भी चुप रह गया कि कहीं एक बार फिर कहने से ये भी बोल दे चलो तुम्हारी मर्जी। अतः मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा।

कुछ देर बाद उसकी छोटी बहन खाना लेकर आई। खाना खाकर अकंल के साथ सैर करते हुए कुछ इधर-उधर की बातें की और फिर मेरा बिस्तर लगा दिया गया। मैं सोच रहा था कि शायद खाना खाने के बाद वह मेरे पास अपनी सहेलियों के बहाने से जरूर आएगी किन्तु वह नहीं आई और मैं सारी रात अनिश्चतता की जिन्दगी के सपने देखते-देखते सो गया। 

सुबह उठकर नहा धोकर नाश्ता पानी किया तो एक बार फिर शालू नहाकर आते हुए मेरे सामने थी। नहाने के बाद उसका चेहरा गुलाब की भाँति खिल उठा था और उसकी जुल्फों की लटाएं उसके गालों पर लटकी हुई फूल पर भंवरे सी मंडराती हुई प्रतीत हो रही थी, उसकी आँखों में गजब का आग्रह था मानो मुझे अपनी ओर बुला रही हो, उसके कंपकंपाते गुलाबी होठ जैसे कुछ कहने का असफल प्रयास कर रहे हो। मैं उसके इस निखरे हुए रूप सौदंर्य को जी भर कर देखना चाहता था परन्तु वह मुझे देखकर दो पल के लिए रुकी फिर कन्धे से अपना तोलिया सम्भालते हुए अपने कक्ष की ओर चली गई। वह तो चली गई किन्तु मैं तो जैसे जड़ हो गया था मैं अभी भी उसके सौन्दर्य के समुंद्र में गोते मार रहा था। तभी उसकी मम्मी बोली-

बेटे! लो, कॉफी ले लो…

हड़बड़ाते हुए हाँ ऑटी जी और मैं कॉफी पीने के बाद चलने की तैयारी करने लगा। उसके घर वालों से विदाई लेकर मैं बसस्टैण्ड़ आ गया। मैं यह सोचकर आया था कि क्लास में तो अन्य विद्यार्थियों के कारण  वह दूरी बनाए रखती है अतः घर में तो खुलकर बातचीत कर सकेगी किन्तु उसने घर में भी कोई खास बातचीत न की। भारी मन से मैं अपने घर के लिए बस में बैठ गया। फिर मन  में अनेक प्रश्न उठते रहे कि कहीं वह मुझसे जानबूझकर तो दूर नहीं रहती या फिर कहीं वह कहीं ओर तो… तभी प्यासा मन कह उठता नहीं-नहीं बेचारी शाँत स्वभाव की है इसलिए बात करने में झिझकती है। 

अगले दिन जब मैं वापिस एडवेंचर कैंप में आया तो मुझे पता चला कि वह भी अपने पापा के साथ आई है। मैंने वहाँ पहाड़ों में स्थित देवी माँ के मंदिर में माँ से मन्नत माँगी थी कि जब वह ठीक होकर कैंप में आ जाएगी तो मैं पैदल ही सोलह किलो मीटर चलकर माता के दर्शन कर प्रसाद बांटूँगा और मैं अपने वायदे के अनुसार अपने दोस्त को लेकर माँ के दरबार में खड़ी चढ़ाई चढ़कर प्रसाद बाँटने गया। 

सर्द ऋतु में शिवालिक की पहाड़ियों की सुन्दरता कुछ अलग ही छटा बिखेरती दिखाई देती थी। दिनभर की ट्रेनिंग के बाद शाम को दो-चार घण्टों के लिए सभी लड़के-लड़कियाँ टहलने के लिए समूह बनाकर पहाड़ियों की गोद में आन्नद के कुछ क्षण बटोरने जाते थे। जो खुले मन के लड़के-लड़की थे वे आपस में खूब मजाक व खुली बातें करते थे। मैं कभी भी किसी से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। जब किसी के प्यार-व्यार के किस्से सुनते तो लगता कि ये सब पागल है जो बेकार की बातों में अपना समय व्यर्थ गंवाते है किन्तु अब अपने ऊपर बीती तो पता लगा कि ये ईश्क तो सभी का बुरा हाल करता है। कई बार पीछे मुड़कर देखता तो बड़ा आश्चर्य होता कि हम कहाँ खड़े है। किधर जा रहे है? कॉलेज से आए थे एडवेंचर कैंप में भाग लेने के लिए तथा ट्रैकिंग , रोपिंग , क्लाइबिंग, नदी पार करने आदि की ट्रेनिंग लेने के लिए किन्तु यहाँ तो कोई ओर ही ट्रेनिंग चल रही थी। कई बार मस्तिष्क को समझाने का असफल प्रयास किया किन्तु मस्तिष्त पर तो बेलगाम मन हावी हो जाता था, हाल ये था कि ज्यों जयों दवा की मर्ज बढ़ता गया। 

प्रतिदिन सुबह उठते ही उसकी शाँत-सौम्य सूरत देखने की कसक रहती जो नल पर पानी भरते हुए पूरी हो जाती। फिर ट्रेनिंग में तथा शाम को घूमने के बहाने दिन में कई बार दर्शन हो जाते किन्तु  मन की प्यास बढ़ती ही जाती मन करता कि बस उसके सामने ही बैठा रहूँ। 

एक दिन हिम्मत करके मैं अपने दोस्त के साथ उससे दिल की बात करने उसके पास गया। लड़कियों की ठहरने की व्यवस्था तो अलग से थी किंतु भोजन की व्यवस्था सबकी एक ही स्थान पर थी। भोजन के समय हिम्मत करके जैसे ही हम उसकी टेबल के पास गये तो वह हमे अपने पास देखकर ठिठक सी गई। वह अपनी सहेली सूरज कौर को एक टक देखती रही।

उसकी सहेली बोली- आओ बैठो, बैठो ना…

नहीं नहीं बस! हम तो भोजन करके जा रहे थे बस यूँ ही….

