आलेख -
फिर सक्रीय हो रहा है पुरस्कार लौटाने वाला गैंग
- डॉ उमेश प्रताप वत्स
आजकल साहित्यकारों , कलाकारों के बाद पुरस्कार वापिस कराने वाला गैंग खिलाड़ियों के मन-मस्तिष्क तक भी पहुंच गया है । हाल ही में रैसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के चुनाव में फेडरेशन के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण के समर्थकों की अनचाही जीत ने आंदोलनजीवी खिलाड़ियों को मैडल व सम्मान वापिस करने को विवश कर दिया । जबकि चुनाव बिल्कुल एक तरफा परिणाम वाले रहे । भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन वाले पैनल ने फेडरेशन चुनाव में शानदार जीत हासिल की है। बृजभूषण के करीबी संजय सिंह ने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष का पद के चुनाव में अपनी प्रतिद्वंदी अनीता श्योराण को शिकस्त दी थी किंतु देश में 2024 में विपक्ष द्वारा चुनावी गोटियाँ फिट करने के लिए विरोधी माहौल बनाने के लिए अपने वामपंथी योद्धा एवं पुरस्कार लौटाने वाले गैंग को मैदान में पहले ही उतार दिया था जिस कारण महज तीन दिन बाद ही खेल मंत्रालय भारत ने फेडरेशन को निलंबित कर दिया और फेडरेशन के सारे आदेश सारी कार्यवाही सस्पेंड कर दी है ।
पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण के विरुद्ध आंदोलन पर बैठे हुए पहलवानों ने फेडरेशन की नई समिति का काफी विरोध किया था । वहीं दूसरी ओर बृजभूषण और संजय सिंह की पहलवानों को लेकर तीखी प्रतिक्रिया जारी थी, जिससे माहौल के और अधिक संवेदनशील बनने के लक्षण दिखाई देने लगे थे अतः खेल मंत्रालय ने डब्ल्यूएफआई पर बड़ा एक्शन लिया है। उन्होंने भारतीय कुश्ती महासंघ को ही निलंबित कर दिया है।
बेशक रेसलिंग फेडरेशन पर बृजभूषण का वर्चस्व है और उन पर पहलवानों की ओर से विभिन्न आरोप लगे हैं जो कि न्यायालय में विचाराधीन है किंतु अवार्ड वापिस करना कहां तक उचित है । अवार्ड ना ही बृजभूषण की टीम ने दिया और ना ही सरकार ने , इसके लिए तो ज्यूरी नाम तय करती है जो कि अपनी मेहनत के बल पर पहलवानों ने प्राप्त किया है तो फिर अवार्ड वापसी गैंग के हाथों की कठपुतली बनकर क्या दर्शाना चाहते हैं ।
पहले भी सरकार के खिलाफ पुरस्कार लौटाने की परम्परा पर चेतन खूब खुलकर बोले थे । उन्होंने कहा कि अवार्ड लौटाना फैशन सा हो गया है। विदेशी मीडिया अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी बातों से देश की गलत तस्वीर पेश करता है। अवॉर्ड कोई सरकार नहीं बल्कि ज्यूरी तय करती है। जो काम के आधार पर दिया जाता है। काम के लिए मिलने वाला पुरस्कार सम्मान होता है। प्यार से दिया और प्यार से ही लिया तो आखिर प्यार को कोई कैसे लौटा सकता है। अवॉर्ड लौटाना अब फैशन सा हो गया है।
इससे पूर्व भी सरकार पर दबाव बनाने के लिए यहीं पहलवान लॉबी अपने आकाओं के साथ हर की पौड़ी हरिद्वार गंगा में अपने मैडल बहाने गई थी किंतु संतों के विरोध के कारण वापिस आना पड़ा।
देश में पहले भी पुरस्कार लौटाने का मानो सीजन सा चल पड़ा था। कई पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की सोई हुई अंतरआत्मा धीरे-धीरे जागने लगी थी। उन्हें लग रहा था कि देश में इतने ढेर सारे अनर्थ कार्य हो रहे हैं और वे कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं , उसका पुरज़ोर विरोध होना चाहिए। विरोध किस तरह करें, वास्तव में, सभी अपनी पब्लिसिटी चाहते थे उसी समय एक साहित्यकार के दिमाग में विचार आया और उन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया। सभी को पुरस्कार लौटाने वाला तरीका सबसे ज्यादा टीआरपी बटोरने वाला लगा। बस पुरस्कार लौटाने वालों की लाइन लग गई।
कई लोगों ने जब पुरस्कार लौटाने वालों की वाहवाही की तो अन्य और भी लोग उत्साहित हो गए और अपने अवॉर्ड सरकार के मुंह पर दे मारे। इस माहौल को कैश करने के लिए वामपंथी भी सक्रिय हो उठे और आह्वान करने लगे कि बाकी लोग भी पुरस्कार लौटाने वाले क्लब की सदस्यता ग्रहण कर लें। इस तरह के प्रयासों से सम्मान लौटाने के लिए साहित्यकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया गया। नैरेटिव सैट किया गया कि जो पुरस्कार नहीं लौटाएंगे उन्हें सांप्रदायिक कहा जायेगा।
