जम्मू कश्मीर राज्य का अपना संविधान है। यह संविधान मोटे तौर पर वैसा ही है जैसा संविधान में बी श्रेणी के राज्यों का था । अन्तर केवल इतना ही है कि राज्यों के पुनर्गठन के बाद वे मुख्य दस्तावेज में ही समाहित कर दिये गये लेकिन अनुच्छेद ३७० का दुरुपयोग करते हुये ,जम्मू कश्मीर के मामले में वे एक अलग दस्तावेज के रूप में पारित और प्रकाशित किए गये हैं । अनुच्छेद ३७० का कारण उस समय की परिस्थितियां ही मानी जा सकती है। दरसल भारत डोमिनियन की घोषणा के समय भारतीय रियासतों की संाविधानिक प्रशासकीय व्यवस्था को संघीय संाविधानिक व्यवस्था में समाहित करने के लिए भारत सरकार के रियासती मंत्रालय ने एक मानक अधिमिलन पत्र तैयार किया था , जिस पर हस्ताक्षर करके विभिन्न रियासतों के शासकों ने प्रशासन के तीन विषयों , विदेशी संबंध्, सुरक्षा और संचार को संघीय संविधान की व्यवस्था में समीहित कर दिया था । उन दिनों संघीय संविधान भी अभी बन ही रहा था । इसीलिए विभिन्न रियासतों ने अपने-अपने प्रतिनिधि संघीय संविधान सभा में भेजे । जम्मू कश्मीर रियासत ने भी ऐसा ही किया। उस समय यह निर्णय किया गया कि अन्य विषयों पर प्रवाधान बनाने के लिये विभिन्न रियासतें अपने-अपने यहां संविधान सभाओं का गठन करेंगी और अपने-अपने राज्य के लिए लोकतांत्रिक संविधान पारित करेंगी। बहुत सी रियासतों में यह प्रक्रिया प्रारम्भ भी हो गई। लेकिन बाद में एकरूपता की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए सभी रियासतों ने निर्णय किया कि रियासतों के संविधानों को संघीय संविधान में ही समाहित कर दिया जाए और ऐसा हुआ भी। परन्तु जम्मू कश्मीर रियासत में यह प्रक्रिया ही नहीं अपनाई जा सकी। क्योंकि इस रियासत पर कबायलियों को आगे करके पाकिस्तान ने आक्रमण किया हुआ और वहां युद्ध की स्थिति बनी हुई थी। इस हालत में न तो वहां संविधान सभा का गठन हो सका और न ही तद्नुसार निर्णय लिए जा सके । उधर 26 जनवरी 1950 को भारत एक डोमिनियन ना रहकर एक गणतंत्र में परिवर्तित हो गया और इसी दिन नया संघीय संविधान देश में लागू हो गया। विभिन्न रियासतों/राज्यांे के राज प्रमुखों ने एक अधिसूचना द्वारा इस संघीय संविधान को अपने-अपने राज्यों में लागू किया। जम्मू कश्मीर में भी इसी प्रकार की अधिसूचना द्वारा इसे लागू किया गया। लेकिन क्योंकि राज्य में अभी तक संविधान सभा का गठन नहीं हो सका था, इसलिये राज्य के शासक द्वारा अधिमिलन पत्र जारी कर दिये जाने के कारण संघीय संविधान का अनुच्छेद १ तो तुरन्त लागू हो गया लेकिन शेष संविधान को लागू करने के लिये संघीय संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ा गया। जिसके अनुसार राज्य में संविधान सभा के गठित हो जाने और राज्य के लिए संविधान का निर्माण हो जाने के उपरान्त संघ के राष्ट्रपति एक अधिसूचना द्वारा संघीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों को जम्मू कश्मीर राज्य में लागू करने के लिए प्राधिकृत किए गए। इसके लिए राज्य सरकार की सलाह/सहमति की व्यवस्था भी की गई। राज्य की संविधान सभा ने राज्य के लिए जिस संविधान की रचना की, वह राज्य में 26 जनवरी, 1957 में लागू हुआ। उससे पूर्व राज्य का प्रशासन , उन प्रावधानों को छोड़कर जिसकी व्यवस्था संघीय संविधान में कर दी गई थी, बाकी मामलों में जम्मू कश्मीर संविधान अधिनियम 1939 के अनुसार चलता रहा ।
राज्य के नए संविधान के तीसरे भाग में राज्य के स्थाई निवासी संबंधी प्रावधानों का समावेश किया गया और इसके लिए महाराजा हरीसिंह के शासन द्वारा स्टेट सब्जेक्ट को लेकर 1927 और 1932 में जारी की गई सूचनाओं के कुछ प्रावधानों को आधार बनाया गया। लेकिन दुर्भाग्य से जम्मू कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस ने संघीय संविधान के अनुच्छेद 370 को लेकर इस प्रकार का शोर मचाना शुरु कर दिया कि मानों इस अनुच्छेद के माध्यम से राज्य को कोई विशेष दर्जा दे दिया गया हो। मामला यहां तक बढ़ा कि नेशनल कान्प्रफेंस ने इस अनुच्छेद की ढाल में एक प्रकार से तानाशाही स्थापित करने का प्रयास किया और इसकी सबसे पहली शिकार राज्य की महिलाएं हुई। राज्य के स्थाई निवासियों में केवल महिला के आधर पर भेदभाव करने वाली कोई व्यवस्था न तो राज्य के संविधान में है और न ही भारत के संविधान में और न ही महाराजा हरिसिंह के शासन काल में स्टेट सबजेक्ट को लेकर जारी किए गए प्रावधानों में। लेकिन दुर्भाग्य से नेशनल कान्प्रफेंस की सोच महिलाआंे को लेकर उसी मध्यकालीन अंधकार युग में घूम रही थी , जिसमें महिलाओं को पैर की जूती समझा जाता था और उनका अस्तित्व पति के अस्तित्व में समाहित किया जाता था। महिला का अपना स्वतंत्रा व्यकित्व भी है, ऐसी सोच शायद नेशनल कान्फ्रेंस विकसित ही नहीं कर सकती थी। बहुत बाद में लिखी गई अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार में नैशनल काॅन्फ्रेंस के संस्थापक शेख मोहम्मद अब्दुल्ला बार-बार इस बात का जिक्र करते रहते हैं कि भारत में जम्मू कश्मीर ही एकमात्र ऐसा राज्य है जिसमें मुसलमानों का बहुमत है और इसी कारण केन्द्र सरकार इसके साथ भेद-भाव करती है। शेख अब्दुल्ला लोगों को यह समझाने की भी बार-बार कोशिश करते हैं कि संघीय संविधान में अनुच्छेद 370 की जो व्यवस्था की गई थी वह इसीलिए की गई थी कि यह राज्य देश का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य है जिसके कारण इसको विशेष दर्जा देने की जरूरत है। जबकि शेख अब्दुल्ला खुद बहुत अच्छी तरह जानते थे कि अनुच्छेद 370 का समावेश मात्र इसीलिए किया गया था क्योंकि रियासत में युद्ध चल रहा था, उसके कुछ हिस्से पर पाकिस्तान ने कब्जा किया हुआ था। इसीलिए समय रहते प्रदेश में संविधान सभा का गठन नहीं हो सका था, इसीलिए अनुच्छेद 370 की अंतरिम व्यवस्था की गई थी । इसका संबंध न राज्य के मुस्लिम बहुल होने से था और न ही उसे कोई विशेष दर्जा दिए जाने से । परन्तु शेख अब्दुल्ला अपने झूठ को प्रचारित ही नहीं कर रहे थे बल्कि यह भी चाह रहे थे कि लोग उनकी बात पर विश्वास कर लें। शेख शायद राज्य के मुस्लिम बहुल होने का लाभ उठाकर ही यहाँ की औरतों को मध्ययुगीन अंधकार में धकेल देना चाहते थे ।