सहेली ने फिर आग्रह किया शायद वह मुझसे थोड़ी बहुत सहानुभूति रखती थी किन्तु हमने फिर वहां रुकना ठीक न समझा और वापिस आ गए।

अवसर मिलते ही जब भी मैं शालू को अपने मन की बात कहने का प्रयास करता तभी उसकी सहेली उसके आस-पास मंडराने लगती। जब कभी अकेले मिल जाती तो मेरी बात करने की हिम्मत न होती तो कभी हिम्मत करता तो वह अनदेखा कर सीधी आगे निकल जाती। यूँ ही एक- एक दिन बीतता जा रहा था। कहते है कि ईश्क-मुश्क छुपाये नहीं छुपते अतः एक दिन उसकी सहेली बोली कि आप क्यों उसके चक्कर में अपना समय खराब कर रहे हो, वह किसी ओर से प्रेम करती है और वह लड़का एक बार यहाँ कैैंप में भी उससे मिलने आ चुका है। सहेली की बात सुनकर मुझे झटका सा लगा किंतु सच्चाई भी लगी क्योंकि उसने एक बार भी मुझसे बात करने की कोशिश नहीं की। मन में बहुत निराशा हुई कि मैं वैसे ही रात-दिन उसके नाम की माला जपता हूँ और वह कहीं ओर…किन्तु मन यह मानने को तैयार नहीं होता कि वह मेरे सिवाय किसी और के बारे में सोचती भी हो। वह मुझे ही चाहती है, बात करने का क्या वह तो कोई भी किसी से कर सकता है। मेरा एक तरफा प्रेम मेरे सिर चढ़कर बोल रहा था।

शालू का चाहने वाला लड़का पम्मी एक बार फिर कैंप में उससे मिलने आया। कैंप के लड़कों द्वारा पूछने पर वह उनसे झगड़ने लगा। उसके साथ दो-तीन साथी ओर थे।वे कैंप इंस्ट्रक्टर के सामने ही कैंप के लड़कों से मार-पीट करने लगे। पम्मी के लिए मेरे दिल में शायद किसी कोने में नफरत पैदा हो चुकी थी। मुझे लगता था कि वह मेरे प्यार को मुझसे छिनना चाहता है,अतः मैं मन ही मन उससे ईर्ष्या करता था, अब अपनी भड़ास निकालने का मुझे अवसर मिला था तो मैं कैसे पीछे रहता, मैंने उसे पकड़कर लात-घूसों से उसकी जमकर ठुकाई शुरु कर दी तो उसके बाकि दोस्त भाग खड़े हुए। तभी ट्रेनिंग क्लास में खलबली सी मच गई। पानी लाओ-पानी लाओ, जल्दी पानी लाओ, इंस्ट्रक्टर ने जोर से कहा। मैं भी पम्मी को उसके हाल पर छोड़कर देखने भागा कि क्या हुआ जो बार-बार पानी मंगवाने की बात हो रही है। देखा तो कई सारी लड़कियों के बीच शालू बेहोश पड़ी थी। पूछने पर उसकी सहेली ने बताया कि पम्मी की पिटाई देखकर यह सहन न कर सकी और बेहोश हो गई। एक ने पीछे से कटाक्ष किया कि सहन भी कैसे करती प्रेमी की पिटाई जो हो रही थी। यह सुनकर मैं सन्न खड़ा रह गया, मेरी आँख पत्थर सी हो गई, मेरा रक्त संचार मानो बंद हो गया हो। प्रतिक्रिया सुनते ही मानो मेरा शरीर टूट सा गया हो। मेरी हालत उस मजदूर की भाँति थी जिसने सारा दिन मेहनत की हो किन्तु फिर भी उसे मजदूरी से वंचित रखा गया हो, मुझे लगा कि हंस की भाँति किसी ने मेरे पर काट दिए हो। मैं सोचता रहा कि जिसे मैंने देवी की तरह पूजा, जिसके प्यार में मैं रात-रातभर सो न सका, जिसके लिए मैं कुछ भी करने को तैयार रहता था, उसके दिल में कोई और है। यह कैसे हो सकता है, दिल ने कहा यह नहीं हो सकता,यह धोखा है, मुझे छला गया है परन्तु बुद्धि ने कहा- नहीं रे पगले! यह एक तरफा प्यार था, फिर यह रथ एक पहिए पर कितनी दूर चलता। 

तभी एक साथी ने मुझसे कहा - चलो यार सभी चले गए। छुट्टी हो गई है, तुम अकेले यहाँ क्या कर रहे हो? 

मेरी तंद्रा भंग हुई,मानो लम्बी निद्रा से जगा था। सभी विद्यार्थी जा चुके थे। दिल ने बुद्धि की बात स्वीकारी। 

हाँ यह प्यार पवित्र तो था किन्तु यह एक तरफा था।

लेखक / स्तंभकार : 

डॉ उमेश प्रताप वत्स

umeshpvats@gmail.com

#14 शिवदयाल पुरी, निकट आइटीआइ

यमुनानगर, हरियाणा - 135001

9416966424



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