आलेख:
दीमक' नहीं देश को समर्पित है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
- डॉ उमेश प्रताप वत्स
पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राज्यसभा सदस्य दिग्विजय सिंह ने आरएसएस की तुलना दीमक से की। विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के बारे में इतने निचले स्तर पर ब्यान देना बुझते जा रहे फड़फड़ाते दीपक की स्थिती को ब्यान कर रहा था। यह कोई पहला अवसर नहीं है कि जब दिग्गी राजा ने आरएसएस के विरुध्द इस प्रकार का जहर उगला हो अपितु यदा-कदा जब भी उन्हें अवसर मिला दिग्गी राजा ने संघ परिवार के लिए विवादास्पद ब्यान देकर अपने साथ-साथ कांग्रेस को भी मुश्किल में डाला है। अभी हालिया ब्यान में उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि "आप ऐसे संगठन से लड़ रहे हैं, जो ऊपर से नहीं दिखता। जैसे घर में दीमक लगती है, यह उसी तरह से काम करता है।"
दीमक जिस वस्तु में लग जाती है उसे समाप्त कर देती है जबकि संघ 1925 से ही राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया में मौन तपस्वी बनकर सतत् प्रयासरत है।
आगे उन्होंने कहा कि, 'संघ रजिस्टर्ड संस्था नहीं है। इसकी सदस्यता नहीं है, कोई अकाउंट नहीं है। संघ का कोई कार्यकर्ता जब आपराधिक कृत्य में पकड़ा जाता है, तो वे कहते हैं कि हमारा सदस्य ही नहीं है।'
वर्तमान में वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के उक्त ब्यान को समझने की अति आवश्यकता है अन्यथा भारत के हजार टुकड़े चाहने वाले इस प्रकार के ब्यान को ही ढाल बनाकर वैमनस्य फैलाने का कुचक्र चलाने में ओर अधिक ताकत के साथ लगेंगे।
यह सही है कि संघ का कोई रजिस्ट्रेशन नहीं है ना ही कोई सदस्यता है और कोई अकाउंट भी नहीं है किंतु आनन्दित और आश्चर्यचकित कर देने वाली बात यह है कि रजिस्टर्ड संस्था न होने पर भी आरएसएस विश्व की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था है। सदस्यता न होने पर भी करोडों देशवासी तन-मन-धन से इसके साथ जुड़े हुए हैं। अकाउंट न होने पर भी पिछले 97 वर्षों से आज तक कभी धन को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ। "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं की प्रेरणा से राष्ट्रहित में सेवा कार्य करने वाले स्वयंसेवकों का संगठन है।" संस्थाएं रजिस्ट्रेशन इसलिए कराती है ताकि वह सरकार अथवा प्रशासन से आर्थिक सहयोग लेकर सामाजिक कार्यों की योजना बना सके और यह भी सच्चाई है कि उसे धनदाता की निष्ठा पर ही निर्भर रहना पड़ता है, उनके तौर-तरीकों से कार्य करना विवशता बन जाती है। ऐसी स्थिति में आप विशुध्द रूप से कदापि राष्ट्रीय कार्य को मूर्त रूप नहीं दे सकते। रही बात अपराध की तो संघ का इतिहास उठाकर देख लें। पूर्वाग्राही होकर आरोप तो बहुत लगाये गये किंतु जाँच के बाद सभी आरोप निराधार पाये गये। सबसे बड़ा आरोप तो तब लगा जब 30 जनवरी 1948 सांय लगभग सवा पांच बजे अपने अनुचरों से घिरे महात्मा गांधी की नत्थूराम गोडसे ने हत्या कर दी जिसका आरोप भी संघ पर ही लगाया गया। महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने का आरोप पूर्व में तो सावरकर की हिंदू महासभा पर लगाया गया किंतु शीघ्र ही राजनैतिक लाभ लेने के लिए आरोप की दिशा घुमाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर कर दी गई। कांग्रेस का एक वर्ग जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से असहज महसूस कर रहा था, उसे इस संगठन को खत्म करने का एक अच्छा अवसर नजर आया। अतः तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषणों में गांधी हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दोष देना शुरू कर दिया। उन्होंने अमृतसर में घोषणा की, ‘राष्ट्रपिता की हत्या के लिए आरएसएस जिम्मेदार है।’
जबकि कोर्ट में गोडसे के दिये गये ब्यान के अनुसार,"13 जनवरी 1948 को दिन में क़रीब 12 बजे महात्मा गांधी दो माँगो को लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गए। पहली माँग थी कि पाकिस्तान को भारत 55 करोड़ रुपए दे और दूसरी दिल्ली में मुसलमानों पर होने वाले हमले रुकें। गांधी की भूख हड़ताल के तीसरे दिन यानी 15 जनवरी को भारत सरकार ने घोषणा की कि वो पाकिस्तान को तत्काल 55 करोड़ रुपए देगी। 'बस! इसी निर्णय से व्यथित होकर मैंने महात्मा गांधी जी पर गोलियां चला दी।"
हत्या की योजना में शामिल आठ लोगों पर कोर्ट में मुकदमा दर्ज हुआ। जज आत्माचरण ने गांधी की हत्या में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी की सज़ा सुनाई। विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्टैया, गोपाल गोडसे और दत्तात्रेय परचुरे को आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई।
