शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

आलेख - 496 वर्षों में दो लाख से भी अधिक रामभक्तों के बलिदान के बाद श्री राम हो रहे हैं अयोध्या में विराजमान

 आलेख -

496 वर्षों में दो लाख से भी अधिक रामभक्तों के बलिदान के बाद श्री राम हो रहे हैं अयोध्या में विराजमान 

- डॉ उमेश प्रताप वत्स 


496 वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद 22 जनवरी को भगवान राम की मूर्ति की अयोध्या के ऐतिहासिक भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है अर्थात् सबके अराध्य राम भक्तों की याचना स्वीकार करते हुए अपने भक्तों का मान बढ़ाने हेतु विराजमान होने जा रहे हैं । अध्यात्मिक जगत में प्राण प्रतिष्ठा का अर्थ होता है कि स्वयं भगवान राम चेतनावस्था में मंदिर में उपस्थित होने जा रहे हैं । ज्ञातव्य है कि भगवान राम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ था किन्तु अयोध्या को तो 496 वर्ष का वनवास झेलना पड़ा । अपने कण-कण में बसे भगवान राम के बिना लगभग 500 वर्षों की प्रतिक्षा के बाद राम कृपा से ही राम की अयोध्या फिर राममय होने जा रही है । अयोध्या की सड़के , फ्लाईओवर , अयोध्या के बाजार , अयोध्या के कोने-कोने को राम की अयोध्या बनाने का कार्य जोरों पर है और सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि मंदिर-मस्जिद के लिए दंगा-फसाद करने वाले अयोध्या के मुस्लिम समुदाय के लोग भी स्वयं पर राम की कृपा को स्वीकार कर रहे हैं ।

यद्यपि राम को अपनी अयोध्या में लाने के लिए दो लाख से भी अधिक रामभक्तों ने जालिम मुस्लिम आक्रांताओं से संघर्ष करते हुए समय-समय पर अपना अमूल्य बलिदान दिया किंतु आज उनकी पीढ़ी उनके बलिदान का फल भव्य अयोध्या मंदिर के रूप में देखने जा रही है जो बहुत ही सुखद है ।

पद्म पुराण में भगवान शिव ने कहा कि "राम-राम का जाप करके कोई भी सुखद रूप से साकेत लोक में रहने वाले राम तक पहुंच सकता है।" और आज सोशल नेटवर्क पर यह दावा किया जा रहा है कि 'जय श्री राम' का नारा सोशल नेटवर्किंग साइटों पर प्रतिदिन 200 करोड़ से भी अधिक बार लिखा जाता है यदि यह सत्य है तो यह पंचाक्षर नारा कितना बड़ा महामंत्र बन चुका है इसका अनुमान बहुत ही आन्नद देने वाला है ।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि भगवान राम का जन्म 5114 ईस्वी पूर्व अयोध्या में हुआ था। परम सर्वशक्तिमान भगवान राम त्रेता युग के अजेय i पर विजय प्राप्त की। राघव ने अपनी आत्मा में धर्म रखते हुए वह उत्कृष्ट राज्य प्राप्त किया। जिसे राम राज्य कहकर आज भी याद किया जाता है ।

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में बताया है कि, भगवान श्री राम का चेहरा एकदम चंद्रमा की तरह चमकीला, सौम्य, कोमल और सुंदर था। उनकी आंखे कमल की भांति खबसूरत और बड़ी थी। उनकी नाक उनके चेहरे की तरह ही लंबी और सुडौल थी। उनके होठों का रंग सूर्य के रंग की तरह लाल था और उनके दोनों होठ समान थे। इनकी इस आकर्षक सूरत को हर रामभक्त अपने मन-मस्तिष्क में धारण किये बैठा है तो फिर प्राण रहते राम को अयोध्या से बाहर कैसे स्वीकार करता।

उल्लेखनीय है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद से पहले पुरातन राम मंदिर था। माना जाता है कि 1528 ई. में बाबर अयोध्या आया और एक सप्ताह तक यहाँ रुका। उसने प्राचीन मंदिर को नष्ट कर दिया और उसकी जगह पर एक मस्जिद बनवाई, जिसे बाद में बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था। मस्जिद निर्माण में खंडित मंदिर की सामग्रियों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया गया था क्योंकि तब बाबर ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि लाखों रामभक्तों के संघर्षों के बाद मंदिर की यही सामग्री मंदिर के लिए साक्ष्य का साधन बनेगी। जब मंदिर तोड़ा जा रहा था तब जन्मभूमि मंदिर पर सिद्ध महात्मा श्यामनंदजी महाराज का अधिकार था। उस समय राजा महताब सिंह बद्रीनारायण ने मंदिर को बचाने के लिए बाबर की सेना से युद्ध लड़ा। कई दिनों तक युद्ध चला और अंत में हजारों वीर सैनिक शहीद हो गए।

ब्रिटिश इतिहासकार कनिंघम अपने 'लखनऊ गजेटियर' के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है कि 1,74,000 हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात सेनापति मीरबाकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान में सफल हुआ।

मंदिर पर मुगलों के आधिपत्य की जानकारी मिलते ही अयोध्या से 6 मील की दूरी पर सनेथू गांव के पं. देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आसपास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया और बाबर की सेना पर चढ़ाई कर दी। युद्ध में पं. देवीदीन पाण्डेय सहित हजारों हिन्दू शहीद हो गए और बाबर की सेना जीत गई। पाण्डेय जी की मृत्यु के 15 दिन बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने सिर्फ हजारों सैनिकों के साथ मीरबाकी की विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया लेकिन महाराज सहित जन्मभूमि के रक्षार्थ सभी वीरगति को प्राप्त हो गए। तब महाराज रणविजय सिंह की पत्नी रानी जयराज कुमारी ने अपने पति की वीरगति के बाद खुद जन्मभूमि की रक्षा के कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और 3,000 नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। इस पावन कार्य में स्वामी महेश्वरानंदजी ने संन्यासियों की सेना के साथ रानी जयराज कुमारी का साथ दिया । लेकिन हुमायूं की शाही सेना से इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ बलिदान हो गई और जन्मभूमि पर पुन: मुगलों का अधिकार हो गया। हुमायूं के बाद अकबर ने राज्य विस्तार के लिए चतुराई से काम लेना शुरु किया । हिंदू सैन्य शक्ति से कमजोर होने के बाद भी यह कतई स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि उनके अराध्य राम अयोध्या मंदिर से बाहर रहे। अतः राम जन्मभूमि के लिए हिन्दुओं का संघर्ष जारी रहा। युद्ध के दौरान मुगल शाही सेना हर दिन कमजोर हो रही थी। अत: अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर 3 फीट का एक छोटा-सा मंदिर बनवा दिया। अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा। यही क्रम शाहजहां के समय भी चलता रहा। किंतु धर्मांध औरंगजेब ने तो भारत के हर हिन्दू मंदिर को नष्ट करने की जैसे कसम ही खा रखी थी तो अकबर का बनवाया वह छोटा सा सांकेतिक मंदिर वाला चबूतरा भी ढहा दिया गया । उसने लगभग 10 बार अयोध्या में मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलाकर यहां के सभी प्रमुख मंदिरों बौद्ध ,जैन मंदिर और उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला। औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्रीरामदासजी महाराज के शिष्य श्री वैष्णवदासजी ने जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए 30 बार आक्रमण किए किंतु औरंगजेब की सैन्य ताकत के आगे सफल नहीं हो सके। नासिरुद्दीन हैदर के समय में मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुन: अपने रूप में लाने के लिए हिन्दुओं के तीन आक्रमण हुए जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गए। इस हिन्दू सेना का सहयोग वीर चिमटाधारी साधुओं की संन्यासी सेना ने भी किया परिणामस्वरूप इस युद्ध में शाही सेना को हारना पड़ा और जन्मभूमि पर पुन: हिन्दुओं का कब्जा हो गया। लेकिन कुछ दिनों के बाद विशाल शाही सेना ने पुन: जन्मभूमि पर अधिकार कर हजारों रामभक्तों का कत्ल कर दिया । नवाब वाजिद अली शाह के समय में हिन्दुओं ने एकबार फिर जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया । 1853 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय पहली बार अयोध्या में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की जिसमें सेना के साथ-साथ आम प्रजाजनों ने हिंसा में भाग लिया । हिन्दुओं का आरोप था कि भगवान राम के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ। इस मुद्दे पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच यह पहली सीधी हिंसा हुई।

