सोमवार, 8 अगस्त 2022

मुद्दों से भटके नेता, अब चला नया दाँव - चित्त भी मेरी पट भी

 आलेख :

मुद्दों से भटके नेता, अब चला नया दाँव - चित्त भी मेरी पट भी

- डॉ उमेश प्रताप वत्स 

आपने वह कहावत तो सुनी ही है कि चाकू चाहे खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर गिरे अंतोगत्वा दोनों ही सूरत में कटना तो खरबूजे को ही है। चुनाव के दिन-प्रतिदिन बदलते परिवेश में यह कहावत सही साबित हो रही है कि शिकारी कोई भी दांव चले जाल में फंस कर फड़फड़ाना तो बेचारी जनता को ही है। वर्तमान चुनावी घमासान में ऐसी परिस्थिति बना दी गई है कि जनता के मुद्दे तो गये तेल लेने। बस विरोधी को पटखनी कैसे देनी है, सारा दारोमदार इसी पर है। हर ब्यान पर हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेला जाता है, मुस्लिम को भयभीत कर असुरक्षित होने का एहसास कराया जाता है। विपक्ष ने सत्तासीन पार्टी को धराशायी करने के लिए अभी भी कुछ मिसाइल संजोये रखी हुई है। असहनशीलता का शस्त्र बेशक कमजोर पड़ गया हो किंतु सांप्रदायिकता का घिसा-पीटा मुद्दा अब भी चल जाता है। इस बेदम मुद्दे को समय-समय पर सात समंदर पार से भी धार मिल जाती है। वे जब चाहे घोषणा कर देते हैं कि इस्लाम खतरे में है या सिख, इसाई खतरें में है। बेशक मुस्लिम का भविष्य शिक्षा के कारण, रोजगार के कारण, भाईचारे के कारण या कट्टरता के कारण खतरे में हो किंतु जमीनी समस्याओं से क्या लेना यदि वे दूर हो गई तब उनको भ्रमित करना भी तो मुश्किल होगा। अतः इतना कहना पर्याप्त है कि यदि योगी-मोदी फिर से आ गये तो फलां-फलां खतरे में है। दूसरी मिसाइल है दलित, पिछड़ी जातियों की। उन्हें भी रात-दिन डराया जाता है कि तुम्हारा आरक्षण छिन लिया जायेगा। तुम्हें सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया जायेगा। बिहार के पिछले चुनावों में सभी राजनैतिक विश्लेषक भाजपा की एक पक्षीय लहर बता रहे थे किंतु जैसे ही डॉ मोहन भागवत ने कहीं किसी परिपेक्ष्य में यह ब्यान दिया कि आरक्षण की पुनः समीक्षा होनी चाहिए। बस! यह ब्यान मुर्दा पार्टियों के लिए ऐसा रामबाण सिद्ध हुआ कि उन्होंने इसे हाथों-हाथ लपक लिया और कोमा में पड़े लालूजी उछलकर पहुंच गए जनता के बीच कि, 'हमार होते हुए कोनो माइ का लाल हमार भाइयों का आरक्षण छिन सकत है।' यद्यपि भागवत जी का मन्तव्य उन लोगों तक आरक्षण पहुंचाने का था जो वर्षों के बाद भी गरीबी का जीवन जी रहे हैं किंतु राजनैतिक बिसात पर सफाई देने का समय नहीं मिलता औैर उस ब्यान को हथियार बनाकर पिछड़ों का मसीहा बन लालू जी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आये। 