नेशनल कान्प्रफेंस ने अनुच्छेद 370 का प्रयोग गले में डाले गए उस ताबीज की तरह करना शुरु कर दिया कि जिसके चलते वे राज्य में किसी भी प्रकार की तानाशाही हरकते कर सकते थे । लेकिन इसके बावजूद नेशनल कान्फ्रेंस अच्छी तरह जानती थी कि किसी भी कानून की ज़द में प्रदेश की महिलाआंे की घेराबंदी नहीं की जा सकती। प्रश्न था अब क्या किया जाये ? इस समय सहायता के लिए शेख के घनिष्ठ मित्र मोहम्मद अफजल बेग आगे आए। वैसे भी शेख अब्दुल्ला अपनी आत्मकथा में अफजल बेग की कानूनी तालीम की तारीफ करते नहीं थकते। यही अफजल बेग राज्य के राजस्व मंत्री थे । उन्होंने एक कार्यपालिका आदेश जारी कर दिया,जिसके अनुसार राज्य की कोई भी महिला यदि राज्य के किसी बाहर के लड़के के साथ शादी कर लेती है तो उसका स्थाई निवासी प्रमाण पत्र रद्द कर दिया जाएगा और वह राज्य में स्थाई निवासियों को मिलने वाले सभी अधिकारों और सहूलतों से वंचित हो जाएगी। तब वह न तो राज्य में सम्पत्ति खरीद सकेगी और न ही पैतृक सम्पत्ति में अपनी हिस्सेदारी ले सकेगी। न वह राज्य में सरकारी नौकरी कर पाएगी और न ही राज्य के किसी सरकारी व्यवसायिक शिक्षा के महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में तालीम हासिल कर सकेगी। उस अभागी लड़की की बात तो छोड़िए , उसके बच्चे भी इन सभी सहुलियतों से महरूम कर दिए जाएँगे । मान लो किसी बाप की एक ही बेटी हो और उसने राज्य के बाहर के किसी लड़के से शादी कर ली हो तो बाप के मरने पर उसकी जायदाद लड़की नहीं ले सकेगी। आखिर राज्य की लड़कियों के साथ यह सौतेला व्यवहार, जिसकी इजाजत कोई कानून भी नहीं देता करने का कारण क्या है? नेशनल काॅन्फ्रेंस के पास इसका उत्तर है । इन की इस हरकत से राज्य का तथाकथित विशेष दर्जा घायल होता है । इससे राज्य की जनसांख्यिकी परिवर्तित हो जायेगी । इन लड़कियों ने राज्य के बाहर के लड़कों के साथ शादी करने का कुफ़्र किया है। सरकार उनके इस गुनाह को किसी भी ढंग से मुआफ नहीं कर सकती। ऐसी बेहूदा कल्पनाएं तो वही कर सकता है जो या तो अभी भी अठाहरवीं शताब्दी में रह रहा हो या फिर खतरनाक किस्म का धूर्त हो । यदि किसी ने प्रदेश की लड़कियों के साथ हो रहे इस अमानवीय व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाई तो नेशनल काॅन्फ्रेंस ने उनके आगे अनुच्छेद 370 की ढ़ाल कर दी। नेशनल काॅन्फ्रेंस को इस बात की चिंता नहीं है कि अनुच्छेद 370 में क्या लिखा है या फिर राज्य के संविधान का तीसरा भाग क्या कहता है। उसके लिए तो अनुच्छेद 370 उसके सभी गुनाहों और राज्य में की जा रही लूट खसोट पर परदा डालने का माध्यम बन गया है।
कुछ लोगों को लगता होगा कि यदि प्रदेश की उन लड़कियों के साथ जो प्रदेश के बाहर के लड़कों से शादी कर लेती है , ऐसा अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है तो यकीनन उन लड़कों के साथ भी , जो प्रदेश से बाहर की लड़कियों से शादी करते हैं तो ऐसा ही व्यवहार किया जाता होगा। लेकिन स्थिति उसके उलट है । जो लड़के प्रदेश से बाहर की लड़की के साथ शादी करते हैं तो उन लड़कियों को तुरन्त राज्य के स्थाई निवासी होने का प्रमाण पत्र जारी कर दिया जाता है। उनको वे सभी सहुलियतें तुरन्त दे दी जाती है जो प्रदेश की दूसरी बेटियों से छीन ली गई है।