 'फैजाबाद गजेटियर' में कनिंघम ने लिखा- 'इस संग्राम में बहुत ही भयंकर खून-खराबा हुआ। दो दिन दो रात चलने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं ने श्रीराम जन्मभूमि पर कब्जा कर अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया। चबूतरे पर 3 फीट ऊंचे खस के टाट से एक छोटा-सा मंदिर बनवा लिया जिसमें पुन: रामलला की स्थापना की गई। लेकिन बाद के मुगल राजाओं ने इस पर पुन: अधिकार कर लिया।

इतिहास साक्षी है कि आक्रांताओं की लाखों की सेना के समक्ष भी राम जन्मभूमि को मुक्त कराने का अभियान कभी कुंद नहीं पड़ा । 

1857 के बाद राम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए एक बार फिर अभियान चलाया गया। विवाद के चलते 1859 में ब्रिटिश शासकों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिन्दुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।

हिंदू संगठनों ने 1813 में पहली बार बाबरी मस्जिद पर दावा किया था। उनका दावा है कि अयोध्या में राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। इसके 72 साल बाद यह मामला पहली बार किसी अदालत में पहुंचा। 

19 जनवरी 1885 को हिन्दू महंत रघुबीर दास ने पहली बार इस मामले को फैजाबाद के न्यायाधीश पं. हरिकिशन के सामने रखा था। इस मामले में कहा गया था कि मस्जिद की जगह पर मंदिर बनवाना चाहिए, क्योंकि वह स्थान प्रभु श्रीराम का जन्म स्थान है।

वर्ष 1947 में भारत सरकार ने मुसलमानों को विवादित स्थल से दूर रहने के आदेश दिए और मस्जिद के मुख्य द्वार पर ताला डाल दिया गया जबकि हिन्दू श्रद्धालुओं को एक अलग जगह से प्रवेश दिया जाता रहा।

1949 में भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं। कहते हैं कि कुछ हिन्दूओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाई थीं। मुसलमानों ने इस पर विरोध व्यक्त किया और दोनों पक्षों ने अदालत में मुकदमा दायर कर दिया

1984 में कुछ हिन्दुओं ने विश्व हिन्दू परिषद के नेतृत्व में भगवान राम के जन्मस्थल को 'मुक्त' करने और वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। बाद में इस अभियान का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाल लिया।

1986 में जिला मजिस्ट्रेट ने हिन्दुओं को प्रार्थना करने के लिए विवादित मस्जिद के दरवाजे पर से ताला खोलने का आदेश दिया। मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया।

1989 में विश्व हिन्दू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक राम मंदिर की नींव रखी। इसी वर्ष इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल देना चाहिए और इस जगह को हमेशा के लिए हिन्दुओं को दे देना चाहिए। इस आदेश के बाद तो देशभर के रामभक्तों में जोश आ गया । देश में जय श्री राम का जय घोष शक्ति का प्रतीक बनता जा रहा था।

30 अक्टूबर 1990 को हजारों रामभक्तों ने मुख्यमंत्री मुलायमसिंह यादव की चुनौती को स्वीकार करते हुए गिरफ्तारी से बचते हुए सैकड़ों किलोमीटर पैदल मार्ग से सरयू नदी को तैरकर पार करके अनेक बाधाओं को धता बताते हुए अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया। लेकिन 2 नवंबर 1990 को मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया जिसमें सैकड़ों रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था। इस हत्याकांड के बाद अप्रैल 1991 को उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायमसिंह यादव को इस्तीफा देना पड़ा।

इसके बाद लाखों रामभक्त 6 दिसंबर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा ढहा दिया गया जिसके परिणामस्वरूप देशभर में दंगे हुए। इसी मसले पर विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल, भाजपा नेता आडवाणी, यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी , साध्वी ऋतम्भरा और मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती सहित 13 नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाने की मांग की गई थी।

6 दिसंबर 1992 को जब विवादित ढांचा गिराया गया, उस समय राज्य में कल्याण सिंह की सरकार थी। भीड़ ने उसी जगह पूजा-अर्चना की और 'राम शिला' की स्थापना कर दी। पुलिस के आला अधिकारी मामले की गंभीरता को समझ रहे थे। गुंबद के आसपास मौजूद कारसेवकों को रोकने की हिम्मत किसी में नहीं थी। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का साफ आदेश था कि कारसेवकों पर गोली नहीं चलेगी।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले को लेकर प्रतिदिन सुनाई होने लगी और 16 अगस्त 2019 को सुनवाई पूरी होने के बाद फैसला सुरक्षित रखा गया। 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच ने श्रीराम जन्म भूमि के पक्ष में फैसला सुनाया और विश्वभर में रामभक्तों में खुशी की लहर दौड़ गई। 496 वर्षों के बाद यह एक लंबे संघर्ष की जीत थी , लगभग 77 युद्ध-संघर्षों के बाद यह विजयी परिणाम सुख देने वाला था। अब प्रतिक्षा थी कि शीघ्र ही भव्य मंदिर का निर्माण हो और भगवान राम की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा हो ।

जिस अयोध्या की स्थापना सूर्य पुत्र वैवस्वत मनु ने की थी और जिस अयोध्या के पहले शासक वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु थे। जिस अयोध्या में कभी राम राज्य था वही अयोध्या अब फिर से राममय होने जा रही है । यह स्मरण होते ही अंतःकरण में रोमांच उत्पन हो जाता है ।

5 अगस्त 2020 को भारत के प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा भूमिपूजन अनुष्ठान किया गया था और मन्दिर का निर्माण आरम्भ हुआ था।

जमीन के 50 फीट गहराई में कंक्रीट की आधारशिला रखने के साथ ही चौबीस घंटे , सात दिन सोलह हजार कर्मचारियों द्वारा शिफ्टों में कार्य का परिणाम है कि 22 जनवरी 2024 को भगवान राम की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है ।

मंदिर के मुख्य वास्तुकार चंद्रकांत सोमपुरा के साथ उनके दो बेटे निखिल सोमपुरा और आशीष सोमपुरा भी हैं, जो आर्किटेक्ट भी हैं। सोमपुरा परिवार ने राम मंदिर को 'नागरा' शैली की वास्तुकला के बाद बनाया है, जो भारतीय मंदिर वास्तुकला के प्रकारों में से एक है।

विश्व हिन्दू परिषद के नेतृत्व में रामजन्मभूमि परिसर 108 एकड़ में मंदिर का कार्य पूर्णता की ओर तेजी से बढ़ रहा है । रामभक्तों ने अपने रामलला के लिए धन के भंडार खोल दिये हैं । कोई अपनी जन्मभर की पूंजी मंदिर के नाम कर रहा है कोई अपने जेवरात मंदिर में चढ़ा रहा है । कोई दस रुपये का सहयोग कर रहा है कोई दस करोड़ का। कहीं भगवान राम की एक किलो सोना व सात किलो चांदी की चरण-पादुकाएं तैयार हो रही है तो कहीं रिटायर्ड आईएएस अधिकारी एस. लक्ष्मी नारायणन जैसे रामभक्त है जिनके द्वारा अर्पित की जा रही रामचरितमानस में 10,902 पदों वाले इस महाकाव्य के सभी पन्ने तांबे से बनाए जाएंगे। पन्ने को 24 कैरेट सोने में डुबोकर स्वर्ण जड़ित अक्षर लिखकर तैयार किए जाएंगे। इस रामचरितमानस को तैयार करने में 140 किलो तांबा और लगभग सात किलो सोना लगेगा। वहीं मंदिर के सभी 36 दरवाजों पर सोने की परत लगाई जा रही है । बहुत ही सुन्दर , अद्भुत होगा हमारे अराध्य भगवान राम का मंदिर। राशि अनुमान से ज्यादा एकत्रित हो रही है । अब दान देने की बजाय अयोध्या निमंत्रण का आह्वान किया जा रहा है। घर-घर अक्षत (पीले चावल) निमंत्रण हेतु बांटे जा रहे हैं । रामभक्तों के सहयोग से हजारों करोड़ रुपये एकत्र हो गया है और पवित्र रामकार्य है तो एक-एक पैसे की महत्ता को समझते हुए और सभी रामभक्तों के सहयोग से विश्व का सबसे बड़ा , भव्य , अद्भुत सबका सपना श्री राम अयोध्या मंदिर बनने जा रहा है पूरे 496 वर्षों के बाद ।

स्तंभकार -

डॉ उमेश प्रताप वत्स 

प्रसिद्ध लेखक व विचारक है

umeshpvats@gmail.com 

9416966424 

यमुनानगर , हरियाणा 



आलेख : संसदीय और विधानसभा चुनाव देशभर में एक ही साथ होने चाहिए

 आलेख : 

संसदीय और विधानसभा चुनाव देशभर में एक ही साथ होने चाहिए

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 


हिन्दुस्थान एक ऐसा देश है जहाँ हर वर्ष कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। हमने विद्यार्थी जीवन में पढ़ा है कि हिन्दुस्थान उत्सव, त्यौहारों का देश है। यदि कहा जाये कि त्यौहारों के साथ-साथ यह चुनावी उत्सवों का भी देश है तो गलत नहीं होगा। जनसंख्या के आधार पर विश्व का दूसरा सबसे बड़ा 28 राज्यों वाला देश हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनावों की तैयारी में व्यस्त रहता है। जिस कारण देश का बहुत सा धन, समय, ऊर्जा चुनाव संपन्न कराने में व्यतीत हो जाता है। प्रतिवर्ष जो कर्मचारी चुनाव संपन्न कराने की व्यवस्था में ड्यूटी करते हैं उनके मूल विभाग के कार्य पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। देश की सज्जन व दुर्जन शक्तियां प्रतिवर्ष एड़ी-चोटी का जोर लगाकर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं फलस्वरूप दुर्जन शक्तियों की सक्रियता के कारण समाज में भय का वातावरण दिखाई देता है। प्रतिवर्ष चुनाव होने के कारण भ्रष्टाचार भी चरम सीमा पर पहुंच जाता है। अभी हाल ही में उत्तर-प्रदेश में कहीं दीवारों के अंदर से अरबों रुपयों की बरसात हो रही है और कहीं फर्श तोड़कर तहखानों से करोड़ों रुपये निकाले जा रहे हैं। चुनावों में धनबल प्रयोग होने के कारण भ्रष्टाचार का यह सारा धन अगल-अलग हथकंडों से एकत्र किया जाता है। गुंडातत्व का महत्व बढ़ जाता है जिस कारण फसलों की पैदावार की तरह प्रतिवर्ष नये-नये गुंडे पैदा किये जाते हैं। नेताओं की भी जो ताकत जनहित के लिए योजनाओं के क्रियान्वयन में लगनी चाहिए वह भी चुनावों की तैयारी में तथा चुनाव जीतने की कौशिश में लग जाती है। नेता लोग स्वयं को नये रूप में तराशने लगते हैं। वे मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए जबरदस्त होमवर्क करते हैं, इसके लिए जाति-धर्म के नाम पर वैमनस्य फैलाने की तथा भय का वातावरण तैयार करने की योजनाएं बनाई जाती हैं, किस स्थान पर किन लोगों के बीच कौन-सा ब्यान देना है, इसका निरंतर अभ्यास किया जाता है। वे जानते हैं कि यह सब गलत है किंतु एक वकील की भांति विजय ही इनका सबसे बड़ा धर्म है बेशक इसके लिए किसी भी हद तक जाना पड़े और किसी भी स्तर तक गिरना पड़े। औरंगजेब की तरह सत्ता प्राप्त करने के लिए चाहे पिता को जेल में डालना पड़े अथवा भाईयों का वध करना पड़े, इनकी नजर में सब जायज है। यह कुत्सित मानसिकता हर चुनाव में शक्तिशाली होकर अपने काम पर लग जाती है। यदि जनता सरकारी नीति, कार्य, योजनाओं से संतुष्ट हैं तो ये कुत्सित राजनीति के खिलाड़ी रातों-रात जाति या धर्म के नाम पर दंगे करवाकर सुबह तक सारा परिदृश्य बदलने में माहिर होते हैं। 

इन सभी समस्याओं का एक ही समाधान है कि देश की संसद का तथा सभी राज्यों में विधानसभा का चुनाव एक साथ कराया जाये। इसके लिए देश में कई बार बहस छिड़ी भी है। सबने अपने-अपने मत प्रकट किये हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी ने भी एक साथ चुनाव कराने की इच्छा जताई थी। वर्तमान में देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी ने भी अगल-अलग मंचों से एक साथ चुनाव कराने की पैरवी की है किंतु एक व्यापक स्तर पर प्रयास नहीं हो पा रहा है। देश की अधिकतर राजनैतिक पार्टियां इस मामले पर उदासीन है। कहीं न कहीं एक साथ चुनाव कराने में यह समस्या भी है कि किसी राज्य में सरकार को एक वर्ष हुआ है तो किसी में ढाई या चार वर्ष हुये हैं तो पाँच वर्ष के लिए चुनी हुई सरकार को समय से पहले भंग कैसे करें अथवा जब तक सभी पार्टियों के पाँच वर्ष पूरे हो तब तक बाकि राज्यों में जहां सरकार का कार्यकाल पूरा हो चुका है वहां कैसे सरकार चलाएं। फिर जैसे-कैसे एक साथ चुनाव करवा भी दिये जायें तो किसी भी सरकार के गठबंधन के कारण या फिर सासंद, विधायक की मृत्यु के कारण सत्ताधारी पार्टी अल्पमत में आ जाये तो क्या करें, यदि रिक्त सीट पर पुनः चुनाव करवाये जाये तो फिर एक साथ चुनाव कराने के प्रयासों को झटका लग सकता है। अतः इन सभी संदेहास्पद स्थिति के कारण कोई भी देशभर में एक साथ चुनाव कराने को लेकर स्पष्ट नहीं है। 

इसका एकमात्र समाधान यही है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय स्वयं संज्ञान लेकर इस मामले में हस्तक्षेप करें, जब 2024 में देशभर में संसदीय चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हो तब सभी राज्यों में एक साथ चुनाव करायें जाये बल्कि पंच, पार्षद से लेकर संसद तक सभी चुनाव एक साथ हो। जिन राज्यों में सरकार को 50 प्रतिशत अर्थात् ढाई वर्ष से कम समय हुआ हो उसे बिना चुनाव के 2024 के बाद भी पाँच वर्ष तक अर्थात् 2029 तक सरकार चलाने की मान्यता मिले से और जिस राज्य में ढाई वर्ष से अधिक समय हो गया है उसे 2024 में संसदीय चुनावों के साथ ही फिर से चुनाव जीतने के लिए जनता के दरबार में भेजा जाये। एक साथ चुनाव संपन्न होने के बाद यदि किसी सांसद या विधायक की मृत्यु से या फिर किसी गठबंधन के टूटने से सरकार अल्पमत में आ जाये तो आगामी पांच वर्ष पूरे करने के लिए या तो बहुमत प्राप्त पार्टी शेष काल पूरा करे अन्यथा बचा हुआ समय पूरा करने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जाये किंतु मध्यावधि चुनाव न हो। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ठोस नीति बनाने पर ही इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। यदि ऐसा हो जाता है तो इसके बहुत ही सुखद परिणाम आयेंगे। देश का धन और समय बचेगा। कर्मचारियों को बार-बार चुनाव ड्यूटी से निजात मिलेगी। केन्द्र व राज्य सरकारों को पाँच वर्षों तक निर्बाध कार्य करने का सुअवसर मिलेगा। भ्रष्टाचार में कमी आयेगी। चुनावी राजनैतिक दुकानें बंद होंगी। चुनाव के दौरान विदेशी षडयंत्रों में कमी आयेगी। चुनाव आयोग व अन्य विभागों पर चुनाव कराने का दबाव कम होगा। सरकारी जाँच एजेंसियों को चुनाव के दबाव बिना कार्य करने स्पष्ट मार्ग मिलेगा अन्यथा वर्तमान में किसी भी राज्य में कहीं भी किसी पर जाँच एजेंसियाँ जब कारवाई करती है तो उसे चुनाव से जोड़ कर देखा जाता है। सबसे बड़ी बात कि पाँच वर्ष में एक बार चुनाव संपन्न कराने से देश की बहुत अधिक ऊर्जा व्यर्थ खर्च होने से बचेगी जो देश की प्रगति में लगने पर भारत को उन्नति के उच्च शिखर तक ले जाने में सक्षम होगी। 


- डॉ उमेश प्रताप वत्स 

Umeshpvats@gmail.com

यमुनानगर, हरियाणा 

9416966424


कहानी : एडवेंचर कैंप

कहानी : एडवेंचर कैंप 

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 

अरे सुनो! (पीछे की ओर से सहसा एक आवाज़ आई) 

मैंने जैसे ही आवाज की ओर मुड़कर देखा तो बस देखता ही रह गया, एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ एक किशोरी थी जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, हवा में लहराते सुन्दर रेशमी बाल तथा गुलाब की पंखड़ियों से अधर यह एहसास करा रहे थे कि यह सामान्य से हटकर है। चेहरे पर उसकी मासूमियत व भोलेपन के कारण नजरें बस वहीं ठहर गई।

तभी मेरी तंद्रा को तोड़ते हुए वही भारी सी आवाज फिर गूँजी- 

अरे भाई ! ये एडवेंचर कैंप का ट्रेनिंग सेंटर कहाँ है? 

मेरा ध्यान फिर से भंग हो गया था, परियों की दुनिया से जैसे मुझे किसी ने जमीन पर धक्का दे दिया हो, हड़बड़ाकर बोला- वहीं तो है वो सामने वाली पहाड़ी पर ...

इतना सुनते ही वे चल पड़े किन्तु मैं उन्हें तब तक देखता रहा जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हो गये। 

उस हुस्नपरी का एक भी बार पीछे मुड़कर न देखना मेरी हार की शुरुआत जैसी थी किन्तु उसका साया मेरे मन-मस्तिष्क में इसप्रकार से बस गया था जैसे शयनकक्ष में प्रियतम की तस्वीर लगी हो।

मैंने भी और छात्रों की तरह एडवेंचर कैंप में भाग लेने के लिए आज सुबह ही यहाँ पहुँचा था। हम सब कॉलेज की ओर से लड़के-लड़कियों की अलग-अलग आवास की व्यवस्था के अनुसार यहाँ पहाड़ी पर बने कैंपस में अपना सामान रखकर सारे दिन की थकावट उतारने के लिए सैर करने नीचे आ गये थे। जो विद्यार्थी किसी कारण कॉलेज बस में नहीं आ सके वो एक-एक करके पहुँच रहे थे। कल सुबह से ही एडवेंचर की ट्रेनिंग कक्षा शुरु होनी थी अतः ट्रेनिंग सेंटर के बाहर दिनचर्या लगा दी गई थी। सुबह से शाम तक दिनचर्या बहुत सख्ती थी किंतु संध्याकाल के बाद किसी भी प्रतिभागी पर कोई बंधन नहीं था। यह हमारा व्यक्तिगत समय था। चाहे हम घूमें , चाहे नाचें , गायें या गप्पे मारे। सुबह जल्दी उठकर दौड़-भाग करने की आदत थी किंतु यहाँ कैंप में दौड़ लगाते, नहात-धोते, ट्रेनिंग-कक्षा आदि में हर समय उस किशोरी का ही ख्याल मेरे मन में घूमता रहता। मानो वह तस्वीर की भाँति हर समय साये की तरह मेरे साथ रहने लगी। कई बार तो मैं स्वयं को झिंझोड़कर इस अजीब सी गिरफ्त से निकलने का प्रयास करता परन्तु कुछ ही क्षण पश्चात् फिर उसी शून्य में जा ठहरता। यह सिलसिला मेरी दिनचर्या का हिस्सा बनता जा रहा था। बुद्धि का प्रयोग कर स्वयं को सम्भालता तो दिल मुझ पर भारी पड़ता और मैं फिर उसी धुन में मस्त हो जाता। कुछ दिन बाद शायद उसको भी यह लगने लगा कि मैं उस पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगा हूँ। दिन यूँ ही देखते व सोचते हुए गुजरने लगें।  

शिवालिक की पहाड़ियों की प्राकृतिक सुन्दरता, अक्तुबर मास के अतं की हल्की-हल्की सर्द हवा, कहीं धूप तो कहीं छाँव और ऊपर से यह अजीब सी भ्रामक चाहत जिसके बारे में मैं भी अनजान था, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। प्रकृति का प्रेमी तो मैं बाल्यकाल से ही रहा था, जब मैंने अपना बचपन कश्मीर की वादियों में प्रकृति की गोद में ही जीया था किन्तु अब तो यह और भी आकर्षित करने लगी शायद प्रेम और प्रकृति का आपस में गहरा सम्बन्ध है। कई बार दिल में आता कि मैं अपने दिल में उठे तूफान को उसके सामने जाकर साफ-साफ कहकर शान्त कर दूँ किन्तु हिम्मत ही न जुटा पाता और यह मौन साधना यूँ ही चलती रही। फिर एकबार मन में आया कि उसे भी तो अहसास होना चाहिए कि मैं उसे चाहता हूँ और यह सोचकर एक दिन जहाँ वह पहाड़ी के ऊपर दूसरे छोर पर बने लड़कियों के लिए आरक्षित होस्टल में सहेलियों के साथ ठहरी हुई थी, ठीक उसके कमरे की खिड़की के सामने लगभग दो सौ हाथ दूर एक छोटे से मंदिर के समीप चट्टान पर बैठकर मैं बाँसुरी बजाने लगा, एक-एक कर मैंने कई पुराने फिल्मी गीत अपनी अंगुलियों से नचायें किन्तु फिर भी खिड़की नहीं खुली। इधर जैसे-जैसे दिन ढ़लने लगा तो हवा भी तेज होने लगी कब चार से छः बज गये पता ही न चला। कई बार मन में उदासी भी आयी कि क्यों मैं पागलों की भाँति यहाँ बैठकर व्यर्थ समय गवां रहा हूँ किन्तु आज दिल कतई हारने को तैयार नहीं था। हवा प्रचण्ड़ वेग से बहने लगी। एक ओर तो मैं बाँसुरी बजा रहा था दूसरी ओर हवा के सर्द-थपेड़े मेरे कान में बाँसुरी बजा रहे थे। कई बार तो तेज हवा मेरे बाँसुरी के स्वरों को भी उड़ाकर ले जाती थी, फिर मैं हवा के विपरीत बाँसुरी थामकर स्वर निकालता और खिड़की पर एक टकी लगाए रहता। कुछ देर बाद खिड़की का एक पल्ला धीरे से एक इंच के लगभग खुला और कमरे के अन्दर कुछ हलचल सी भी नजर आई। बेशक पल्ला हवा से खुला हो किन्तु मुझे लगा था कि कोई मुझे देख रहा है, कोई क्यों वही, जिसे देख मेरा चैन खो गया था। मैंने उत्साहित होकर उच्च स्वर में मुरली की धुन निकालनी शुरु कर दी। परन्तु कोई प्रतिक्रिया न होने पर मन में निराशा स्वभाविक ही थी। अतः कई बार सोचा कि बहुत देर हो चुकी है शाम के सात बजे से भी अधिक समय हो चुका था, अपने कमरे में चलना चाहिए। अन्धेरा बढ़ता जा रहा था और हवा भी सर्द होती जा रही थी किन्तु मन तो आज निर्णायक बन बैठा था कि बिना दर्शन करे नहीं चाहे कितनी भी देर क्यों न हो जाये। गहराते अन्धकार तथा सर्द हवाओं के बीच बैठकर मुरली के माध्यम से दर्शन करने की इच्छा किसी साधना से कम न थी। मैं स्वयं को किसी तपस्वी से कम नहीं मान रहा था। मैंने अपना प्रयास जारी रखा तथा पुनः एक पुराने हिन्दी नग्में की धुन उच्च स्वर में निकालनी शुरु ही की थी मेरी किस्मत जागी, जब खिड़की के दोनों पल्ले पूरी तरह खुल चुके थे और उसमे से तीन-चार चेहरे बाहर झाँकते दिखाई पड़े। शायद वे उसकी सहेली होगी। अन्ततः जीत मेरी जिद की हुई, मैंने कुछ क्षण के लिए अपने हाथों को विराम दिया और खिड़की में उस हुस्नपरी के चेहरे को ढ़ूढ़ने का प्रयास किया जिसकी प्रतीक्षा में चार बजे से यहाँ बैठा था, तभी गुलाब की तरह हंसता हुआ उसका चेहरा दिखाई पड़ा तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। कमरे में लाइट होने के कारण उन सबके चेहरे साफ-साफ दिखाई दे रहे थे किन्तु मेरी उन्हें शायद चाँद की मध्यम रोशनी में छाया ही दिखाई दे रही होगी। फिर जब तक खिड़की खुली रही मेरी ऊँगलियां मुरली पर थिरकती रही। खिड़की बन्द होने पर मैं अपने कमरे में आकर सो गया, खुली आँख से मधुर स्वपन की कल्पना करते-करते न जाने कब मुझे नींद आ गई। 

