दिल्ली
का श्वेत-रक्त
रक्त-श्वेत
हुआ दिल्ली का,
नहीं जानती
पीरपराई।
शहरी कदम
अनदेखा करते,
निर्धन
करता कैसे कमाई।
वो
क्या जाने कैसे होगी,
उदराग्नि
की लपटें शाँत।
निर्धन
निर्धनता को बढ़ रहा,
गाँव-गाँव
और प्राँत-प्राँत।
आँकड़ों में
चिल्लाती दिल्ली,
जे॰ डी॰
पी॰ की दर चमक लाई।
अरे!
ग्रामीण महिला को देखो,
तन पर फटी
धोती आई।
एक
धोती के दो हिस्से कर,
माँ-बेटी
ने ढका है तन।
दिल्ली
तुझको लाज न आती,
कब
पिघलेगा तेरा मन।
जनता से तो
तू नहीं डरती,
जनता की आह
से डर।
या तो उनकी
सुध ले ले,
अन्यथा
नष्ट हो जाएगा तेरा घर।
अनिच्छा
से ही शहरी सीमा,
लांघ
के कभी तो गाँव में आ।
भूखे-बिलखते
बूढ़े-बच्चे,
दिल्ली
दो रोटी तो ला।
तेरे
सिंहासन की चारों टाँगे,
इनके ही
कन्धों पर है।
फिर भी
आँकड़ों की क्रीड़ा में,
निर्धनता
हाशिये पर है।
नर-नारायण
होते ईश्वर,
स्वच्छ
हृदय में वास करें।
सुन
ले सदा को इनकी दिल्ली,
तुझसे
कुछ ये आस करें।
सदियों से
ये लड़ते आए,
निर्धनता
से दीर्घ लड़ाई।
समान विकास
हो देश का दिल्ली,
अब तो पाट
दो ये खाई।
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