शोधपत्र - भारतीय ज्ञान परम्परा का परिभाषिकीकरण विषय के अन्तर्गत
"वर्तमान युग में आष्टांग योग से रुपांतरित आधुनिक योग का महत्व "
योग का उद्भव सृष्टि के साथ ही माना जाता है । भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में योगीराज श्री कृष्ण, महावीर और महात्मा बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। भगवान शंकर के अवतार माने जाने वाले गुरु गोरक्ष नाथ ने भी योग को संशोधित कर अपनाया। इसके पश्चात ऋषि पतञ्जलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।
अतः माना जाता है कि निसंदेह योग सृष्टि के आरम्भ से ही था किंतु इसे सूत्रबद्ध कर योग दर्शन का आविष्कार महर्षि पतंजलि ने किया।
योग की उत्पत्ति हजारों साल पहले उत्तरी भारत में मानी जाती है । हिमालय का आँचल योग की प्रयोग स्थली बना। योग शब्द का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद नामक प्राचीन पवित्र ग्रंथों में किया गया था।
योग के मुख्यतः तीन मूल तत्व हैं -प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था- 'प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया'।
'सेवा' शब्द का मूल तात्पर्य है मनुष्य के लिए कल्याणमूलक कुछ काम करना।
यहां 'परिप्रश्न' का अर्थ है- आध्यात्मिकता का व्यवहारिक स्तर से सबंधित गुरुत्वपूर्ण प्रश्न।
द्वितीय तत्व यह है कि साधक कभी भी निरर्थक प्रश्न कर अपना मूल्यवान समय नष्ट नहीं करेगा। अतः 'प्रश्न' नहीं, साधक करेगा 'परिप्रश्न' अर्थात वह उपयुक्त पात्र के पास जाकर प्रश्न कर, जानकारी प्राप्त कर उसे जीवन में अनुशीलन करेगा।
तीसरा तत्व है- प्रणिपात। 'प्रणिपात' का अर्थ हुआ परमपुरुष के श्रीचरणों में संपूर्ण आत्मसमर्पण।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ''योग : कर्मसु कौशलम्'' अर्थात् योग से कर्मों में कुशलता आती है। व्यावाहरिक स्तर पर योग शरीर, मन और भावनाओं में संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने का एक साधन है।
योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ना। योग शारीरिक व्यायाम, शारीरिक मुद्रा (आसन), ध्यान, सांस लेने की तकनीकों और व्यायाम को जोड़ता है। इस शब्द का अर्थ ही 'योग' या भौतिक का स्वयं के भीतर आध्यात्मिक के साथ मिलन है।
योग शरीर और मन की एक संतुलित अवस्था है। योग भावनाओं की संतुलित अवस्था है। योग विचार और बुद्धि की संतुलित अवस्था है। योग व्यवहार की एक संतुलित अवस्था है । अगर कर्म करने पर हम ध्यान देते हैं, तो कर्म में कुशलता आती है। अगर फलाफल का विचार करते रहते हैं, तो कर्म में हमारा ध्यान नहीं रहता। हमारा ध्यान फल पर चला जाता है, और कर्म में फिर कुशलता नहीं आती है। दूसरा सम्यक योग खुदसे जुड़ना।
भगवत गीता में भी कर्म योग का जिक्र मिलता है। इसके अनुसार, वैराग्य भाव रखते हुए अपने कर्म करने चाहिए।
भगवद गीता में, भगवान कृष्ण ने कहा, कर्म योग अथवा निस्वार्थ सेवा श्रेष्ठ है और परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है। एक बार कर्म योग का पालन करने के बाद, व्यक्ति ध्यान के गहन अभ्यास के साथ आगे बढ़ सकता है।
योग के मुख्य चार प्रकार होत हैं। राज योग, कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग।