अगले ही दिन पहली ही मुलाकात पानी के नल पर हुई, जहाँ हम सभी ट्रेनर अपनी-अपनी बाल्टियाँ लेकर अपनी बारी आने का इन्तजार करते थे। जैसे ही उसकी नजर मुझ पर पड़ी तुरन्त उसने आँखें झुका ली। उसके चेहरे पर एक अजीब सी हिचकिचाहट थी। फिर कभी क्लास में या शाम को घूमने जाते हुए या फिर नल पर मेरी नजर उससे चार होती तो वह एक दम नजरें झुका लेती। कई दिन तक यह सिलसिला चलता रहा। उसकी सहेलियों को भी यह मालूम हो गया कि मैं उसके पीछे कुछ ज्यादा ही दीवाना हो रहा हूँ। 

एक दिन कैंप में बुखार होने के कारण वह दो दिन के लिए छुट्टी लेकर अपने घर चली गई। कैंप का नियम था कि आवश्यकता पड़ने पर कोई भी प्रतिभागी दो दिन के लिए अवकाश ले सकता था किंतु जब वह दो दिन पूरे होने पर भी कैंप में नहीं आई तो मन बहुत उदास हुआ। पता लगा कि तीसरे दिन कैंप में उसके पापा का फोन आया कि वह तेज बुखार से पीड़ित है तो कैंप में नहीं आ पायेगी। जब यह खबर उसकी सहेलियों के माध्यम से मुझे मिली तो मुझे लगा कि जैसे मेरा मन उसके दुःख के कारण तड़फ रहा हो, उससे मिलने को तरस रहा हो। मैं उससे मिलने के लिए बेचैन सा होने लगा। अगले दिन अवकाश लेकर मुझे भी घर जाना था तो उसकी सहेली मुझे बोली –

सुनिये!

मैंने कहा – बोलिए…

आप घर जा रहे है ना

जा तो रहा हूँ, बोलिए…

आप जाते हुए अम्बाला में शालू की तबीयत का पता करते हुए भी निकल जाना।

अन्धे को क्या चाहिए दो आँखें। मैं तो यही चाह रहा था कि कोई अवसर मिले कि मैं उसकी जीती जागती तस्वीर निकटता से देख सकूँ। मैंने अनजान से होते हुए कहा-

किन्तु मैं तो उसका घर नहीं जानता…

(कुछ लिखते हुए) ये लो घर का पता 

(मेरी खुशी का ठिकाना न था, मैं सोच रहा था कि यहाँ तो वो सबके सामने बोलने की हिम्मत नहीं करती किन्तु घर तो खूब खुलकर बोलेगी और कुछ पूछेगी कुछ बतलाएगी।)

उसकी सहेली ने शालू का पता पकड़ाते हुए कहा- हां ये कुछ सामान भी है उसी को पकड़ा देना।  

मैंने सामान और पता लिया तथा अपनी खुशी को सम्भालता हुआ घर के लिए रवाना हो गया।

जब मैं बस में बैठा तो नीचे उसकी सहेलियां खड़ी मुस्करा रही थी शायद वे मुझसे अर्थात् मेरे प्रेम से सहानुभूति रखती हो। तभी सामान देकर भेजा कि कोई दिक्कत न आए। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझकर शालू के बारे में सोचने लगा। बस गंतव्य की ओर जिस गति से बढ़ी जा रही थी, उसी गति से मेरे मन में विचार कौन्धने लगे कि जब मैं उसके घर जाउंगा तो क्या कहकर उसका सामना करूँगा। यदि द्वार खोलने उसका भाई आया तो क्या कहूँगा और यदि पापा हुए तो क्या बोलूँगा कि मुझे किसने भेजा है और यदि स्वयं शालू आ गई तो…अरे बाप रे! क्या बोलूँगा कि मैं उसके घर पर क्या करने आया हूँ, मैं क्यों...किसने...कैसे...क्या कहूँगा? जब तक सारी बात बताने का प्रयास करूँगा तो हो सकता है कि वह पहले ही मुझ पर बिगड़ जाये। यह सोचकर घबराहट से शरीर के रोंगटे तन गये। मैं कुछ और सोचने का सिलसिला आगे बढ़ाता तब तक बस अम्बाला पहूँच गई। मैंने बिना देर किये रिक्शा ली और दिए गये पते पर पहूँच गया। पते के अनुसार जिस घर में मुझे दस्तक देनी थी वहां घर के सामने बने पार्क में वही अधेड़ उम्र का व्यक्ति चहलकदमी कर रहा था जिसके साथ पहली बार मैंने अपनी सपनों की राजकुमारी को देखा था। मुझे समझते देर न लगी कि यह उसके पापा है। मैंने हिम्मत करके आगे बढ़ते हुए प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद दिया और गौर से मुझे देखने लगे। शायद वे मुझे पहचानने का प्रयास कर रहे थे फिर उन्होंने पूछ ही लिया-

किससे मिलना है बेटे?

पहला प्रश्न ही उलझाने वाला था। मैंने हिम्मत जुटाकर आने का कारण और अपना परिचय दिया तो वे बड़े आदर के साथ मुझे घर के अन्दर ले गये। उसकी छोटी बहन पानी लेकर आई और पापा उसे बुलाने चले गए शायद वह रसोई में खाना बना रही थी। कुछ ही देर में उसकी मम्मी कॉफी लेकर आये तथा बातचीत करने लगे। समय बढ़ता जा रहा था और मैं भी यही चाह रहा था कि समय यूँ ही बढ़ता जाये ताकि मुझे शालू के घर ही रुकने का अवसर मिले। मुझे लग रहा था कि कहीं मुझसे हालचाल पूछकर तथा सामान आदि लेकर शीघ्र ही चलता ना कर दें। सर्द ऋतु की हल्की-हल्की ठंडक अपना प्रभाव बढ़ा रही थी। मेरा मन था कि जब शालू आएगी और मैं उसे राजी खुशी पूछकर जाने के लिए कहूँगा तो आगे बढ़कर मुझे कहे कि अब इतनी देर हो गई है, कहाँ जाओगे? यही ठहरो सुबह जाना। और मैं उसके हाथों बना खाना खा कर फिर उसके साथ ढ़ेरों बातें करूँ और अपनापन का रिश्ता बना लूँ। मैं सोच ही रहा था कि तभी रिलैक्श ड्रैस में शालू अन्दर आई। मुझे देखते ही सकपका गई। शायद उसने सोचा भी नहीं होगा कि कोई आने वाला व्यक्ति मैं हो सकता हूँ। वह भी इस वक्त, इतनी देर से। मैंने उसकी मनोदशा को भाँप कर हिम्मत करते हुए पूछा-

तबियत कैसी है अब?

अब तो ठीक हूँ।

क्या हो गया था?

