शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

आलेख - कड़ाके की ढंड में काहे का नववर्ष

 आलेख - 

कड़ाके की ढंड में काहे का नववर्ष 

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 


ढंड पूरी तरह अपनी यौवनता पर है जो आये दिन गिरते तापमान के साथ 

उत्तर भारत सहित अधिकतम राज्यों को अपनी चपेट में लेकर अपने होने का एहसास करवा रही है । ऐसे में यदि कोई पुराने वर्ष के स्थान पर नये वर्ष के परिवर्तन की बात करें तो बड़ा बेमानी सा लगता है । जब व्यक्ति मानसिक व शारीरिक दोनों तरह से ढंड के कारण सिकुड़ रहा हो तो वह क्या ही नया वर्ष मनायेगा । किन्तु फिर भी ब्रिटिश हुकुमत द्वारा पीछे छोड़े गए काले अंग्रेजों के प्रभाव से देश अभी पूर्णतया मुक्त नहीं हुआ है और उनके प्रभाव में एक बहुत बड़ी जनसंख्या अभी भी पूरे देश में पश्चिमी नव वर्ष 2024 के स्वागत की जोरदार तैयारियाँ कर रही है। फाइव स्टार, बड़े-बड़े होटलों को रंग-बिरंगी जगमगाती लाइटों से सजाया जा रहा है। बॉलीवुड के कलाकारों विशेष रूप से नृत्य में प्रवीण बालाओं की बोली लगनी प्रारंभ हो गई है इनकी ऊँचे दामों पर बुकिंग शुरु हो गई है। ये कलाकार अपनी मधुर आवाज से, अभिनय से, नृत्य से और अदाओं से नये वर्ष की मस्ती में चार चांद लगाने वाले हैं। नये वर्ष की चकाचौंध को ओर अधिक असरदार बनाने के लिए होटल के मालिक नई-नई प्लानिंग और स्कीम तैयार कर रहे हैं। उदाहरण के रूप में होटल के टोकन पर एक अतिरिक्त व्यक्ति की एन्ट्री फ्री। यद्यपि अतिरिक्त व्यक्ति के नाम का मूल्य टोकन के मूल्य में पहले से ही जुड़ा होता है। एक व्यक्ति फ्री होने के कारण कोई पत्नी को साथ लेकर जायेगा तो कोई पत्नी की नजरों से बचते हुए अपने पार्टनर को। हम नये वर्ष के नाम पर खूब मस्ती, हुल्लड़बाजी करेंगे। लाइट ऑफ डांस, पार्टनर चेंज डांस और एक ही रात में बीस-तीस हजार रुपये खर्च करके क्षणिक आन्नद लेते हुए देर रात्रि घर में घुसेंगे यदि पत्नी साथ में है तो ठीक है और यदि किसी अन्य के साथ जाकर देर रात घर में आ रहे हैं तो फिर जो क्लेश इंतजार कर रहा है वह भी इस नकली नये वर्ष की शुरुआत यादगार बनाने के लिए वर्षभर याद रहने वाला है । किंतु क्या कभी हमने सोचा है कि अपना नया वर्ष कौन सा है। भारतवर्ष की संस्कृति को अपने इतिहास में समेटे हुए अपना नववर्ष एक जनवरी को नहीं अपितु चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को देवी माँ के पवित्र नवरात्रे के साथ पूजा-पाठ करते हुए मनाया जाता है। यह ओर अधिक धूमधाम से मनाया जाना चाहिये क्योंकि भारतीय नववर्ष का अध्यात्मिक, सांस्कृतिक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार भी है। यह नववर्ष ऋतु परिवर्तन लेकर आता है। सर्द ऋतु की ठिठुरन से निजात दिलाते हुए चैत्र मास के नवरस दिवस अपने सुहावने मौसम से प्रकृति में सुंदरता की छटा बिखरते हैं। दूसरी ओर एक जनवरी को ऋतु में किसी भी तरह का परिवर्तन दिखाई नहीं देता। व्यक्ति, पशु-पक्षी यहां तक कि पेड-पौधे  भी ठंड की ठिठुरन में सिकुड़े रहते हैं यद्यपि नव संवत्सर ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ नई उमंग, नई ऊर्जा और स्फूर्ति लेकर आती है। एक जनवरी की सन सनाती हवाओं के बीच कड़ाके की ठंड में हड्डियों के जमने पर मोमबत्ती बुझाकर नया वर्ष मनाना कहां तक तर्कसंगत हो सकता है। वही पर भारतीय नव वर्ष में वातावरण अत्यन्त मनोहारी रहता है। केवल मनुष्य ही नहीं अपितु जड़-चेतन नर-नाग, यक्ष-रक्ष किन्नर-गन्धर्व, पशु-पक्षी, लता, पादप, नदी-पर्वत, देवी-देवता व्यरष्टि से समष्टि तक सब प्रसन्न होकर उस परम शक्ति के स्वागत में सन्नध रहते हैं।

ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत के नए साल का आरंभ भी होता है। इसे गुड़ी पड़वा, उगादि आदि नामों से भारत के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है। 

 भारतीय नववर्ष का ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ प्राकृतिक महत्व भी है। यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन है। इस दिन से एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 112 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने जगत की रचना प्रारंभ की। इतिहास गवाह है कि संवत का पहला दिन उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होता था जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो और न ही कोई भिखारी हो। साथ ही राजा चक्रवर्ती सम्राट भी हो। ऐसे ही महान राजा सम्राट विक्रमादित्य ने वर्षों पहले इस महत्व को समझते हुए इसी दिन अपने राज्य की स्थापना की थी। विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत राष्ट्र इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है। दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धन्वंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे। तभी से इस संवत का नाम विक्रमी संवत निश्चित हो गया। 

भारत वर्ष में प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक के लिये चुना।

सनातन धर्म में शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात् नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन है यह। 

सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।

विक्रमादित्य की भांति शालिनवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।

इसी दिन युगाब्द संवत्सर भी प्रारंभ हुआ था और 5124 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ। इस दिन के महत्व को बढ़ाते हुए प्रकृति भी स्पष्ट संदेश देती है। बसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है। सूखे, ठूँठ वृक्षों पर भी कोमल पत्र नव संवत के आगमन पर पलकें बिछाएं प्रतिक्षारत्त दिखाई देते हैं। 

फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।

नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है। हम लोगों को समझना और समझाना होगा। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके। 

दुनिया के लगभग प्रत्येक कैलेण्डर सर्दी के बाद वसंत ऋतु से ही प्रारम्भ होते हैं। यहां तक की इस्वी सन वाला कैलेण्डर ( जो आजकल प्रचलन में है ) वो भी मार्च से शुरू होता है। 

 इस कलेंडर को बनाने में कोई नयी खगोलीये गणना करने के बजाये सीधे से भारतीय कैलेण्डर ( विक्रम संवत ) में से ही उठा लिया गया था। विद्वानों के अनुसार भारतीय काल गणना पूरे विश्व में व्याप्त थी और सचमुच सितम्बर का अर्थ सप्ताम्बर था, आकाश का सातवा भाग, उसी प्रकार अक्टूबर अष्टाम्बर, नवम्बर तो नवमअम्बर और दिसम्बर दशाम्बर है।

सूर्य सिध्दान्त और सिध्दान्त शिरोमाणि आदि ग्रन्थों में चैत्रशुक्ल प्रतिपदा रविवार का दिन ही सृष्टि का प्रथम दिन माना गया है। लेकिन यह इतना अधिक व्यापक था कि आम आदमी इसे आसानी से नहीं समझ पाता था, खासकर पश्चिम जगत के अल्पज्ञानी तो बिल्कुल भी नहीं। किसी भी विशेष दिन , त्यौहार आदि के बारे में जानकारी लेने के लिए पंडित के पास जाना पड़ता था। 

यह बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारी अनपढ़ माँ, ताई, चाची और दादी भी सभी भारतीय महीनों के नाम क्रमशः जानती हैं किन्तु हम पढ़े-लिखे होकर भी स्मरण नहीं रख पाते। 

जिस तरह जनवरी अंग्रेज़ी का पहला महीना है उसी तरह हिन्दी महीनों में चैत वर्ष का पहला महीना होता है। हम इसे कुछ इस तरह से समझ सकते हैं-

मार्च-अप्रैल -चैत्र (चैत)

अप्रैल-मई -वैशाख (वैसाख)

मई-जून -ज्येष्ठ (जेठ)

जून-जुलाई - आषाढ़ (आसाढ़)

जुलाई-अगस्त - श्रावण (सावन)

अगस्त-सितम्बर - भाद्रपद (भादो)

सितम्बर-अक्टूबर - अश्विन (क्वार)

अक्टूबर-नवम्बर - कार्तिक (कातिक)

नवम्बर-दिसम्बर - मार्गशीर्ष (अगहन)

दिसम्बर-जनवरी - पौष (पूस)

जनवरी-फरवरी - माघ

फरवरी-मार्च - फाल्गुन (फागुन)

विक्रम संवत का शुभारम्भ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष से है।  संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करते हैं। 

हम सदियों से थोपी गई अंग्रेजी शिक्षा से आज तक भी पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्घति का ही नतीजा है कि आज हमने न सिर्फ अंग्रेजी बोलने में हिन्दी से ज्यादा गर्व महसूस किया बल्कि अपने प्यारे भारत का नाम संविधान में इंडिया दैट इज भारत तक रख दिया। इसके पीछे यही धारणा थी कि भारत को भूल कर इंडिया को याद रखो क्योंकि यदि भारत को याद रखोगे तो भरत याद आएंगे, शकुन्तला व दुष्यंत याद आएंगे, हस्तिनापुर व उसकी प्राचीन सभ्यता और परम्परा याद आएंगी। राष्ट्रीय चेतना के स्वामी विवेकानंद ने कहा था यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले दिनांकों पर आश्रित रहने वाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है। अतः आओ हम सब नकली कैलेण्डर के अनुसार नए साल पर, हुडदंग करने के बजाये , पूर्णरूप से वैज्ञानिक और भारतीय कलेंडर (विक्रम संवत) के अनुसार आने वाले नव वर्ष प्रतिपदा पर भगवान राम को याद करते हुए नये वर्ष के आने के आने की व अभिनंदन की प्रतिक्षा करें।

स्तंभकार -

डॉ उमेश प्रताप वत्स 

प्रसिद्ध लेखक व विचारक है

umeshpvats@gmail.com 

9416966424 

यमुनानगर , हरियाणा 





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