भारत में जितने भी वेदमत पर आधारित ग्रंथ व दर्शन है, उन सभी का यही मानना है कि जीवन का एक ही लक्ष्य है और वह है पूर्णता को प्राप्त करके आत्मा को जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्त कर लेना। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वामी विवेकानंद के अनुसार भी सर्वश्रेष्ठ माध्यम अष्टांग योग है।
बहिरंग के पाँच साधनों में भी पहले दो अंग अर्थात यम और नियम सामाजिक तथा सांसारिक के साथ-साथ हमारे निजी व्यवहार में भी कुशलता और एकरूपता लाने में हमारी सहायता करते हैं, जबकि अन्य अंग हमारे आत्मिक, शारीरिक और मानसिक विक्षेपों को दूर करते हैं। इसलिए अगर हम साधना के उच्चतम शिखर अर्थात मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें इन आठों श्रेणियों से होकर गुजरना ही होगा और इनमें निपुणता लानी ही होगी।
1) यम :
अष्टांग योग का प्रथम अंग है यम, महर्षि पतंजलि ने इन यमों की परिगणना इस प्रकार की है –
“अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।” (योगसूत्र- 2.30)
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह – ये पाँच यम हैं।
१) अहिंसा – मन, वचन और कर्म आदि से किसी के साथ हिंसा न करना, किसी का अहित न चाहना, सभी का सम्मान करना और सभी के लिए प्रेम का भाव रखना।
२) सत्य – जो चीज जैसी है उसे वैसा ही स्वीकार करना और वैसा ही बोलना।
३) अस्तेय – इसका शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना, किसी चीज को प्राप्त करने के लिए मन में आने वाले चोरी के भाव से भी दूर रहना।
४) ब्रह्मचर्य – शरीर के सभी सामर्थ्यों की संयम पूर्वक रक्षा करना, व्यभिचार से दूर रहना, इंद्रियों को अपने वश में रखना।
५) अपरिग्रह – मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों को त्याग देना या उनका संग्रह न करना, सिर्फ उतना ही लेना और रखना जितने की जरूरत हो।
2) नियम :
अष्टांग योग का दूसरा अंग है नियम, इसके बारे में महर्षि पतंजलि ने लिखा है –
“शौचसन्तोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।” (योगसूत्र- 2.32)
नियम के भी 5 विभाग हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।
१) शौच – शरीर व मन की को पवित्र रखना ही शौच है। हमारा शरीर स्नान, सात्विक भोजन, मल त्याग इत्यादि से पवित्र होता है, तो वहीं मन राग-द्वेष के त्याग और अंतःकरण की शुद्धि से पवित्र होता है।
२) संतोष – अपना कर्म करते हुए जो भी फल प्राप्त हो, उसे ईश्वर कृपा समझकर उसी में संतुष्ट रहना और लालच न करना।
३) तप – सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्दों में भी समभाव रखते हुए शरीर व मन को साध लेना।
४) स्वाध्याय – ज्ञान प्राप्ति के लिए धर्म शास्त्रों का विवेकपूर्ण अध्ययन करना, संतों के सानिध्य में सत्संग करना व सदविचारों का आदान प्रदान करना।
५) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर की भक्ति करना, पूर्ण मनोयोग से ईश्वर को समर्पित होकर उनके नाम, रूप, गुण, लीला इत्यादि का श्रवण, उच्चारण, मनन और चिंतन करना।
यम और नियम के विषय में स्वामी विवेकानंद कहते हैं –
“यम और नियम चरित्र निर्माण के साधन है। इनको नींव बनाए बिना किसी तरह की योग साधना सिद्ध न होगी।”
(राजयोग, द्वितीय अध्याय, पृष्ठ 17)
3) आसन :
अष्टांग योग का तीसरा अंग है आसन। पतंजलि योग दर्शन के अनुसार शरीर की जिस स्थिति में रहते हुए सुख का अनुभव होता हो और उस शारीरिक स्थिति में स्थिरता पूर्वक अधिक देर तक सुख पूर्वक रहा जा सकता हो, उस स्थिति विशेष को आसन कहा जाता है।
आसन न केवल शरीर को लचीला बनाता है बल्कि यह शरीर की सक्रियता और मानसिक एकाग्रता को भी उन्नत करता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक संरचना में कुछ विभिन्नताएँ भी होती है। अतः उसे अपनी सुविधा के अनुसार ही आसन का चयन करना चाहिए। लेकिन कुछ ऐसी भी बातें हैं जो सभी के लिए अनिवार्य और आवश्यक है। स्वामी विवेकानंद जी इस विषय में कहते हैं –
“आसन के संबंध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदंड को सहज स्थिति में रखना आवश्यक है, ठीक से सीधा बैठना होगा। वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहे, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े।”
(राजयोग , द्वितीय अध्याय , पृष्ठ – 18)
आसन की सिद्धि से नाड़ियों की शुद्धि, आरोग्य की वृद्धि एवं शरीर व मन को स्फूर्ति प्राप्त होती है।
आसन के अनेक प्रकार हैं, जैसे मर्कटासन, मयूरासन, गोमुखासन इत्यादि। हालांकि, साधना में लंबे समय तक बैठने के लिए कुछ विशेष प्रकार के आसनों को ही उपयुक्त माना जाता है, जैसे सिद्धासन, पद्मासन इत्यादि। जब तक बहुत उच्च अवस्था प्राप्त ना हो जाए तब तक प्रत्येक साधक को इन आसनों में नियमानुसार रोज बैठना पड़ता है और अंततः एक अवस्था आती है जब व्यक्ति इस आसन में पूर्णत: पारंगत हो जाता है, इस अवस्था को आसन सिद्धि कहते है।
4) प्राणायाम :
अष्टांग योग का चौथा अंग है प्राणायाम, प्राणायाम दो शब्दों अर्थात प्राण और आयाम से मिलकर बना है। प्राण शब्द का अर्थ है – चेतना शक्ति और आयाम शब्द का अर्थ है – नियमन करना, संयम करना अर्थात लयबद्ध करना। अतः स्वामी विवेकानंद मानते हैं कि प्राणायाम का अर्थ है “सांसों को लयबद्ध करके प्राणों का संयम कर लेना”।
योगियों के अनुसार मानव शरीर में प्रमुख तीन सुक्ष्म नाड़ियां है, जिनसे होकर ऊर्जा समस्त शरीर के विभिन्न अंगों और नाड़ियों में प्रवाहित होती है। ये तीन नाड़ियां है – इडा, पिंगला और सुषुम्ना। साधारण मनुष्य में मुख्यतः इड़ा और पिंगला ही जागृत होती है और सुषुम्ना प्रायः निष्क्रिय अवस्था में ही रहती है। सुषुम्ना में शक्ति प्रवाह को हम कुंडलिनी जागरण भी कह सकते हैं, सुषुम्ना में शक्ति प्रभाव होने के साथ ही व्यक्ति में मन व चेतना के स्तर पर अनेक बदलाव होते हैं, जैसे एक-एक पर्दा हटता जा रहा हो और तब योगी इस जगत की सूक्ष्म या कारण रूप में उपलब्धि प्राप्त करते हैं।
5) प्रत्याहार :
“प्रत्याहार का अर्थ है एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना। मन की बहिर्गति को रोककर इंद्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमें सफल होने पर हम यथार्थ चरित्रवान होंगे, हमें अनुभूति होगी कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गए हैं, इससे पहले हम तो मशीन मात्र हैं।”
ध्यान किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन में प्रारम्भ करना चाहिए और धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। अन्यथा लाभ की बजाय हानि भी हो सकती है। प्रारंभ में आँख बंद कर शांत होकर बैठना कठिन लगेगा। एकाग्रता नहीं बनेगी। प्रतिदिन 5 मिनट बैठने से अभ्यास प्रारंभ कर सकते हैं।
6) धारणा :
अष्टांग योग का छठा अंग है धारणा अर्थात अपने मन और चित्त को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान विशेष पर केंद्रित या धारण करना। धारणा धारण किया हुआ चित्त जैसी भी धारणा या कल्पना करता है, वैसा ही घटित होने लगता है। स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी विषय में अर्थात् हृदय, भृकुटि, जिह्वा, नासिका आदि आध्यात्मिक प्रदेश तथा इष्ट देवता की मूर्ति आदि बाह्य विषयों में चित्त को लगा देने को धारणा कहते हैं। धारणा में किसी विशेष स्थान पर ध्यान लगाने की विधि के बारे में स्वामी विवेकानंद कहते हैं– “मान लो ह्रदय के एक बिंदु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतः सहज उपाय यह है कि ह्रदय में एक पद्म(पुष्प) की भावना करो और कल्पना करो कि वह ज्योति से पूर्ण है। चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो।”
स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी विषय में अर्थात् हृदय, भृकुटि, जिह्वा, नासिका आदि आध्यात्मिक प्रदेश तथा इष्ट देवता की मूर्ति आदि बाह्य विषयों में चित्त को लगा देने को धारणा कहते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि के उचित अभ्यास के पश्चात् यह कार्य सरलता से होता है। प्राणायाम से प्राण वायु और प्रत्याहार से इंद्रियों के वश में होने से चित्त में विक्षेप नहीं रहता, फलस्वरूप शांत चित्त किसी एक लक्ष्य पर सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। विक्षिप्त चित्त वाले साधक का उपरोक्त धारणा में स्थित होना बहुत कठिन है। जिन्हें धारणा के अभ्यास का बल बढ़ाना है, उन्हें आहार-विहार बहुत ही नियमित करना चाहिए तथा नित्य नियमपूर्वक श्रद्धा सहित साधना व अभ्यास करना चाहिए।
7) ध्यान :
आष्टांग योग का सातवां अंग ध्यान है। जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए, उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना अर्थात् केवल ध्येय मात्र की एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके बीच में किसी भी दूसरी वृत्ति का न उठना ध्यान कहलाता है ।
ध्यान एक योगक्रिया है, विद्या है, तकनीक है, आत्मानुशासन की एक युक्ति है जिसका प्रयोजन है एकाग्रता, मानसिक स्थिरता व संतुलन, धैर्य और सहनशक्ति प्राप्त करना।
ध्यान का तात्पर्य है, वर्तमान में जीना। वर्तमान में जीकर ही मन की चंचलता को समाप्त किया जा सकता है, एकाग्रता लायी जा सकती है। इसी से मानसिक शक्ति के सारे भंडार खुलते हैं। उसी के लिए ही ध्यान की अनेक विधियां हैं। जो साधक को समाधि की ओर ले जाती है।
8) समाधि :
आष्टांग योग का अंतिम अंग समाधि है।
समाधि वह अवस्था है ,जहां साधक चेतना के उस बिंदू पर पहुंचता है जिससे परे कोई चेतना नहीं होती।
आधुनिक काल में योग :
1700-1900 ईसवी के बीच की अवधि को आधुनिक काल के रूप में माना जाता है जिसमें महान योगाचार्यों - रमन महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, विवेकानंद आदि ने राज योग के विकास में योगदान दिया है। यह ऐसी अवधि है जिसमें वेदांत, भक्ति योग, नाथ योग या हठ योग फला - फूला।
स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी 1863 - 4 जुलाई 1902) : आधुनिक योग का इतिहास शुरू होता है 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म संसद के साथ। उन्नीसवीं सदी के अंत में आधुनिक योग अमेरिका पहुंचा।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार समाधि प्रत्येक मनुष्य ही नहीं अपितु प्रत्येक प्राणी का भी अधिकार है। इसे निम्नतम प्राणी जैसे कीट-पतंग से लेकर अत्यंत उन्नत देवता तक सभी कभी न कभी अवश्य प्राप्त करेंगे और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जाएगी, तभी वह सभी बन्धनों से मुक्त होगा। स्वामी विवेकानंद की 'राज योग' मूलतः महर्षि पतंजलि के योग सूत्रों पर आधारित है, जिसकी सबसे अधिक चर्चा तब शुरू हुई, जब 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए और न्यूयॉर्क में अपने शिष्यों के समक्ष योग की बारीकियों और गहराइयों पर आधारित व्याख्यान दिया। इन्हीं व्याख्यानों को संकलित करके एक पुस्तक का स्वरूप दिया गया जिसका नाम है- राजयोग।
संतुलित आहार और योग :
योगासन-प्राणायाम प्रतिदिन करते हैं और संतुलित आहार नहीं लेते तो योगासन-प्राणायाम का स्वास्थ्य पर प्रभाव बहुत कम होगा। संतुलित आहार का मन-मस्तिष्क पर भी प्रभाव पड़ता है। “जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन” – ये कहावत सभी ने सुनी है। आजकल तामसिक भोजन यथा जंकफूड, अधपका हुआ, बासी व भोजन निर्माण की मूल प्रक्रिया को बदल कर बनाए गए व्यंजनों का प्रचलन अधिक हो गया है। साथ ही असमय खाना भी प्रचलन में है। तामसिक भोजन ग्रहण करेंगे, असमय करेंगे और योग करेंगे तो ये समन्वय कैसे संभव है? ऐसे में स्वास्थ्य लाभ की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है।
योगासन, प्राणायाम व ध्यान योग के इन तीनों अंगों को नियमित अभ्यास में लाने से स्वास्थ्य को उचित लाभ मिलता है। कभी-कभी करने से स्वास्थ्य लाभ नहीं मिलता। सामान्यतः लोग प्रारम्भ करते हैं और कुछ दिन करके छोड़ देते हैं। दृढ़तापूर्वक नियमित योग अभ्यास करने की आदत लगनी चाहिए। योगासन करते समय श्वास क्रिया महत्वपूर्ण है। सामान्य नियम है – शरीर का विस्तार करते समय श्वास भरना और संकुचन करते समय श्वास छोड़ना। बिना श्वास क्रिया के योगासन करना मात्र व्यायाम ही होता है।
हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है –
चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२.२॥
अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिए।
श्वास नियमन व नियंत्रण के लिए प्राणायाम का अभ्यास अच्छा रहता है। कपालभाति के बाद इन तीन भस्त्रिका, अनुलोम-विलोम व भ्रामरी प्राणायाम को नियमित अभ्यास में जोड़ सकते हैं। न्यूनतम 15 मिनट प्राणायाम नियमित करना चाहिए। धीरे-धीरे समय बढ़ा सकते हैं।
योग की प्रचलित धारणा से निकल कर योग आधारित जीवन शैली को जीवनचर्या का भाग बनाना आवश्यक है। इस भाग-दौड़ के जीवन में आहार-विहार के सामान्य नियमों को दिनचर्या में सम्मिलित करने से स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
