रविवार, 7 नवंबर 2010

देखो कश्मीर सुलग रहा है।

‘‘ सुलगता कश्मीर ’’

है विडम्बना ये भारत की,

देखो कश्मीर सुलग रहा है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।

कितने महापुरूषो ने स्वयं को,

बलिवेदी पर चढा दिया।

कश्मीरी संस्कृति बची रहे,

इस हेतु जन-जन खडा किया।।

द्यूत-क्रीडा के दंगल मे ,

फिर से शकुनि विजयी हुआ है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।1।।

हरिसिंह संग कबीला युद्ध मे,

हैलीपैड बना डाले।

उत्साहवर्धन से सेना बोली,

ये तो है कोई संघ वाले।।

सारे प्रयत्न ध्वस्त हुए,

जब सरदार पटेल को रोक दिया।

अन्तर्राष्ट्रीय झगडा है ये,

अमरीका को बोल दिया।।

कैसे माने चाचा उनको,

शत्रुओं सा व्यवहार किया है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।2।।

बीती यादे छा जाती ,

कश्मीर वादियों की मन मे।

शांत हिमालय की चोटी,

खडे देवदार वन-वन मे।।

रामबन और बनिहाल,

मंदिरो की यादे कण-कण मे।

वो कश्मीरी अल्हडपन यौवन,

सिरहन सी उठ जाती तन मे।।

शंकराचार्य का शिवालय,

डलझील-केशर बर्बाद हुआ है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।3।।

कर डाली जो भूले उनमे,

अब तो कुछ सुधार करो।

भारत माता के गुनाहगारो का,

कोई तो उपचार करो।।

संसद मे बैठे भेडियो का,

मिलकर साक्षात्कार करो।

अरूंधती, जिलानी, मुफ्ती के,

पक्षकारो का बहिष्कार करो।।

प्रचण्ड विरोध हो देशद्रोहियो का,

व्यक्ति-व्यक्ति खडा हुआ है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।4।।

‘‘ सुलगता कश्मीर ’’

22. ‘‘ सुलगता कश्मीर ’’

है विडम्बना ये भारत की,

देखो कश्मीर सुलग रहा है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।

कितने महापुरूषो ने स्वयं को,

बलिवेदी पर चढा दिया।

कश्मीरी संस्कृति बची रहे,

इस हेतु जन-जन खडा किया।।

द्यूत-क्रीडा के दंगल मे ,

फिर से शकुनि विजयी हुआ है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।1।।

हरिसिंह संग कबीला युद्ध मे,

हैलीपैड बना डाले।

उत्साहवर्धन से सेना बोली,

ये तो है कोई संघ वाले।।

सारे प्रयत्न ध्वस्त हुए,

जब सरदार पटेल को रोक दिया।

अन्तर्राष्ट्रीय झगडा है ये,

अमरीका को बोल दिया।।

कैसे माने चाचा उनको,

शत्रुओं सा व्यवहार किया है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।2।।

बीती यादे छा जाती ,

कश्मीर वादियों की मन मे।

शांत हिमालय की चोटी,

खडे देवदार वन-वन मे।।

रामबन और बनिहाल,

मंदिरो की यादे कण-कण मे।

वो कश्मीरी अल्हडपन यौवन,

सिरहन सी उठ जाती तन मे।।

शंकराचार्य का शिवलाय,

डलझील-केशर बर्बाद हुआ है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।3।।