वैसे ही बस।

आपकी सहेलियाँ बहुत परेशान है आपकी सहेत को लेकर।

नहीं ऐसी चिंता की तो कोई बात नहीं है। 

फिर मैंने उसकी सहेलियों के द्वारा सामान व कुछ पुस्तकें उसके सुपुर्द की और चलने का अभिनय किया-

अच्छा जी! मैं चलता हूँ।

तभी उसके पापा बोले- नहीं बेटा अब रात को कहाँ जाओगे, खाना खाओ और आराम करो, सुबह चले जाना। 

मैं तो यही चाहता था किन्तु उनको मेरी योजना का भान न हो अतः मैंने फिर कहा-

नहीं अंकल जी बस तो मिल ही जाएगी, मैं चला जाउँगा।

उसके पापा ने मेरा बैग पकड़ते हुए कहा-

कहाँ रात को परेशान होते फिरोगे, सुबह चले जाना, चलो बैग रखो और खाना खाकर आराम करो।

इस बार मैं भी चुप रह गया कि कहीं एक बार फिर कहने से ये भी बोल दे चलो तुम्हारी मर्जी। अतः मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा।

कुछ देर बाद उसकी छोटी बहन खाना लेकर आई। खाना खाकर अकंल के साथ सैर करते हुए कुछ इधर-उधर की बातें की और फिर मेरा बिस्तर लगा दिया गया। मैं सोच रहा था कि शायद खाना खाने के बाद वह मेरे पास अपनी सहेलियों के बहाने से जरूर आएगी किन्तु वह नहीं आई और मैं सारी रात अनिश्चतता की जिन्दगी के सपने देखते-देखते सो गया। 

सुबह उठकर नहा धोकर नाश्ता पानी किया तो एक बार फिर शालू नहाकर आते हुए मेरे सामने थी। नहाने के बाद उसका चेहरा गुलाब की भाँति खिल उठा था और उसकी जुल्फों की लटाएं उसके गालों पर लटकी हुई फूल पर भंवरे सी मंडराती हुई प्रतीत हो रही थी, उसकी आँखों में गजब का आग्रह था मानो मुझे अपनी ओर बुला रही हो, उसके कंपकंपाते गुलाबी होठ जैसे कुछ कहने का असफल प्रयास कर रहे हो। मैं उसके इस निखरे हुए रूप सौदंर्य को जी भर कर देखना चाहता था परन्तु वह मुझे देखकर दो पल के लिए रुकी फिर कन्धे से अपना तोलिया सम्भालते हुए अपने कक्ष की ओर चली गई। वह तो चली गई किन्तु मैं तो जैसे जड़ हो गया था मैं अभी भी उसके सौन्दर्य के समुंद्र में गोते मार रहा था। तभी उसकी मम्मी बोली-

बेटे! लो, कॉफी ले लो…

हड़बड़ाते हुए हाँ ऑटी जी और मैं कॉफी पीने के बाद चलने की तैयारी करने लगा। उसके घर वालों से विदाई लेकर मैं बसस्टैण्ड़ आ गया। मैं यह सोचकर आया था कि क्लास में तो अन्य विद्यार्थियों के कारण  वह दूरी बनाए रखती है अतः घर में तो खुलकर बातचीत कर सकेगी किन्तु उसने घर में भी कोई खास बातचीत न की। भारी मन से मैं अपने घर के लिए बस में बैठ गया। फिर मन  में अनेक प्रश्न उठते रहे कि कहीं वह मुझसे जानबूझकर तो दूर नहीं रहती या फिर कहीं वह कहीं ओर तो… तभी प्यासा मन कह उठता नहीं-नहीं बेचारी शाँत स्वभाव की है इसलिए बात करने में झिझकती है। 

अगले दिन जब मैं वापिस एडवेंचर कैंप में आया तो मुझे पता चला कि वह भी अपने पापा के साथ आई है। मैंने वहाँ पहाड़ों में स्थित देवी माँ के मंदिर में माँ से मन्नत माँगी थी कि जब वह ठीक होकर कैंप में आ जाएगी तो मैं पैदल ही सोलह किलो मीटर चलकर माता के दर्शन कर प्रसाद बांटूँगा और मैं अपने वायदे के अनुसार अपने दोस्त को लेकर माँ के दरबार में खड़ी चढ़ाई चढ़कर प्रसाद बाँटने गया। 

सर्द ऋतु में शिवालिक की पहाड़ियों की सुन्दरता कुछ अलग ही छटा बिखेरती दिखाई देती थी। दिनभर की ट्रेनिंग के बाद शाम को दो-चार घण्टों के लिए सभी लड़के-लड़कियाँ टहलने के लिए समूह बनाकर पहाड़ियों की गोद में आन्नद के कुछ क्षण बटोरने जाते थे। जो खुले मन के लड़के-लड़की थे वे आपस में खूब मजाक व खुली बातें करते थे। मैं कभी भी किसी से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। जब किसी के प्यार-व्यार के किस्से सुनते तो लगता कि ये सब पागल है जो बेकार की बातों में अपना समय व्यर्थ गंवाते है किन्तु अब अपने ऊपर बीती तो पता लगा कि ये ईश्क तो सभी का बुरा हाल करता है। कई बार पीछे मुड़कर देखता तो बड़ा आश्चर्य होता कि हम कहाँ खड़े है। किधर जा रहे है? कॉलेज से आए थे एडवेंचर कैंप में भाग लेने के लिए तथा ट्रैकिंग , रोपिंग , क्लाइबिंग, नदी पार करने आदि की ट्रेनिंग लेने के लिए किन्तु यहाँ तो कोई ओर ही ट्रेनिंग चल रही थी। कई बार मस्तिष्क को समझाने का असफल प्रयास किया किन्तु मस्तिष्त पर तो बेलगाम मन हावी हो जाता था, हाल ये था कि ज्यों जयों दवा की मर्ज बढ़ता गया। 

प्रतिदिन सुबह उठते ही उसकी शाँत-सौम्य सूरत देखने की कसक रहती जो नल पर पानी भरते हुए पूरी हो जाती। फिर ट्रेनिंग में तथा शाम को घूमने के बहाने दिन में कई बार दर्शन हो जाते किन्तु  मन की प्यास बढ़ती ही जाती मन करता कि बस उसके सामने ही बैठा रहूँ। 

एक दिन हिम्मत करके मैं अपने दोस्त के साथ उससे दिल की बात करने उसके पास गया। लड़कियों की ठहरने की व्यवस्था तो अलग से थी किंतु भोजन की व्यवस्था सबकी एक ही स्थान पर थी। भोजन के समय हिम्मत करके जैसे ही हम उसकी टेबल के पास गये तो वह हमे अपने पास देखकर ठिठक सी गई। वह अपनी सहेली सूरज कौर को एक टक देखती रही।

उसकी सहेली बोली- आओ बैठो, बैठो ना…

नहीं नहीं बस! हम तो भोजन करके जा रहे थे बस यूँ ही….

सहेली ने फिर आग्रह किया शायद वह मुझसे थोड़ी बहुत सहानुभूति रखती थी किन्तु हमने फिर वहां रुकना ठीक न समझा और वापिस आ गए।

अवसर मिलते ही जब भी मैं शालू को अपने मन की बात कहने का प्रयास करता तभी उसकी सहेली उसके आस-पास मंडराने लगती। जब कभी अकेले मिल जाती तो मेरी बात करने की हिम्मत न होती तो कभी हिम्मत करता तो वह अनदेखा कर सीधी आगे निकल जाती। यूँ ही एक- एक दिन बीतता जा रहा था। कहते है कि ईश्क-मुश्क छुपाये नहीं छुपते अतः एक दिन उसकी सहेली बोली कि आप क्यों उसके चक्कर में अपना समय खराब कर रहे हो, वह किसी ओर से प्रेम करती है और वह लड़का एक बार यहाँ कैैंप में भी उससे मिलने आ चुका है। सहेली की बात सुनकर मुझे झटका सा लगा किंतु सच्चाई भी लगी क्योंकि उसने एक बार भी मुझसे बात करने की कोशिश नहीं की। मन में बहुत निराशा हुई कि मैं वैसे ही रात-दिन उसके नाम की माला जपता हूँ और वह कहीं ओर…किन्तु मन यह मानने को तैयार नहीं होता कि वह मेरे सिवाय किसी और के बारे में सोचती भी हो। वह मुझे ही चाहती है, बात करने का क्या वह तो कोई भी किसी से कर सकता है। मेरा एक तरफा प्रेम मेरे सिर चढ़कर बोल रहा था।