संतुलित आहार , संयमित व्यवहार एवं प्रेरणादायी आचार यही मानव के जीवन को उच्च बनाते हैं तथा आष्टांग योग में इन सभी बातों पर विस्तृत वर्णन किया गया है । अतः हम आष्टांग योग के प्रत्येक अंग को अपने जीवन में उतारते हुए ,साधते हुए न केवल मानव से मानवता की यात्रा पूर्ण कर सकते हैं अपितु परम वैभव ईश्वर प्राप्ति भी कर सकते हैं ।
ध्यान सिद्धि में राग द्वेष और मोह बाधक तत्व हैं। ध्यान करने वाले को इसका तत्काल परित्याग कर देना चाहिए। चेतन आत्मा का शाश्वत सत्य है।
योग के माध्यम से स्वस्थ जीवन की परिकल्पना को लेकर भारत के उन्नत प्रयासों से 11 दिसम्बर 2014 को अमेरिका में स्थित संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के प्रस्ताव को मंजूरी मिलने के बाद सर्वप्रथम इसे 21 जून 2015 को पूरे विश्व में 'अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस' (इंटरनेशनल डे ऑफ योगा) के नाम से मनाया गया।
सांसारिक जीवन में समय अभाव देखते हुए स्वस्थ जीवन हेतु योग का संक्षिप्त रूप में अभ्यास करने के लिए नियमित सूर्यनमस्कार करने की सलाह दी जाती है। जिसके भेद है -
प्रणामासन: ॐ मित्राय नमः।
हस्त उत्तानासन: ॐ सूर्याय नमः।
उत्तानासन: ॐ भानवे नमः।
अश्व संचालनासन: ॐ खगाय नमः।
चतुरंग दंडासन: ॐ पूष्णे नमः।
अष्टांग नमस्कार: ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।
भुजंगासन: ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।
अधोमुख श्वानासन: ॐ मरीचये नमः।
प्रतिदिन सूर्यनमस्कार करने से शरीर की ऊर्जा का स्तर बेहतर बना रहता है साथ ही शारीरिक कार्यक्षमता और दक्षता में भी अद्भुत सुधार देखने को मिलता है ।
शरीर, मन और आत्मा को नियंत्रित करने में योग हमारी बहुत मदद करता है। शरीर और मन को शांत करने के लिए यह शारीरिक और मानसिक अनुशासन का एक संतुलन बनाता है। यह तनाव और चिंता का प्रबंधन करने में भी सहायता करता है और आपको आराम से रहने में मदद करता है।
पतंजलि ने प्राणायाम की चार क्रियाएं बताई हैं- प्रथम बाह्य वृत्तिक, द्वितीय आभ्यांतर वृत्तिक, तृतीय स्तम्भक वृत्तिक और चतुर्थ वह प्राणायाम होता है, जिसमें बाह्य एवं आभ्यांतर दोनों प्रकार के विषय का अतिक्रमण होता है।
पारंपरिक योग की उत्पत्ति वेदों और तंत्रों के आध्यात्मिक दर्शन से हुई है। आधुनिक योग स्वयं को दुनिया भर की दार्शनिक प्रणालियों से प्रेरित करता है। पारंपरिक योग धीरे-धीरे बाहरी, संवेदी, क्षणिक दुनिया से दूर जाकर ऊर्जा को आंतरिक, आध्यात्मिक, स्थायी सत्य पर अधिक केंद्रित करने की दिशा में काम करता है।
आधुनिक काल में स्वामी विवेकानंद जी की भाँति महर्षि महेश योगी ने भी योग विद्या का प्रचार प्रसार सम्पूर्ण विश्व में किया। महर्षि महेश योगी के द्वारा हिमालय पर, दो वर्षों तक मौन साधना करने के उपरान्त भावातीत ध्यान की शिक्षा दी गयी। महर्षि महेश योगी के द्वारा प्रतिपादित भावातीत ध्यान सम्पूर्ण विश्व में एक आन्दोलन के रुप में चला।
पारंपरिक योग में सिर्फ आसन ही नहीं बल्कि अन्य अभ्यास भी शामिल हैं जो मन और हृदय को शुद्ध करते हैं। चूंकि यह समग्र विकास से जुड़ा है, इसलिए लक्ष्य हासिल करने में थोड़ा वक्त लगेगा. यह मन, शरीर और आत्मा के विकास पर केंद्रित है। आधुनिक योग चटाई पर एक घंटे तक आसन का अभ्यास करने के बारे में है।