कर डाली जो भूले उनमे,

अब तो कुछ सुधार करो।

भारत माता के गुनाहगारो का,

कोई तो उपचार करो।।

संसद मे बैठे भेडियो का,

मिलकर साक्षात्कार करो।

अरूंधती, जिलानी, मुफ्ती के,

पक्षकारो का बहिष्कार करो।।

प्रचण्ड विरोध हो देशद्रोहियो का,

व्यक्ति-व्यक्ति खडा हुआ है।

ठोस नीति के अभाव मे,

भारत मे ही अलग रहा है ।।4।।

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

कश्मीर हमारा शीश है जो कभी धड़ से अलग नही हो सकता।

श्री उमेश प्रताप वत्स ने कश्मीर मुद्दे पर हो रही बेतुकी ब्यानबाजी पर मुखर होते हुए कहा कि वार्ताकारो एवं सिरफिरे लोगो द्वारा देश को खंड-खंड करने के देशद्रोही ब्यान देना तुरंत बंद कर देना चाहिए अन्यथा देश छोडकर चला जाना चाहिए। श्री वत्स ने कहा कि कश्मीर कोई हमारा मुकुट नही जिसे किसी भी सिर पर रख दिया जाये, कश्मीर हमारा शीश है जो कभी धड़ से अलग नही हो सकता। भारत की संस्कृति को सदैव तार-तार कर देने वाली लेखिका अंरूधती राय व जिलानी के ब्यानो को केन्द्र सरकार हल्के मे न लेकर उन्हे तुरंत प्रभाव से गिरफ्तार करे, अन्यथा सारे देश मे जबरदस्त आन्दोलन खडा किया जायेगा। ये दुष्ट लोग देश की संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहे है। इस बार मामला देश के भू-भाग का है अतः जनमानस इन्हे किसी भी तरह क्षमा नही कर सकता। यमुनानगर की जनता भी बाकि देश की तरह ही स्वयं को ठगा सा महसूस कर रही है । कश्मीर केवल कश्मीरी पण्डितो का नही अपितु सारे देश का है। श्री वत्स ने बताया कश्मीर कोई 1947 से भारत का हिस्सा नही अपितु हजारो वर्षो पूर्व निमित्त पुराण मे भी भारत का अंग दर्शाया गया है तथा महाभारत काल मे श्री कृष्ण भगवान ने राजा की मृत्यु पश्चात रानी यशोमती को सिंहासन पर बैठाया था। कश्मीर हमारा था, हमारा है, और हमारा ही रहेगा। लेखक को कलम की स्वतन्त्रता का अर्थ यह नही समझना चाहिए कि वह देशद्रोह करने को भी स्वतन्त्र है।सारा देश चाहता है कि अरून्धती राय व जिलानी को शीघ्र गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए।

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

हुँकार भरो’’

21 ‘‘स्वरचित कविता- हुँकार भरो’’