शालू का चाहने वाला लड़का पम्मी एक बार फिर कैंप में उससे मिलने आया। कैंप के लड़कों द्वारा पूछने पर वह उनसे झगड़ने लगा। उसके साथ दो-तीन साथी ओर थे।वे कैंप इंस्ट्रक्टर के सामने ही कैंप के लड़कों से मार-पीट करने लगे। पम्मी के लिए मेरे दिल में शायद किसी कोने में नफरत पैदा हो चुकी थी। मुझे लगता था कि वह मेरे प्यार को मुझसे छिनना चाहता है,अतः मैं मन ही मन उससे ईर्ष्या करता था, अब अपनी भड़ास निकालने का मुझे अवसर मिला था तो मैं कैसे पीछे रहता, मैंने उसे पकड़कर लात-घूसों से उसकी जमकर ठुकाई शुरु कर दी तो उसके बाकि दोस्त भाग खड़े हुए। तभी ट्रेनिंग क्लास में खलबली सी मच गई। पानी लाओ-पानी लाओ, जल्दी पानी लाओ, इंस्ट्रक्टर ने जोर से कहा। मैं भी पम्मी को उसके हाल पर छोड़कर देखने भागा कि क्या हुआ जो बार-बार पानी मंगवाने की बात हो रही है। देखा तो कई सारी लड़कियों के बीच शालू बेहोश पड़ी थी। पूछने पर उसकी सहेली ने बताया कि पम्मी की पिटाई देखकर यह सहन न कर सकी और बेहोश हो गई। एक ने पीछे से कटाक्ष किया कि सहन भी कैसे करती प्रेमी की पिटाई जो हो रही थी। यह सुनकर मैं सन्न खड़ा रह गया, मेरी आँख पत्थर सी हो गई, मेरा रक्त संचार मानो बंद हो गया हो। प्रतिक्रिया सुनते ही मानो मेरा शरीर टूट सा गया हो। मेरी हालत उस मजदूर की भाँति थी जिसने सारा दिन मेहनत की हो किन्तु फिर भी उसे मजदूरी से वंचित रखा गया हो, मुझे लगा कि हंस की भाँति किसी ने मेरे पर काट दिए हो। मैं सोचता रहा कि जिसे मैंने देवी की तरह पूजा, जिसके प्यार में मैं रात-रातभर सो न सका, जिसके लिए मैं कुछ भी करने को तैयार रहता था, उसके दिल में कोई और है। यह कैसे हो सकता है, दिल ने कहा यह नहीं हो सकता,यह धोखा है, मुझे छला गया है परन्तु बुद्धि ने कहा- नहीं रे पगले! यह एक तरफा प्यार था, फिर यह रथ एक पहिए पर कितनी दूर चलता। 

तभी एक साथी ने मुझसे कहा - चलो यार सभी चले गए। छुट्टी हो गई है, तुम अकेले यहाँ क्या कर रहे हो? 

मेरी तंद्रा भंग हुई,मानो लम्बी निद्रा से जगा था। सभी विद्यार्थी जा चुके थे। दिल ने बुद्धि की बात स्वीकारी। 

हाँ यह प्यार पवित्र तो था किन्तु यह एक तरफा था।

लेखक / स्तंभकार : 

डॉ उमेश प्रताप वत्स

umeshpvats@gmail.com

#14 शिवदयाल पुरी, निकट आइटीआइ

यमुनानगर, हरियाणा - 135001

9416966424



हरियाणवी राज्य-गीत

 हरियाणवी राज्य-गीत

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 


हिंदुस्थान का सबतै प्यारा, हरि का सै हरियाणा।

सब राज्यों में सबतै आगै , सै म्हारा हरियाणा ॥

काला तीतर - कमल फूल , अर कुश्ती म्हारी सिरमौर सै।

वृक्षराज पीपल के ऊपर , पक्षियों का मीठा शोर सै।

राव तुलाराम-हेमू नै इसको , जान तै ज्यादा माना ।

सब राज्यों में सबतै आगै , सै म्हारा हरियाणा ॥

भोर-सवेरे ढाणी के माह , रोज दूध बिलोवै ताई ।

गेहूँ-बाजरा-धान फसल , सब खुशियाँ लेकर आई।

अंत्योदय की योजना से, 

हर गरीब हुआ सयाना।

सब राज्यों में सबतै आगै , सै म्हारा हरियाणा ॥

आयुष्मान और क्रेडिट कार्ड तै, 

जीवन बदलता जावै।

वृद्धा पेंशन सब परिवारों में , बुजुर्गों का मान बढावै।

म्हारे राज्य की रीढ़ किसान सै , 

इसका सम्मान बढ़ाना ।

सब राज्यों में सबतै आगै , सै म्हारा हरियाणा ॥

सुंदर पार्क, योग, स्टेडियम, स्वास्थ्य के गीत बजावै सै।

कैसे स्वस्थ होगा हरियाणा , मनोहर बात बतावै सै।

खेलों कुश्ती और कबड्डी , विश्व में डंका बजाना ।

सब राज्यों में सबतै आगै , सै म्हारा हरियाणा ॥

जय जवान और जय किसान, 

और जय विज्ञान का नारा।

हर घर तै निकलै फौजी,

और म्हारा चौधरी न्यारा ।

अरावली, शिवालिक पर्वत, शृंखला से इसको पहचाना। 

सब राज्यों में सबतै आगै , सै म्हारा हरियाणा ॥

गढ़वाली-पंजाबी-बांगर, पहाड़ी और मेवाती।

हरियाणा के सब प्यारे भाई, एक आवाज ही आती ।

मिलकै करैंगे सारे कारज, नम्बर एक पै ल्याना ।

सब राज्यों में सबतै आगै , सै म्हारा हरियाणा ॥

कवि-

डॉ उमेश प्रताप वत्स 

स्वतंत्र लेखक, स्तंभकार 

9416966424 



आलेख - फिर सक्रीय हो रहा है पुरस्कार लौटाने वाला गैंग

 आलेख - 

फिर सक्रीय हो रहा है पुरस्कार लौटाने वाला गैंग

- डॉ उमेश प्रताप वत्स 

आजकल साहित्यकारों , कलाकारों के बाद पुरस्कार वापिस कराने वाला गैंग खिलाड़ियों के मन-मस्तिष्क तक भी पहुंच गया है । हाल ही में रैसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के चुनाव में फेडरेशन के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण के समर्थकों की अनचाही जीत ने आंदोलनजीवी खिलाड़ियों को मैडल व सम्मान वापिस करने को विवश कर दिया । जबकि चुनाव बिल्कुल एक तरफा परिणाम वाले रहे । भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन वाले पैनल ने फेडरेशन चुनाव में शानदार जीत हासिल की है। बृजभूषण के करीबी संजय सिंह ने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष का पद के चुनाव में अपनी प्रतिद्वंदी अनीता श्योराण को शिकस्त दी थी किंतु देश में 2024 में विपक्ष द्वारा चुनावी गोटियाँ फिट करने के लिए विरोधी माहौल बनाने के लिए अपने वामपंथी योद्धा एवं पुरस्कार लौटाने वाले गैंग को मैदान में पहले ही उतार दिया था जिस कारण महज तीन दिन बाद ही खेल मंत्रालय भारत ने फेडरेशन को निलंबित कर दिया और फेडरेशन के सारे आदेश सारी कार्यवाही सस्पेंड कर दी है ।

पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण के विरुद्ध आंदोलन पर बैठे हुए पहलवानों ने फेडरेशन की नई समिति का काफी विरोध किया था । वहीं दूसरी ओर बृजभूषण और संजय सिंह की पहलवानों को लेकर तीखी प्रतिक्रिया जारी थी, जिससे माहौल के और अधिक संवेदनशील बनने के लक्षण दिखाई देने लगे थे अतः खेल मंत्रालय ने डब्ल्यूएफआई पर बड़ा एक्शन लिया है। उन्होंने भारतीय कुश्ती महासंघ को ही निलंबित कर दिया है।

