खिलाडियों की बल्ले-बल्ले बाकि सब थल्ले-थल्ले
19वें राष्टमंडल खेल मिलीजुली प्रतिक्रिया के साथ समपन्न हो गए। ये खेल भारतीय खिलाडियों के लिए शिवशंकर भोले बाबा बन कर आये है जो खिलाडियों से शीघ्र प्रसन्न होकर वरदानों की बरसात कर रहे है। स्वर्णविजेता को मिलेंगे सात लाख , कम है तो चलो 15 लाख देंगे। अभी भी सन्तुष्ट नही हो चलो फिर 25 लाख दे देंगे। दे तो ज्यादा भी देते किन्तु आप शिवशंकर का स्वभाव तो जानते ही है वे राक्षस जाति को भी तो अनदेखा नही कर सकते, अब अगर वे अपने वरदान की रक्षा करने के लिए नेताओं की जेबे अधिक ढीली करवा देंगे तो अन्याय होगा। अब शिवशंकर सबके प्यारे भोले बाबा जो ठहरे, नापतोल कर सभी का ध्यान रखते है , तभी तो कलमाडी साहब की सभी गलतियां क्षमा कर यशस्वी होने का वरदान दे ही डाला, दे भी क्यों ना ! जब भस्मासुर की सभी उदण्डता भूलकर परमशक्तिशाली होने का वरदान दे सकते है, लालू को भैंसो का चारा खाने के बावजूद कुर्सी पर विराजमान होने का वरदान दे सकते है, मुलायम को राष्ट्र संस्कृति का भक्षक होने के बाद भी राष्ट्र रक्षक अर्थात् रक्षामंत्री होने का वरदान दे सकते है, मायावती को माया की सेज पर सोने का, रावणविलास पासवान को कोचवान से कोयले की खान व थाली के बैंगन की तरह लुढकते रहने का, राहुल को राहू की तरह हर कार्य मे टाँग अडाने का वरदान दे सकते है तो अपने दाढी वाले कलमाडी को (जो कल भी माडा था आज भी माडा ही है) यशस्वी होने का वरदान क्यों नही दे सकते? अन्ततः सभी मानव, राक्षस, भूत, पिशाच्, तांत्रिक है तो शिव की प्रजा ही। ओर जब शिवशंकर भाँग पीकर मूड मे और प्रसन्नावस्था मे है तो लगे हाथ मैं भी एक वरदान माँग ही लूं। हे! शिवशंकर आप बहुत भोले हो। भोला तो मैं भी हूँ तभी तो देश को चलाने का दावा करने वाले मुझे चलाकर अपना चक्कर चला रहे है। किन्तु मेरी परेशानी का कारण है कि ये आपको भी चला देते है। अतः इन्हे एक विशेष बुद्धि वरदान मे दो कि ये खिलाडियों की नींव की ओर ध्यान दें। जबकि ये तो खिलाडियों के मेहनत-पसीने द्वारा प्राप्त प्रतिष्ठा को मंजिल पर पहुंचने के बाद ही अपनी माया की चादर से हवा देते है किन्तु जब वे मंजिल तक पहुंचने के लिए खून-पसीना बहा रहे होते है तो ये एक निवाला भी उसके मुख तक जाने नही देते। देश के कितने ही खिलाडी चूँ-चूँ करती पुरानी साईकिल पर घर से 10-15 कि.मी. दूर अथक मेहनत और अभ्यास करते है, थकावट दूर करने के लिए एक कप चाय दो रोटी का सहारा लेते है। कभी-कभी भाग्यवश कही से पानी मे लस्सी वाला कलयुगी गिलास मिल जाये तो ओर बात है। ऊपर से घरवालो के ताने...."काम का न काज का दुश्मन सौ मन अनाज का" यदि शादीशुदा है तो घरवाली खेल को अपनी सौत मानकर पति को सदैव खेल से दूर रखने का ही प्रयत्न करती है। किन्तु फिर भी मेरे देश का खिलाडी शिवाजी और प्रताप की तरह दृढनिश्चयी होकर लगा रहता है। सर्दी हो या गर्मी, वर्षा हो या धुंध वो तो चूँ-चूँ करती साईकिल पर प्रतिदिन जाकर अभ्यास करता है। बेशक उसके कपडे व जूते फटे हो, स्टेडियम के स्थान पर खेत का गौहर हो, वह तो आर्थिक, सिफारिश, भूख और बीमारी के थपेडों को सहते हुए मौन तपस्वी की भांति मंजिल की ओर बढता ही जाता है। यदि आप द्वारा वरदान मे इन महिषासुरों को परहित हेतु विषेश बुद्धि मिल जाए और माया की चादर का एक टुकडा अर्थात बाद में दी जाने वाली राशि का 10% भी इन तपस्वी खिलाडियों को नींव-निर्माण के समय मिल जाये तो राष्ट्रमंडल खेल क्या ओलम्पिक मे भी तिरंगा ही तिरंगा दिखाई देगा।
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