गुरुवार, 4 अगस्त 2011

युवा संन्यासी / दिल्ली का श्वेत-रक्त

युवा संन्यासी

उठ भारत के सुप्त सिपाही, युवा संन्यासी आए हैं।
चिरनिद्रा से तुझे जगाकर, नवचेतना लाए हैं।

रामकृष्ण परमहंस सरीखे, संतों की ये बात करें।
नरेन्द्र को विवेकानन्द बनाने, का ये भी प्रयास करें।

कंटक-पथ पर तुम भी बढ़कर, ज्ञान की ज्योति जलाओगे।
इस आशा से तुम्हें जगाकर, इतिहास दोहराने आए हैं।

उठ भारत के सुप्त सिपाही, युवा संन्यासी आए हैं।
चिरनिद्रा से तुझे जगाकर, नवचेतना लाए हैं।

इनके मुख में रामदास और रामतीर्थ की वाणी है।
इच्छा तेरी वीर शिवा सी, संतों ने पहचानी है।

अफजलखाँ और शाइस्ताखाँ को, देश निकाला देना है।
धर्म स्थापना कैसे होगी, यह समझाने आए हैं।

उठ भारत के सुप्त सिपाही, युवा संन्यासी आए हैं।
चिरनिद्रा से तुझे जगाकर, नवचेतना लाए हैं।

चाणक्य-विदुर को ठुकराकर, शकुनि से मेल बढ़ाते जो।
जाति-पंथों के नाम पर, आपस में लड़वाते जो।

इन देशद्रोही जहरीले नागों से, बचके रहना हे नवयुवक।
तेरे अन्तर्मन में बसकर, तुझे जगाने आए हैं।

उठ भारत के सुप्त सिपाही, युवा संन्यासी आए हैं।
चिरनिद्रा से तुझे जगाकर, नवचेतना लाए हैं।

याद करो तुम ऋषि अरविन्द की, क्रान्ति-शोलों की गाथा।
बिस्मिल, सुभाष, आजाद, भगत का भारत माता से नाता।

सन् ६२, ६५ और ७१ के, योद्धाओं रणबाँकुरों को।
कारगिल में टाइगर हिल पर तिरंगे की, स्मृति दिलाने आए हैं।

उठ भारत के सुप्त सिपाही, युवा संन्यासी आए हैं।
चिरनिद्रा से तुझे जगाकर, नवचेतना लाए हैं।

फिर से खड़ा हुआ हिमालय, युवा संत के स्वागत को।
सागर की लहरें बढ़ती है, छूने जिनके चरणों को।

योगध्वज को लहराते, वाणी में अग्नि शोलों से।
ऋषि-मुनि के वंशज देखो, तुम्हें बताने आए हैं।

उठ भारत के सुप्त सिपाही, युवा संन्यासी आए हैं।
चिरनिद्रा से तुझे जगाकर, नवचेतना लाए हैं।

राणा की जंगल की रोटी, रानी के दत्तक बेटे को।
बन्दा की घायल आँखें और, गोविन्द के चारों बेटों को।

उठकर देखो तुम अपने, महापुरुषों को भूले बैठे हो।
इन अक्षम्य अपराधों से, तुम्हें बचाने आए हैं।

उठ भारत के सुप्त सिपाही, युवा संन्यासी आए हैं।
चिरनिद्रा से तुझे जगाकर, नवचेतना लाए हैं।

दिल्ली का श्वेत-रक्त

रक्त-श्वेत हुआ दिल्ली का,
नहीं जानती पीरपराई।
शहरी कदम अनदेखा करते,
निर्धन करता कैसे कमाई।
वो क्या जाने कैसे होगी,
उदराग्नि की लपटें शाँत।
निर्धन निर्धनता को बढ़ रहा,
गाँव-गाँव और प्राँत-प्राँत।
आँकड़ों में चिल्लाती दिल्ली,
जे॰ डी॰ पी॰ की दर चमक लाई।
अरे! ग्रामीण महिला को देखो,
तन पर फटी धोती आई।
एक धोती के दो हिस्से कर,
माँ-बेटी ने ढका है तन।
दिल्ली तुझको लाज न आती,
कब पिघलेगा तेरा मन।
जनता से तो तू नहीं डरती,
जनता की आह से डर।
या तो उनकी सुध ले ले,
अन्यथा नष्ट हो जाएगा तेरा घर।
अनिच्छा से ही शहरी सीमा,
लांघ के कभी तो गाँव में आ।
भूखे-बिलखते बूढ़े-बच्चे,
दिल्ली दो रोटी तो ला।

तेरे सिंहासन की चारों टाँगे,
इनके ही कन्धों पर है।
फिर भी आँकड़ों की क्रीड़ा में,
निर्धनता हाशिये पर है।

नर-नारायण होते ईश्वर,
स्वच्छ हृदय में वास करें।
सुन ले सदा को इनकी दिल्ली,
तुझसे कुछ ये आस करें।

सदियों से ये लड़ते आए,
निर्धनता से दीर्घ लड़ाई।
समान विकास हो देश का दिल्ली,
अब तो पाट दो ये खाई।

उमेश प्रताप वत्स

2 टिप्‍पणियां:

आपकी टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद!