गुरुवार, 4 अगस्त 2011

बरखा री बरखा, बरखा रानी,

n by परिकल्पना संपादकीय टीम | July 16, 2011 | 4


बरखा री बरखा, बरखा रानी,
ओ दीवानी तेरी मधुर कहानी।

धरती से तूने प्रीत बढ़ाई,
तभी बादलो से मुक्त हो आई।
ग्रीष्म ऋतु से झुलसे प्राणी,
प्रतीक्षारत्त सब अधम क्या ज्ञानी।

बादलों की तू महारानी,
इन्द्रसुता तू है मस्तानी।
तेरी रिमझिम बौछारों से,
मिट जाती है सब परेशानी।
बलखाती, अटखेली करती,
निकल पड़ी करने मनमानी।

कहीं गरजती कहीं बरसती,
कहीं बने भीषण तूफानी।
तेरी प्रथम बौछारों से,
सबके चेहरे खिल जाते हैं।
कीट-पतंगे तरूवर प्राणी,
पंछी भी चहचहाते हैं।

बौछारों से आगे चलकर,
क्यों बाढ़ की राह अपनाई।
कदम न ठिठके बरखा तेरे,
क्यों ताण्डव मचा दिया सांई।
बूढ़े बच्चों की चीत्कार,
झोंपड़-पट्टी में हाहाकार।
गाय-भैंसें और वन्य-जीव,
करबद्ध हे ईश रहे पुकार।
मानव को प्रकृति-दोहन की,
मैं मान रहा हूँ यही सजा।
किन्तु निर्धन-निर्दोषों की,
लाचारी को अब न और लजा।

अब शाँत होकर कदम रोक,
फिर अवसर दे अज्ञानी को।
मची त्राहि-त्राहि चारों ओर,
अब रोक ले इस मनमानी को।

मानव तुम भी प्रकृति का,
ये तीव्र दोहन बन्द करो।
बरखा रानी के आँचल में,
फिर से प्रेम-भाव भरो।

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