बेशक रेसलिंग फेडरेशन पर बृजभूषण का वर्चस्व है और उन पर पहलवानों की ओर से विभिन्न आरोप लगे हैं जो कि न्यायालय में विचाराधीन है किंतु अवार्ड वापिस करना कहां तक उचित है । अवार्ड ना ही बृजभूषण की टीम ने दिया और ना ही सरकार ने , इसके लिए तो ज्यूरी नाम तय करती है जो कि अपनी मेहनत के बल पर पहलवानों ने प्राप्त किया है तो फिर अवार्ड वापसी गैंग के हाथों की कठपुतली बनकर क्या दर्शाना चाहते हैं ।

पहले भी सरकार के खिलाफ पुरस्कार लौटाने की परम्परा पर चेतन खूब खुलकर बोले थे । उन्होंने कहा कि अवार्ड लौटाना फैशन सा हो गया है। विदेशी मीडिया अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी बातों से देश की गलत तस्वीर पेश करता है। अवॉर्ड कोई सरकार नहीं बल्कि ज्यूरी तय करती है। जो काम के आधार पर दिया जाता है। काम के लिए मिलने वाला पुरस्कार सम्मान होता है। प्यार से दिया और प्यार से ही लिया तो आखिर प्यार को कोई कैसे लौटा सकता है। अवॉर्ड लौटाना अब फैशन सा हो गया है।

इससे पूर्व भी सरकार पर दबाव बनाने के लिए यहीं पहलवान लॉबी अपने आकाओं के साथ हर की पौड़ी हरिद्वार गंगा में अपने मैडल बहाने गई थी किंतु संतों के विरोध के कारण वापिस आना पड़ा।

देश में पहले भी पुरस्कार लौटाने का मानो सीजन सा चल पड़ा था। कई पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की सोई हुई अंतरआत्मा धीरे-धीरे जागने लगी थी। उन्हें लग रहा था कि देश में इतने ढेर सारे अनर्थ कार्य हो रहे हैं और वे कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं , उसका पुरज़ोर विरोध होना चाहिए। विरोध किस तरह करें, वास्तव में, सभी अपनी पब्लिसिटी चाहते थे उसी समय एक साहित्यकार के दिमाग में विचार आया और उन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया। सभी को पुरस्कार लौटाने वाला तरीका सबसे ज्यादा टीआरपी बटोरने वाला लगा। बस पुरस्कार लौटाने वालों की लाइन लग गई।

कई लोगों ने जब पुरस्कार लौटाने वालों की वाहवाही की तो अन्य और भी लोग उत्साहित हो गए और अपने अवॉर्ड सरकार के मुंह पर दे मारे। इस माहौल को कैश करने के लिए वामपंथी भी सक्रिय हो उठे और आह्वान करने लगे कि बाकी लोग भी पुरस्कार लौटाने वाले क्लब की सदस्यता ग्रहण कर लें। इस तरह के प्रयासों से सम्मान लौटाने के लिए साहित्यकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया गया। नैरेटिव सैट किया गया कि जो पुरस्कार नहीं लौटाएंगे उन्हें सांप्रदायिक कहा जायेगा।  

डॉ. नामवर सिंह के वक्तव्य को नकारा नहीं जा सकता कि महज सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और कलाकार पुरस्कार वापस कर रहे हैं। दरअसल, जब इन लोगों को साहित्य अकादमी या नाटक अकादमी पुरस्कार मिला था, तब किसी को पता ही नहीं चल सका था। अब ये लोग पुरस्कार वापस कर रहे हैं, तो सब लोग जान रहे हैं कि इस आदमी को पुरस्कार मिला था, अब वह उसे वापस कर रहा है। कुछ लोग यह सोच कर सहानुभूति जता रहे हैं कि देश में “खराब हालत” के लिए साहित्यकार-कलाकार अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं।

साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का सिलसिला लेखक उदय प्रकाश से शुरू हुआ। वह अच्छे साहित्यकार के साथ-साथ थोड़े ज़्यादा संवेदनशील थे । उन्होंने फेसबुक वॉल पर लिखा था, "दोस्तो, क्या मुझे हिंदी साहित्य के लिए मिले समस्त पुरस्कारों को लौटा देना चाहिए?  मुझे लगता है, अवश्य! ये जीवन के माथे पर दाग हैं।" यानी पुरस्कार लौटाने का मन उदय प्रकाश ने बहुत पहले बना लिया था। कुलबर्गी की हत्या अच्छा अवसर था। इन सारी बातों से स्पष्ट रहा है कि पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत से और मोदी को वोट करने वाली जनता से ये कलाकार आदि दुखी थे और सरकार के व विरुध्द एकजुट हो रहे हैं। 

जबकि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली के दंगे में लगभग 2800 सिख कत्ल कर दिए गए। सबकी मौत कमोबेश अखलाक जैसी या उससे भी भयानक रहीं। किंतु अखलाक की मौत का बहाना बनाकर अवार्ड लौटाने वाले गैंग ने कभी निर्दोष सिखों की मौत पर अवार्ड वापिस नहीं किया वो अलग बात है कि आज सिख ही अपने हत्यारों को क्षमा कर चुके हैं ।

प्राचीन ग्रंथों में जिक्र आता है कि नर्तकियों के नृत्य से जब राजा खुश होते थे तो नर्तकी को पुरस्कार देते थे। इसी तरह अच्छी ख़बर सुनाने वाले अनुचरों को राजा द्वारा अपना आभूषण उतार कर देने की भी परंपरा रही है। यह परंपरा मध्यकाल में भी चलती रही। सुल्तान किसी की सेवा या स्वामिभक्ति से खुश होने पर उसे पुरस्कार के रूप में सुबेदारी या जागीरदारी दे देता था। यह परंपरा अंग्रेजी शासन में भी जारी रही। अंग्रेज़ अपने भक्त भारतीयों को इनाम के रूप में रायबहादुर या सर की पदवी देते थे। उन्होंने गीताप्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद उर्फ भाई जी को रायबहादुर की पदवी देनी चाही थी, लेकिन भाई जी ने ठुकरा दिया। कि रवींद्रनाथ टेगोर को नाइटहुड दिया तो उन्होंने स्वीकार कर लिया, लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद लौटा दिया था। हालांकि टैगोर पर सवाल उठे थे कि देश पर शासन करने वाले अंग्रेजों का सम्मान स्वीकार ही क्यों किया। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी पहले पद्मश्री लिया फिर आपातकाल और सरकारी दमन के विरोध में पुरस्कार लौटा दिया था। लेखक खुशवंत सिंह ने भी इंदिरा गांधी के दौर में 1974 पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया। उन्होंने अमृतसर स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश के विरोध में 1984 में इसे लौटा दिया था। जब जरनैल सिंह भिंडरवाला स्वर्ण मंदिर जैसे पवित्र जगह से आतंकवादी गतिविधियों का संचालन कर रहा था, तब खुशवंत आहत नहीं हुए, लेकिन स्वर्ण मंदिर को आतंकियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए जवान घुसे तो खुशवंत सिंह आहत हो गए।

आज भी कई पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की सोई हुई अंतरआत्मा धीरे-धीरे जाग रही है। 2024 के आते-आते इनकी संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाये तो आश्चर्य नहीं । ये कभी किसानों के नाम पर , कभी मजदूरों के नाम पर ,कभी मंहगाई के नाम पर इस तरह के नाटक दोहराते रहेंगे। पुरस्कार लौटाने के बाद इनकी सारी सुविधाएं समाप्त हो जानी चाहिए और यदि इतने ही खुद्दार हो तो दी गयी नगद धन राशि भी ब्याज सहित लौटानी चाहिए। जब तुम इतने आदर्शवादी हो तो कोई पुरस्कार लेना ही नहीं चाहिए, क्योंकि पुरस्कार देने वाली कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी पाक-साफ नहीं होती। ऐसी सरकार या पॉलिटिकल पार्टी से पुरस्कार लेने का मतलब उसकी नीतियों का समर्थन करना होता है। बाद में सम्मान लौटाने का राजनैतिक षड्यंत्र तुम्हें क्षणिक लाभ तो दे जायेगा किंतु भविष्य में सिवाय पश्चाताप के कुछ हासिल नहीं होगा।

स्तंभकार -

डॉ उमेश प्रताप वत्स 

प्रसिद्ध लेखक व विचारक है

umeshpvats@gmail.com 

9416966424 

यमुनानगर , हरियाणा