सरकार की इस नीति ने जम्मू कश्मीर की लड़कियों पर कहर ढ़ा दिया। शादी करने पर एम.बी.बी.एस. कर रही लड़की को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, सरकारी नौकरी कर रही लड़की की तनख्वााह रोक ली गई। उसे नौकरी से फारिग कर दिया गया। सरकारी नौकरी के लिए लड़की का आवेदन पत्र तो ले लिया गया लेकिन इन्टरव्यू के वक्त उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। मैरिट और परीक्षा के आधर पर विश्वविद्यालय में प्रवेश पा गई लड़की को क्लास में से उठा दिया गया। इन सब लड़कियों का केवल एक ही अपराध था कि उन्होंने प्रदेश के बाहर के किसी लड़के से शादी के सात फेरे ले लिए थे या फिर निकाह करवाने आए मौलवी के पूछने पर कह दिया था कि निकाह कबूल। उनका निकाह कबूल कहना ही उनकी जिन्दगी पर भारी पड़ गया था। लेह आकाशवाणी केन्द्र की निदेशक छैरिंग अंगमो अपने तीन बच्चों समेत दिल्ली से लेकर श्रीनगर तक हर दरवाजा खटखटा आई, लेकिन सरकार ने उसे अब प्रदेश की स्थायी निवासी मानने से इन्कार कर दिया। क्योंकि उसने उ.प्र. के एक युवक से शादी करने का कुफ़्र किया था।
राज्य के न्यायालयों में इन दुखी महिलाओं के आवेदनों का अम्बार लग गया। ये लड़कियां जानती थी कि न्याय प्रक्रिया जिस प्रकार हनुमान की पूंछ की तरह लम्बी खिंचती जाती है, उसके चलते न्यायालय में गुहार लगाने वाली लड़की एम.बी.बी.एस. तो नहीं कर पाएगी, क्योंकि जब तक न्याय मिलेगा, तब तक उसके बच्चे एम.बी.बी.एस. करने की उम्र तक पहुंच जाएंगे। लेकिन ये बहादुर लड़कियां इसलिए लड़ रही थीं ताकि राज्य में औरत की आने वाली नस्लों को नेशनल काॅन्फ्रेंस और उस जैसी मध्ययुगीन मानसिकता रखने वाली शक्तियों की दहशत का शिकार न होना पड़े। राज्य की इन बहादुर लड़कियों की मेहनत आखिरकार रंग लाई। जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के पास सभी लम्बित मामले निर्णय के लिए पहुंचे। लम्बे अर्से तक कानून की धराओं में माथा पच्ची करने और अनुच्छेद 370 को आगे-पीछे से अच्छी तरह जांचने, राज्य के संविधान और महाराजा हरिसिंह द्वारा निश्चित किए गए स्थाई निवासी के प्रावधानों की चीर-पफाड़ करने के उपरान्त उच्च न्यायालय ने बहुमत से अक्टूबर 2002 में ऐतिहासिक निर्णय दिया। इस निर्णय के अनुसार जम्मू कश्मीर की लड़कियों द्वारा राज्य से बाहर के किसी युवक के साथ निकाह कर लेने के बाद भी उनका स्थायी निवासी होने का प्रमाण पत्र रद्द नहीं किया जा सकेगा । न्यायिक इतिहास में यह फैसला सुशीला साहनी केस के नाम से प्रसिद्ध हुआ । सारे राज्य की महिलाओं में खुशी की लहर दौड़ गई। दुखतरान-ए-जम्मू कश्मीर अंत में अपनी लड़ाई में कामयाब हो गई थी और उन्होंने अनुच्छेद 370 की आड़ में बैठे नारी
विरोधी लोगों को नंगा कर दिया था।
परन्तु इस निर्णय से उग्रवादियों से लेकर शांतवादी तक सभी उग्र हो गए। कश्मीर बार एसोसिएशन में तो बकायदा रूदाली का दृश्य उपस्थित हो गया। जिस वक्त जम्मू कश्मीर के इतिहास में यह जलजला आया उस वक्त राज्य में नैशनल कान्फ्रेंस की सरकार थी । अत: निर्णय किया गया कि इस बीमारी का इलाज यदि अभी न किया गया तो यह एक दिन लाइलाज हो जायेगी । बीमारी का इलाज करने में नैशनल कान्फ्रेंस भी उग्र हो गई । पुराना शेख अब्दुल्ला के वक़्त का हिकमत का थैली उठा लाई । उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले के निरस्त करने के लिये तुरन्त एक अपील उच्चतम न्यायालय में की गई । जम्मू कश्मीर की बेटियों को उनकी हिम्मत पर सजा सुनाने के लिये सी पी एम से लेकर पी डी पी तक अपने तमाम भेदभाव भुला कर इक्कठे हो गये । प्रदेश के सब राजनैतिक दल एक बड़ी खाप पंचायत में तब्दील हो गये । बेटियों का आनर किलिंग शुरु हुआ ।
लेकिन मामला अभी उच्चतम न्यायालय में ही लम्बित था कि नैशनल कान्फ्रेंस की सरकार १८ अक्तूबर २००२ को गिर गई । कुछ दिन बाद ही सोनिया कांग्रेस और पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी ने मिल कर साँझा सरकार बनाई । यह नई सरकार नैशनल कान्फ्रेंस की भी बाप सिद्ध हुई । इस ने सोचा उच्चतम न्यायालय का क्या भरोसा राज्य की लड़कियों के बारे में क्या फ़ैसला सुना दे । प्रदेश उच्च न्यायालय में इसका सबूत मिल ही चुका था । इसलिये लड़कियों को सबक़ सिखाने का यह आप्रेशन सरकार को स्वयं ही अत्यन्त सावधानी से करना चाहिये । इसलिये सरकार ने उच्चतम न्यायालय से अपनी अपील वापिस ले ली और विधान सभा में उच्च न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को निरस्त करने वाला बिल विधान सभा में पेश किया और यह बिल बिना किसी विरोध और बहस के छह मिनट में पारित कर दिया गया । विधि मंत्री मुज्जफर बेग ने कहा, औरत की पति के अलावा क्या औकात है ? विधान सभा में एक नया इतिहास रचा गया ।
उच्च न्यायालय में दो दशक से भी ज़्यादा समय में लड कर प्राप्त किये गये जम्मू कश्मीर की बेटियों के अधिकार केवल छह मिनट में पुनः छीन लिये गये । उसके बाद बिल विधान परिषद में पेश किया गया । लेकिन अब तक देश भर में हंगामा बरपां हो गया था । सोनिया कांग्रेस के लिये कहीं भी मुँह दिखाना मुश्किल हो गया । विधान परिषद में इतना हंगामा हुआ कि कुछ भी सुनाई देना मुश्किल हो गया । नैशनल कान्फ्रेंस और पी डी पी चाहे बाहर एक दूसरे के विरोधी थे लेकिन अब विधान परिषद के अन्दर नारी अधिकारों को छीनने के लिये एकजुट हो गये थे । सभापति के लिये सदन चलाना मुश्किल हो गया । उसने सत्र का अवसान कर दिया । इस प्रकार यह बिल अपनी मौत को प्राप्त हो गया । लेकिन नैशनल कान्फ्रेंस का गुस्सा सातवें आसमान पर था । खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे । राज्य की पहचान को खतरा घोषित कर दिया गया । उधर प्रदेश में ही श्रीनगर , जम्मू और लेह तक में महिला संगठनों ने प्रदेश के राजनैतिक दलों की मध्ययुगीन अरबी कबीलों जैसी जहनियत पर थूका । कश्मीर विश्वविद्यालय में छात्राओं में आक्रोश स्पष्ट देखा जा सकता था । यह प्रश्न हिन्दु सिक्ख या मुसलमान होने का नहीं था । यह राज्य में नारी अस्मिता का प्रश्न था । लेकिन इससे नैशनल कान्फ्रेंस , पी डी पी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा । यहाँ तक कि सी पी एम भी औरतों को इस हिमाक़त के लिये सबक़ सिखाने के लिये इन दोनों दलों के साथ मिल गई । लेकिन इस बार इन तीनों दलों के साँझा मोर्चा के बाबजूद बिल पास नहीं हो पाया । प्रदेश की औरतों ने राहत की साँस ली । औरतों को उनके क़ानूनी और प्राकृतिक अधिकारों से महरूम करने की कोशिश कितनी शिद्दत से की जा रही थी इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि नैशनल कान्फ्रेंस को बीच मैदान में शक हो गया कि उनके सदस्य और विधान परिषद के सभापति अब्दुल रशीद धर इस मुहाज में नारी अधिकारों के पक्ष में हो रहे हैं । पार्टी ने तुरन्त उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया ।
इतना कुछ हो जाने के बाबजूद राजस्व विभाग के अधिकारियों ने लड़कियों को स्थाई निवासी का प्रमाणपत्र जारी करते समय उस यह लिखना जारी रखा कि यह केवल उसकी शादी हो जाने से पूर्व तक मान्य होगा । इस के खिलाफ सितम्बर २००४ में भारतीय जनता पार्टी के प्रो० हरि ओम ने जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी । उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रमाण पत्र पर ये शब्द न लिखे जायें । सरकार ने ये शब्द हटा नये शब्द तैयार कर लिये । ” स्थाई प्रमाणपत्र लड़की की शादी हो जाने के बाद पुनः जारी किया जायेगा , जिस पर यह सूचित किया जायेगा कि लड़की ने शादी प्रदेश के स्थाई निवासी से की है या किसी ग़ैर से ।” प्रो० हरि ओम इसे न्यायालय की अवमानना बताते हुये फिर न्यायालय की शरण में गये । सरकार ने अपना यह बीमार मानसिकता वाला आदेश २ अगस्त २००५ को वापिस लिया तब जाकर मामला निपटा ।
सुशीला साहनी केस में उच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद इतना भर हुआ कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि जो लड़की प्रदेश से बाहर के किसी लडके से शादी करती है , वह भी पैतृक सम्पत्ति की उत्तराधिकारी हो सकती है । लेकिन वह इस सम्पत्ति का हस्तान्तरण केवल प्रदेश के स्थायी निवासी के पास ही कर सकती है । यह हस्तान्तरण वह अपनी सन्तान में भी नहीं कर सकती । अब उस सम्पत्ति का क्या लाभ जिसका उपभोग उसका धारक अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता ? इस हाथ से दिया और उस हाथ से वापिस लिया । इधर प्रदेश का नारी समाज इस अन्तर्विरोध को हटाने के लिये आगामी लड़ाई की योजना बना रहा था , उधर प्रदेश की अन्धकारयुगीन ताक़तें इन्हें सबक़ सिखाने की अपनी तिकड़मों में लगीं थीं । साम्प्रदायिक महिला विरोधी और उग्रवादी सब मिल कर मोर्चा तैयार कर रहे थे । इन साज़िशों की पोल तब खुली जब अचानक २०१० में एक दिन पी डी पी के प्रदेश विधान परिषद में नेता मुर्तज़ा खान ने प्रदेश की विधान परिषद में “स्थाई निवासी डिस्कुआलीफिकेशन बिल” प्रस्तुत किया । बिल में प्रदेश की उन्हीं लड़कियों के अधिकार छीन लेने की बात नहीं कही गई थी जो किसी अन्य राज्य के लडके से शादी कर लेतीं हैं बल्कि दूसरे राज्य की उन लड़कियों के अधिकारों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया गया था जो प्रदेश के किसी स्थाई निवासी से शादी करती हैं । ताज्जुब तो तब हुआ जब विधान परिषद के सभापति ने इस बिल को विचार हेतु स्वीकार कर लिया ,जबकि उन्हें इसे स्वीकार करने का अधिकार ही नहीं था , क्योंकि ऐसे बिल पहले विधान सभा के पास ही जाते हैं । इससे ज़्यादा ताज्जुब यह कि सोनिया कांग्रेस ने भी इसका विरोध नहीं किया । बिल के समर्थक चिल्ला रहे हैं कि औरत की हैसियत उसके पति के साथ ही होती है । पति से अलग उसकी कोई हैसियत नहीं । यदि औरत की स्वतंत्र हैसियत मान ली गई तो अनुच्छेद ३७० ख़तरे में पड़ जायेगा । कश्मीर की पहचान ख़तरे में पड़ जायेगी । इन पोंगापंथियों के लिहाज़ से आज जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद ३७० के लिये सबसे बडा ख़तरा वहाँ की महिला शक्ति ही है । यह अलग बात है कि मुर्तज़ा खान का यह बिल विधान परिषद में अपनी मौत आप मर गया क्योंकि ठीक वक़्त पर विरोध के स्वरों को सुन कर अचानक विधान परिषद के उप सभापति को यह एहलाम हो गया कि संविधान से ताल्लुक रखने वाले ऐसे बिल विधान सभा में रखे जाते हैं , परिषद की बारी बाद में आती है । चोर दरवाज़े से यह सेंध , प्रदेश की जागृत नारी शक्ति के कारण असफल हो गई ।
परन्तु एक बात साफ़ हो गई कि राज्य में नैशनल कान्फ्रेंस और पी डी पी दोनों ही अनुच्छेद ३७० को अरबी भाषा में लिखा ऐसा ताबीज़ समझते हैं जिसको केवल वही पढ़ सकते हैं , वही समझ सकते हैं और उन्हें ही इसकी व्याख्या का अधिकार है । ये मानवता विरोधी शक्तियाँ अनुच्छेद ३७० से उसी प्रकार प्रदेश के लोगों को आतंकित कर रही हैं जिस प्रकार कोई नजूमी अपने विरोधियों को जिन्ना़त से डराने की कोशिश करता है । अनुच्छेद ३७० का हौवा दिखा कर प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक ताक़तें प्रदेश में नारी समाज को बंधक बनाने का प्रयास कर रही हैं । नरेन्द्र मोदी ने जम्मू में ठीक ही प्रश्न किया था कि जो अधिकार उमर अब्दुल्ला को हैं वही अधिकार उसकी बहन सारा अब्दुल्ला को क्यों नहीं ? इसमें अनुच्छेद ३७० कहाँ आता है ? जब जम्मू कश्मीर में महिलाएँ अपने अधिकारो के लिये लड रही हैं तो फ़ारूख अब्दुल्ला कहते हैं , या खुदा , अब तो किसी लड़की से बात करते हुये भी डर लगता है ।
लड़की से डरने की ज़रुरत नहीं । अपने मन के अन्दर झांको तो सब डर खत्म हो जायेगा और तब राज्य की लड़कियों को अधिकार विहीन करने की ज़रुरत नहीं रहेगी । अजीब तिलस्म है । पी डी पी को डर है कि लड़कियों से अनुच्छेद ३७० ख़तरे में है । उग्रवादियों का कहना है कि राज्य की लडकियों द्वारा बाहर के लडकों शादी करने से कश्मीर की पहचान नष्ट हो रही है । और अब फ़ारूक़ बता रहे हैं कि उन्हें तो इस उम्र में भी लड़की से बात करते डर लगने लगा है । यह उस कश्मीर में हो रहा है जिसमें लल्लेश्वरी ने जन्म लिया था , जिसमें हब्बा खातून पैदा हुई थी । नरेन्द्र मोदी अनुच्छेद ३७० पर चर्चा की ही बात करते हैं तो उमर इंटरनेट पर चीं चीं करने लगते हैं और उधर इस अनुच्छेद की आड़ में राज्य की बेटियों को ही बलि का बकरा बनाया जा रहा है । उमर के दादा शेख अब्दुल्ला को अपनी आत्मकथा में जगह जगह दूसरों के शेअर टाँगने का शौक़ था । इस हालत पर यह उनके ख़ानदान की नज़र-
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम , वे क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता ।
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