डॉ. नामवर सिंह के वक्तव्य को नकारा नहीं जा सकता कि महज सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और कलाकार पुरस्कार वापस कर रहे हैं। दरअसल, जब इन लोगों को साहित्य अकादमी या नाटक अकादमी पुरस्कार मिला था, तब किसी को पता ही नहीं चल सका था। अब ये लोग पुरस्कार वापस कर रहे हैं, तो सब लोग जान रहे हैं कि इस आदमी को पुरस्कार मिला था, अब वह उसे वापस कर रहा है। कुछ लोग यह सोच कर सहानुभूति जता रहे हैं कि देश में “खराब हालत” के लिए साहित्यकार-कलाकार अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं।
साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का सिलसिला लेखक उदय प्रकाश से शुरू हुआ। वह अच्छे साहित्यकार के साथ-साथ थोड़े ज़्यादा संवेदनशील थे । उन्होंने फेसबुक वॉल पर लिखा था, "दोस्तो, क्या मुझे हिंदी साहित्य के लिए मिले समस्त पुरस्कारों को लौटा देना चाहिए? मुझे लगता है, अवश्य! ये जीवन के माथे पर दाग हैं।" यानी पुरस्कार लौटाने का मन उदय प्रकाश ने बहुत पहले बना लिया था। कुलबर्गी की हत्या अच्छा अवसर था। इन सारी बातों से स्पष्ट रहा है कि पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत से और मोदी को वोट करने वाली जनता से ये कलाकार आदि दुखी थे और सरकार के व विरुध्द एकजुट हो रहे हैं।
जबकि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली के दंगे में लगभग 2800 सिख कत्ल कर दिए गए। सबकी मौत कमोबेश अखलाक जैसी या उससे भी भयानक रहीं। किंतु अखलाक की मौत का बहाना बनाकर अवार्ड लौटाने वाले गैंग ने कभी निर्दोष सिखों की मौत पर अवार्ड वापिस नहीं किया वो अलग बात है कि आज सिख ही अपने हत्यारों को क्षमा कर चुके हैं ।
प्राचीन ग्रंथों में जिक्र आता है कि नर्तकियों के नृत्य से जब राजा खुश होते थे तो नर्तकी को पुरस्कार देते थे। इसी तरह अच्छी ख़बर सुनाने वाले अनुचरों को राजा द्वारा अपना आभूषण उतार कर देने की भी परंपरा रही है। यह परंपरा मध्यकाल में भी चलती रही। सुल्तान किसी की सेवा या स्वामिभक्ति से खुश होने पर उसे पुरस्कार के रूप में सुबेदारी या जागीरदारी दे देता था। यह परंपरा अंग्रेजी शासन में भी जारी रही। अंग्रेज़ अपने भक्त भारतीयों को इनाम के रूप में रायबहादुर या सर की पदवी देते थे। उन्होंने गीताप्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद उर्फ भाई जी को रायबहादुर की पदवी देनी चाही थी, लेकिन भाई जी ने ठुकरा दिया। कि रवींद्रनाथ टेगोर को नाइटहुड दिया तो उन्होंने स्वीकार कर लिया, लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद लौटा दिया था। हालांकि टैगोर पर सवाल उठे थे कि देश पर शासन करने वाले अंग्रेजों का सम्मान स्वीकार ही क्यों किया। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी पहले पद्मश्री लिया फिर आपातकाल और सरकारी दमन के विरोध में पुरस्कार लौटा दिया था। लेखक खुशवंत सिंह ने भी इंदिरा गांधी के दौर में 1974 पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया। उन्होंने अमृतसर स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश के विरोध में 1984 में इसे लौटा दिया था। जब जरनैल सिंह भिंडरवाला स्वर्ण मंदिर जैसे पवित्र जगह से आतंकवादी गतिविधियों का संचालन कर रहा था, तब खुशवंत आहत नहीं हुए, लेकिन स्वर्ण मंदिर को आतंकियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए जवान घुसे तो खुशवंत सिंह आहत हो गए।
आज भी कई पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की सोई हुई अंतरआत्मा धीरे-धीरे जाग रही है। 2024 के आते-आते इनकी संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाये तो आश्चर्य नहीं । ये कभी किसानों के नाम पर , कभी मजदूरों के नाम पर ,कभी मंहगाई के नाम पर इस तरह के नाटक दोहराते रहेंगे। पुरस्कार लौटाने के बाद इनकी सारी सुविधाएं समाप्त हो जानी चाहिए और यदि इतने ही खुद्दार हो तो दी गयी नगद धन राशि भी ब्याज सहित लौटानी चाहिए। जब तुम इतने आदर्शवादी हो तो कोई पुरस्कार लेना ही नहीं चाहिए, क्योंकि पुरस्कार देने वाली कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी पाक-साफ नहीं होती। ऐसी सरकार या पॉलिटिकल पार्टी से पुरस्कार लेने का मतलब उसकी नीतियों का समर्थन करना होता है। बाद में सम्मान लौटाने का राजनैतिक षड्यंत्र तुम्हें क्षणिक लाभ तो दे जायेगा किंतु भविष्य में सिवाय पश्चाताप के कुछ हासिल नहीं होगा।
स्तंभकार -
डॉ उमेश प्रताप वत्स
प्रसिद्ध लेखक व विचारक है
9416966424
यमुनानगर , हरियाणा
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