जज ने सावरकर को बेगुनाह करार दिया और उन्हें तत्काल रिहा करने का आदेश दिया और आरएसएस पर तो कोर्ट में कोई आरोप था ही नहीं फिर भी नेहरू जी के राजनैतिक भय के कारण संघ को बदनाम, अपमानित करने का घोर प्रयास हुआ। दुनिया में शायद ही किसी संगठन की इतनी आलोचना की गई होगी, वह भी बिना किसी आधार के। संघ के ख़िलाफ़ लगा हर आरोप आख़िर में पूरी तरह कपोल-कल्पना और झूठ साबित हुआ है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज भी कई लोग संघ को इसी नेहरूवादी दृष्टि से देखते हैं। गाँधी हत्या के बाद आरएसएस के सरसंघचालक गोलवरकर जी को जब नेहरू जी की जिद के कारण नागपुर में गिरफ्तार कर लिया गया तब उन्होंने कहा था कि, ‘संदेह के बादल जल्द छट जाएंगे और हम इससे बेदाग बाहर आएंगे। तब तक बहुत सारे अत्याचार होंगे, लेकिन हमें धैर्य के साथ यह सब सहन करना चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि संघ के स्वयंसेवक इस अग्निपरीक्षा में सफलता हासिल करेंगे।’ अंततः आरएसएस पर प्रतिबंध 11 जुलाई 1949 की आधी रात को ही हटाना पड़ा। गुरूजी को 13 जुलाई 1949 को बैतूल जेल से रिहा किया गया।
जब पाकिस्तानी सेना की टुकड़ियों ने अक्तुबर 1947 में कश्मीर की सीमा लांघने की कोशिश की तो सैनिकों के साथ कई स्वयंसेवकों ने भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए लड़ाई में प्राण दिए थे। विभाजन के दंगे भड़कने पर जब नेहरू सरकार पूरी तरह हैरान-परेशान थी तब संघ ने पाकिस्तान से जान बचाकर आए शरणार्थियों के लिए 3000 से ज़्यादा राहत शिविर लगाए थे।
सेना की मदद के लिए देश भर से संघ के स्वयंसेवक जिस उत्साह से सीमा पर पहुंचे, उसे पूरे देश ने देखा और सराहा। स्वयंसेवकों ने सरकारी कार्यों में और विशेष रूप से जवानों की मदद में पूरी ताकत लगा दी। सैनिक आवाजाही मार्गों की चौकसी, प्रशासन की मदद, रसद और आपूर्ति में मदद, और यहां तक कि शहीदों के परिवारों की भी चिंता संघ के स्वयंसेवकों ने की।
1965 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान लालबहादुर शास्त्री जी ने क़ानून-व्यवस्था की स्थिति संभालने में मदद देने और दिल्ली का यातायात नियंत्रण अपने हाथ में लेने का आग्रह किया ताकि इन कार्यों से मुक्त किए गए पुलिसकर्मियों को सेना की मदद में लगाया जा सके। घायल जवानों के लिए सबसे पहले रक्तदान करने वाले भी संघ के स्वयंसेवक थे। युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाईपट्टियों से बर्फ़ हटाने का काम संघ के स्वयंसेवकों ने किया था ताकि सेना के जहाज बिना गतिरोध के आवाजाही कर सके।
21 जुलाई 1954 को दादरा को पुर्तगालियों से संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा ही मुक्त कराया गया, 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई। संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया, पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया। संघ के स्वयंसेवक 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में प्रभावी रूप से शामिल हो चुके थे। संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू किया। हालत बिगड़ने पर अंततः भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और 1961 में गोवा आज़ाद हुआ।
आज भी कहीं कोई ट्रेन दुर्घटना हो, विमान दुर्घटना हो, चक्रवाती तुफान आये अथवा बाढ़ की विभीषिका हो सर्वप्रथम संघ के स्वयंसेवक ही अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।
"सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुख:भागभवेत।"
इस भारतीय चिंतन को प्रबल बनाने का एक मात्र यशस्वी साधन संघ कार्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन के माध्यम से इस राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचाने का उदात्त लक्ष्य अपने सामने रखा है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को जागृत संस्कारित संगठित कर शक्तिशाली समाज एवं राष्ट्रीय जीवन की योजना बनाई है तथा दैनिक शाखा व अन्य विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में प्रचलित ऊंच- नीच, छुआछूत आदि रूढ़ियों को समाप्त कर समरसता एवं स्वाभिमान का भाव जगाकर ,अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता हुआ दिखाई दे रहा है। अतः देश की जनता अब सही और गलत का निर्णय लेने में सक्षम है। किसी को भी आरएसएस जैसे सर्वमान्य संगठन के बारे में विवादित ब्यान देने से बचना चाहिए।
- डॉ उमेश प्रताप वत्स
यमुनानगर, हरियाणा
9416966424