पारंपरिक योग आमतौर पर शरीर और आत्मा को सद्भाव और एक साथ लाने के लिए ध्यान अभ्यास से शुरू होता है। आधुनिक योग में ऐसा नहीं है।
सरल योग जिसका वर्णन ऋषि पतंजलि द्वारा "पतंजलि योग प्रदीप" में किया गया जन साधारण के लिए है जो आज भी प्रचलित है। इसका उपयोग स्वस्थ जीवन शैली के लिए किया जाता है और यह कई रोगों के इलाज़ में भी प्रभावी है।
लोग इस आधुनिक जीवन में बहुत व्यस्त है, जब मस्तिष्क को आराम नही मिलता तो यह योग ही हमारे मस्तिष्क को 8 घंटे की नींद जितना आराम देता है, योग द्वारा कई प्रकार की न्यूरो बीमारियों को ठीक होते देखा गया है, और आजकल के युग में न्यूरो बीमारियों से ग्रसित लोग योग को ज्यादा महत्व देते है क्योंकि योग उन्हें एक प्रकार से बीमारी से सुकून प्राप्त करवाता है। योग में बताए गए आसन हमारे शरीर की सभी नसों और तंत्रिकाओं को खींचती है जिनसे हमारी नसें सही रूप से कार्य कर सके योग में अलग अलग आसन मस्तिष्क के अलग अलग तंत्रिकाओं को सक्रिय करती है और उन्हें ठीक करती है। और यह एक बहुत सटीक कारण है की अन्य देशों में योग को क्यों एकदम से अपना लिया। क्योंकि वो यह जानते है की योग बहुत कारगर है मानव शरीर को स्वस्थ रखने हेतु। इसीलिए योग आधुनिक जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।
आधुनिक जीवन शैली ने मन-शरीर के संबंधों में सामजंस्य खो दिया है जिससे उच्च रक्तचाप, कोरोनरी हृदय रोग और कैंसर जैसी कई तनाव-आधारित बीमारियां हो गई हैं। इन बीमारियों को रोकने और उनका इलाज करने के प्रयास ने बेहतर जीवन शैली और बेहतर रणनीतियों की खोज को गति दी, जो कि योग जैसे प्राचीन विषयों की पनुर्खोज में परिवर्तित हो गए। अक्सर शरीर के मतभेदों और सीमाओं के बारे में पूरी जानकारी और समझ के बिना, आसन का अभ्यास किया जाता है। इससे गंभीर चोट लग सकती है और आसन की तकनीक, उद्देश्य और लाभ के बारे में जागरूकता की कमी हो सकती है।
वर्तमान में योग के अनेक परिवर्तित रुप प्रचलित है । हॉट योग भी विश्वभर में पसंद किया जा रहा है । भारतीय योगी बिक्रम चौधरी वह गुरु हैं, जो अमेरिका में गर्म कमरे में 26 योग मुद्राओं की थका देने वाली श्रृंखला लेकर आए। वह कक्षा में चिल्लाने, छात्रों के लिए गाने और अपने अनुयायियों के शरीर की बीमारियों को ठीक करने के लिए जाने जाते हैं। हॉट योग एक गर्म कमरे में किया जाता है, जिसका तापमान कम से कम 40-45 डिग्री रखा जाता है। यही वजह है कि इसे हॉट योगा कहा जाता है। 90 मिनट के इस योगासन सेशन में 26 आसन और 2 प्राणायाम किए जाते हैं। हॉट योगा करने के लिए सबसे पहले आप योग श्रंखला के सरल योग को करने का अभ्यास करते हैं जैसे कि बालासन, वृक्षासन और भुजंगासन आदि।
जिसके अभ्यास से व्यक्ति स्वस्थ रहता है ।
योगाभ्यास से मांसपेशियों को मजबूत बनाना, बेहतर नींद, लचीलापन बढ़ाना और तनाव कम करना शामिल है।
वर्तमान युग में बदलते परिवेश में योगाभ्यास से अपने जीवन को संयमित करते हुए स्वस्थ जीवन हेतु यही एकमात्र सही मार्ग है।
संदर्भ -
पतंजलि दर्शन शास्त्र
राज योग -स्वामी विवेकानंद
एम ए योग विज्ञान पाठ्य पुस्तक