योग ऋषि हुँकार भरो ,

यह जग तुम्हारा ऋणी रहेगा।

जात-पात का भेद मिटाकर,

गंगा-सा साथ बहेगा।।

तुम योग की प्रत्यञ्चा पर,

अग्नि बाण चढा देना ।

इस धर्मयुद्ध मे एक नही ,

सम्पूर्ण विश्व साथ रहेगा।।

तुमने पतवार संभाली है,

भीष्ण समुद्री तुफानो में।

अब रूकना नही बढते जाना,

हर मानव अपना शीश धरेगा।।

योग का शंख बजा डाला,

गॉव-गॉव और नगर-नगर मे।

कतारबद्ध हो हर व्यक्ति,

अब राष्ट्र का निर्माण करेगा।।

भ्रष्टाचार के विरोध मे तुमने ,

पाञ्चजन्य उठा लिया है।

इस महासमर मे भारत माता,

का भरपूर विश्वास जगेगा।।

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

खिलाडियों की बल्ले-बल्ले बाकि सब थल्ले-थल्ले

खिलाडियों की बल्ले-बल्ले बाकि सब थल्ले-थल्ले

19वें राष्टमंडल खेल मिलीजुली प्रतिक्रिया के साथ समपन्न हो गए। ये खेल भारतीय खिलाडियों के लिए शिवशंकर भोले बाबा बन कर आये है जो खिलाडियों से शीघ्र प्रसन्न होकर वरदानों की बरसात कर रहे है। स्वर्णविजेता को मिलेंगे सात लाख , कम है तो चलो 15 लाख देंगे। अभी भी सन्तुष्ट नही हो चलो फिर 25 लाख दे देंगे। दे तो ज्यादा भी देते किन्तु आप शिवशंकर का स्वभाव तो जानते ही है वे राक्षस जाति को भी तो अनदेखा नही कर सकते, अब अगर वे अपने वरदान की रक्षा करने के लिए नेताओं की जेबे अधिक ढीली करवा देंगे तो अन्याय होगा। अब शिवशंकर सबके प्यारे भोले बाबा जो ठहरे, नापतोल कर सभी का ध्यान रखते है , तभी तो कलमाडी साहब की सभी गलतियां क्षमा कर यशस्वी होने का वरदान दे ही डाला, दे भी क्यों ना ! जब भस्मासुर की सभी उदण्डता भूलकर परमशक्तिशाली होने का वरदान दे सकते है, लालू को भैंसो का चारा खाने के बावजूद कुर्सी पर विराजमान होने का वरदान दे सकते है, मुलायम को राष्ट्र संस्कृति का भक्षक होने के बाद भी राष्ट्र रक्षक अर्थात् रक्षामंत्री होने का वरदान दे सकते है, मायावती को माया की सेज पर सोने का, रावणविलास पासवान को कोचवान से कोयले की खान व थाली के बैंगन की तरह लुढकते रहने का, राहुल को राहू की तरह हर कार्य मे टाँग अडाने का वरदान दे सकते है तो अपने दाढी वाले कलमाडी को (जो कल भी माडा था आज भी माडा ही है) यशस्वी होने का वरदान क्यों नही दे सकते? अन्ततः सभी मानव, राक्षस, भूत, पिशाच्, तांत्रिक है तो शिव की प्रजा ही। ओर जब शिवशंकर भाँग पीकर मूड मे और प्रसन्नावस्था मे है तो लगे हाथ मैं भी एक वरदान माँग ही लूं। हे! शिवशंकर आप बहुत भोले हो। भोला तो मैं भी हूँ तभी तो देश को चलाने का दावा करने वाले मुझे चलाकर अपना चक्कर चला रहे है। किन्तु मेरी परेशानी का कारण है कि ये आपको भी चला देते है। अतः इन्हे एक विशेष बुद्धि वरदान मे दो कि ये खिलाडियों की नींव की ओर ध्यान दें। जबकि ये तो खिलाडियों के मेहनत-पसीने द्वारा प्राप्त प्रतिष्ठा को मंजिल पर पहुंचने के बाद ही अपनी माया की चादर से हवा देते है किन्तु जब वे मंजिल तक पहुंचने के लिए खून-पसीना बहा रहे होते है तो ये एक निवाला भी उसके मुख तक जाने नही देते। देश के कितने ही खिलाडी चूँ-चूँ करती पुरानी साईकिल पर घर से 10-15 कि.मी. दूर अथक मेहनत और अभ्यास करते है, थकावट दूर करने के लिए एक कप चाय दो रोटी का सहारा लेते है। कभी-कभी भाग्यवश कही से पानी मे लस्सी वाला कलयुगी गिलास मिल जाये तो ओर बात है। ऊपर से घरवालो के ताने...."काम का न काज का दुश्मन सौ मन अनाज का" यदि शादीशुदा है तो घरवाली खेल को अपनी सौत मानकर पति को सदैव खेल से दूर रखने का ही प्रयत्न करती है। किन्तु फिर भी मेरे देश का खिलाडी शिवाजी और प्रताप की तरह दृढनिश्चयी होकर लगा रहता है। सर्दी हो या गर्मी, वर्षा हो या धुंध वो तो चूँ-चूँ करती साईकिल पर प्रतिदिन जाकर अभ्यास करता है। बेशक उसके कपडे व जूते फटे हो, स्टेडियम के स्थान पर खेत का गौहर हो, वह तो आर्थिक, सिफारिश, भूख और बीमारी के थपेडों को सहते हुए मौन तपस्वी की भांति मंजिल की ओर बढता ही जाता है। यदि आप द्वारा वरदान मे इन महिषासुरों को परहित हेतु विषेश बुद्धि मिल जाए और माया की चादर का एक टुकडा अर्थात बाद में दी जाने वाली राशि का 10% भी इन तपस्वी खिलाडियों को नींव-निर्माण के समय मिल जाये तो राष्ट्रमंडल खेल क्या ओलम्पिक मे भी तिरंगा ही तिरंगा दिखाई देगा।

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

स्व-रचित- रागनी--‘मत ना करियो दारू का संग’

स्व-रचित- रागनी--मत ना करियो दारू का संग

मत ना करियो दारू का संग, इसमें ही समझदारी।

ना तै एक-एक करकै, सबकी मरन की आवै बारी ।।

यूं तो गुटखा पान तम्बाखू,सब है महामारी।

दारू पीकै आपा खोवै,भाजती हाण्डै नारी।।

बालक रोवै और चिल्लावै,म्हारी माँ क्यूं मारी।

जालिम मानस खाणी तनै,क्यूं लागै इतनी प्यारी।।

रै छोड दै बापू इस दारू नै, सुनलै बात हमारी।

ना तै एक-एक करकै, सबकी मरन की आवै बारी..।1।

इसनै रोकण खातिर भाईयां, कई संस्था आगै आई।

रैडक्रास नै अभियान चलाया,डी.सी. नै मोहर लगाई।।

बारी-बारी ट्रनिंग देवै, इब भी समझ लै मेरे भाई।

दारू पीकै ना गृहस्थी मै, आग लगावै भाई।।

छोड डंकनी नै दूर भगादे, ये बात मान लै म्हारी।

ना तै एक-एक करकै, सबकी मरन की आवै बारी..।2।

बाबा रामदेव बतावै , दारू घणी कसूत सै ।

गली-नालियां मै गिरते हाण्डै,थारे सामनै सबूत सै।।

फेफडे खत्म लीवर भी जावै, बिस्तर पै करै मूत सै।

धक्के मारै घर तै काढै, सारे कह कपूत सै।।

कह उमेश बात मानले, इसमे ही समझदारी ।

ना तै एक-एक करकै, सबकी मरन की आवै बारी..।3।

मत ना करियो दारू का संग इसमें ही समझदारी।

ना तै एक-एक करकै, सबकी मरन की आवै बारी-2

शनिवार, 14 अगस्त 2010

स्व-रचित कविता -‘भौतिकवादी मानव’

मानव तेरे जीवन मूल्य, किस ओर जा रहे हैं।
भौतिकता के रास्ते ही, बस तुझको भा रहे हैं।।
जगकर प्रातः वन्दना छोड़, तूने चाय सम्भाली है।
भजनों को छोड पॉप सॉंग की, बुरी आदत पाली है।।
माँ-बाप का हाल न जाना, अपना जीवन निहाल किया।
पैसों की खातिर तूने उनका, बार-बार अपमान किया।।१।।
बच्चे मम्मी-पापा बोले, तू फूले नहीं समाता है।
माँ-बाप के बुलाने पर भी, पास कभी न जाता है।।
नौ-महीने गर्भ में तुझको, फूलों सा है प्यार दिया।
तेरे और पत्नी के तानों ने, उनका जीवन बेहाल किया।।२।।
बदल दिए सब अस्त्र-वस्त्र, पश्चिम हवा के झोके से।
भाषा बदली चेहरा बदला, बदला अपनों को धोखे से।।
तीज-त्यौहार के तौर-तरीके, बह गए मयखाने में।
भाई-बहन का किया काम तो, लगा एहसान जताने में।।३।।
बेजान-बेसहारा, सूरदास कोई, देख तुझे दया न आती है।
घायलों को देख निकल जाना, क्या यही तुम्हारी थाती है।।
बस गिरे चाहे रेल भिड़ें पर, तेरा जीवन पटरी पर ठीक चले।
किसी के दुःख-सुख में साथ नहीं, फिर भी बनते हो सबसे भले।।४।।
जिनसे शिक्षा - दीक्षा ली, उन गुरुओं का मान नहीं भाया।
कभी धर्म-कर्म में लगा नहीं, सुख-सुविधा देख के मुस्काया।।
कहीं बम गिरे कोई डूब मरे, तुझको फर्क नहीं पडता।
केवल बच्चों की खातिर तू , दुनिया से लड़ता-फिरता।।५।।
अब भी वक्त सम्भल जा प्यारे,माँ-बाप सा कोई भगवान नहीं।
सेवाकर उनका मान करे जो , उस जैसा कोई इन्सान नहीं।।
दया-धर्म और परोपकार से, तुम भी तो अनजान नहीं।
सुबह का भटका रात को आए, तो जग में अपमान नहीं।।६।।

बुधवार, 5 मई 2010

‘माँ का दर्द’

और कितना तू सहेगी अपने, सीने पर दर्दे शूल।
अब छोड़ो धैर्य और क्षमा, माँ उठालो शिव का त्रिशूल।।
कितने घाव दिये तुझको, क्या उनका हिसाब नहीं लेगी।
जिसने रोये खूं के आसूं , क्या उनको न्याय नहीं देगी।।
कितने सिन्दूर उजाड़े हैं, कितने आँचल रिक्त किए।
खिलने से पहले शैशव में ही, मैया से बच्चे जुदा किए।।
इतने अत्याचारों को,तेरे इन गद्दारों को, माँ हम कैसे जाए भूल।
अब छोडो धैर्य और क्षमा, माँ उठालो शिव का त्रिशूल।। १।।
दिल्ली दहली, जयपुर दहला, अहमदाबाद बर्बाद हुआ।
मुम्बई के सिरमौर ताज पर, आंतकियों का नाद हुआ।।
पर तेरे खादी-कुपुत्रों को, ये नाद सुनाई नहीं देता।
तुष्टीकरण की नीति मे, सत्यानाश दिखाई नहीं देता।।
अपनी कुर्सी बचाने को, जातिवाद को दे रहे तूल।
अब छोड़ो धैर्य और क्षमा, माँ उठालो शिव का त्रिशूल।।२।।
तेरा ही अन्न-जल लेकर के, तुझपे ही करते घात मॉं।
वोटो की खातिर निज बिकते, देश का सौदा करते मॉं।।
इन खादी पहने गुण्डों को, कायरता के झुण्डों को।
आंतकवादियों के रखवाले, राक्षस बने चण्ड-मुण्डों को।।
अब दिखला दे गद्दारों को, अपना प्रचण्ड विकराल रुप।
अब छोड़ो धैर्य और क्षमा, माँ उठालो शिव का त्रिशूल।। ३।।
गौरी,गजनी,बाबर,खिलजी,औरंगजेब की खूनी तलवार।
सांसे गिरवी पडी हुई थी, हुक्मरानों के खूनी दरबार।।
तब तेरी ही माटी के लालों ने, चौहान, शिवा, राणा के भालों ने।
जब हुंकार भरी मतवालों ने, गोविन्द के चारों लालों ने।।
उन वीरों के बलिदानों से, बची रही संस्कृति मूल।
अब छोडो धैर्य और क्षमा, माँ उठालो शिव का त्रिशूल।।४।।
माँ तेरी लाज बचाने को , तेरे सपूत बलिदान हुए।
ओबराय,ताज,नरीमन-हाउस पर,मार्कोस कमाण्डो कूद गए।।
ऍनऍसजी के रणबांकुरे, एटीऍस के वीर जंग लड़े।
आंतकवादियों के जबड़ो में, हाथ डाल आगे बढे।।
पर तब भी खादी फिल्मी रथ पर, थी ताज मे रही झूल।
अब छोड़ो धैर्य और क्षमा, माँ उठालो शिव का त्रिशूल।।५।।
अब मिलकर शंख बजाना होगा, राष्ट्र-भक्ति के स्वर लेकर।
भारत माता के उद्घोष से, बढ़-चले तन-मन-धन देकर।।
गाँव-गाँव और शहर-नगर में, राष्ट्रवाद की पौध लगे।
चाहे रक्त से हो सिञ्चन इसका, दोगुणी शक्ति से फूले-फले।।
होगा सहन नहीं आंतक का ताण्डव, अब न करे कोई ऐसी भूल।
अब छोडो धैर्य और क्षमा, माँ उठालो शिव का त्रिशूल।। ६।।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कविता- ‘प्रकृति की छाया’

मैं जब भी उदास होता हूँ , तेरी छाया में चैन मिलता हैं।
जब कहीं न सुलझ पाऊँ प्रभू , तू ही मेरे मन की सुनता हैं।।

कहते है मानव बढ़ रहा है , विकास की अंधी दौड में।
क्या ठीक क्या गलत छोड़ इसे , भौतिकता की होड़ में।।

अपने ही हाथों अपनो को , राह में पछाड़ रहा।
आगे बढते-बढते पीछे , क्या हो रहा अनजान रहा।। १।।

मानव की ताल चॉंद पर , अब कदम बढाया मंगल पर।
किंतु प्रकृति के बिना रहना , नर्क हो जाएं धरती पर ।।

फिर क्यूँ ढोल पीट रहा है , अपने बढते कदमों से ।
क्या प्रकृति से आगे निकल सकता है , अपने धुंधले कर्मों से ।। २ ।।

यह सत्य है आज भी मानव , भ्रमण करता प्रकृति का ।
चाहे समुद्र तट हो, द्वीप समूह , विचरण करता सृष्टि का ।।

किंतु कुछ सिरफिरे लोगो ने , ईश्वर से आगे सोची है।
प्रकृति का दोहन कर करके , सारी वसुन्धरा नोची है ।। ३ ।।

वन्य प्राणी हो चाहे बाज गिद, लुप्त होते जा रहे ।
जोहड, कूप, ताल, तलैया, ढूंढे से भी नहीं पा रहे ।।

आसमां से ऊँची चिमनी , बेहाल कर रही मानव को ।
गंदे नाले -कारखाने , दूषित करते गंगा जल को।। ४।।

अब तो सद्बुधि दे दो भगवन ,मैं बढ चलूं सत्य की खोज में।
मोह-माया, लोभ-क्रोध छोड इसे, दुलार पाऊँ तेरी गोद में ।।

प्रकृति का मैं शोषक नहीं , पोषक बन आभार दूँ ।
सच्ची शान्ति,आनन्दपथ पर, जग को संग ले आगे बढूं।। ५ ।।

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

चिट्ठाजगत को उमेश का प्रणाम, मेरी पहली पोस्ट

नमस्कार, मेरा नाम उमेश प्रताप वत्स है। मैं यमुनानगर का निवासी हूँ तथा हरियाणा शिक्षा विभाग में हिन्दी अध्यापक के रुप में कार्यरत हूँ। मैं ई-पण्डित श्रीश शर्मा के साथ एक ही विद्यालय में कार्यरत हूँ, हिन्दी भाषायी लेखन में रुचि रखता हूँ तो उन्होंने प्रेरित किया कि चिट्ठा लिखा करुँ। ब्लॉग वगैरा सैट करने में उन्होंने सहायता की।

ब्लॉग का नाम उन्होंने ही सुझाया, नाम के पीछे यह तथ्य है कि स्कूल में साथी अध्यापक मुझे पहलवान कहते हैं (मैं कुश्ती का राष्ट्रीय चैम्पियन रह चुका हूँ)।
उन्होंने बताया कि कविता, कहानी एवं अन्य विचार आदि लिखने के लिये ब्लॉग एक उत्तम माध्यम है। आशा है आप सब का सहयोग मिलेगा। हिन्दी टाइप करने में अभी गति नहीं है इसलिये आज इतना ही।