यह राजनैतिक मैदान तो ऐसे दलदल का समन्दर है कि न जाने अगला पड़ने वाला कदम आपको किस हाल में लेकर खड़ा कर दे। अभी यूपी में सरकार के रणबाँकुरे अति उत्साह में जैसे ही अपने किये गये कामों का हिसाब देने जनता के दरबार में पहुंचे तो विपक्ष के नेता जी ने भी मौके पर चौका जड़ते हुए रटी-रटाई बात फिर से दोहराते हुए कहना शुरु कर दिया कि इन्होंने किया क्या है अब तक, सड़कें हमने बनानी थी, फ्लाईऑवर हमने बनाने थे, मैडिकल कॉलेज की हमारी योजना थी, स्मार्ट सिटी का प्रोजेक्ट भी हमारा था। हम रिबन बाँधते गये और ये मौकापरस्त रिबन काटकर अपना नाम किये जा रहे हैं। अब कोई नेता जी से पूछे कि जब तुम्हें जनता ने पाँच वर्षों के लिए सिंहासन पर बैठाया था तो क्या केवल रिबन बाँधने के लिए बैठाया था। भाई कहीं रिबन काटकर या बिना काटे एक-आध प्रोजेक्ट पूरा तो करा देते। लेकिन जब दो इंच लंबी जुबान से ही काम चल जाये तो फिर विकास का बुलडोजर चलाने की क्या आवश्यकता? चुनाव के मैदान में इतनी खिचड़ी है कि ज्ञात ही नहीं हो पाता की युधिष्ठिर की सेना कौन सी है और दुर्योधन की कौन सी, कौन किसके पक्ष में है किसके विपक्ष में। यहां तो हर-एक सेना एक दूसरे से भिड़ती दिखाई दे रही है। कोई वोट लेने के लिए लड़ रहा है तो कोई वोट काटने के लिए और कोई तो यही गणित सजाकर बैठा है कि यदि मैंने इतने प्रतिशत वोट ले लिये तो फ्लां पार्टी को कितना नुकसान होगा और फ्लां को कितना। अधिकतर नेता जनता को आकर्षित करने के लिए नेक नीयत से उनके मुद्दे उठाने की अपेक्षा चुनाव मैनेजरों के तिकड़मबाज गणित पर ज्यादा निर्भर है। एक बहुत ही समझदार नेता जी पिछली सरकारों द्वारा की गई गल्तियों की सूची लेकर जैसे ही मीडिया में पहुँचे तो सामने वाले नेता जी ने उनके सूची बांचने से पहले ही चिल्लाना शुरु कर दिया कि महिला इस सरकार में असुरक्षित है, सबसे ज्यादा रेप हो रहे हैं, माफियाओं की सरकार चल रही है। रेपिस्ट का बचाव करने वाली सरकार है, साम्प्रदायिकता का जहर घोलती है, अपने-अपने लोगों को रेवड़ी की तरह नौकरियाँ बाँट रहे हैं, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं, विकास कोई किया नहीं विनाश करने पर तुले हुए हैं। मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुस्लिम करते हैं, लोगों की सुध नहीं है। अब सूची वाले नेता जी तो देखते रह गये। यही सब तो वह सूचीबद्ध करके कहने आये थे किंतु यह तो उन्हीं पर उडेल दिया गया। यह है मौके पर चौका। यह प्रयोग बहुत दमदार तरीके से चल रहा है कि कोई मुझे बेईमान कहे तो मैं पहले से ही चिल्लाना शुरु कर दूं कि यह दुनिया का सबसे बेईमान व्यक्ति है, इसके बाद यदि वह कहेगा भी तो बेअसर हो जायेगा। जनता को निरा मूर्ख समझने वाले नेता चुनावी मौसम में इतने रंग दिखाना शुरु कर देते हैं कि गिरगिट भी शरमा जाये। कोई सबकी लैला बनकर सबका मनोरंजन कर रहे हैं तो कोई सबका खसम बनकर दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं। सीमा पर पाकिस्तान का खतरा है या चीन घात लगाये बैठा है इन सब फालतू की बातों से नेता जी का क्या सरोकार। उनको तो यह पता है कि यदि इस बार भी गद्दी न मिली तो जो सेनापति सुविधाओं के लोभ में छतरी उठाकर साथ चल रहे हैं बाद में ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे। दूसरा नेता जी को यह भय भी सता रहा है कि पिछले दस वर्षों में जो राष्ट्र उत्थान का एक ढाँचा खड़ा हुआ है कहीं फिर से जीतने पर स्थाई भवन तैयार न हो जाए तो रही सही राजनीति की दुकान बंद होने के मुहाने पर खड़ी होगी। ये कभी धारा 370 पर, राममंदिर या तीन तलाक पर बहस नहीं करेंगे क्योंकि उन विषयों पर ये सभी बैकफुट पर है अपितु बहस या ब्यानबाजी उन मुद्दों पर अथवा देशहित के मुद्दों की ओर न जा सके इसी पर पूरा फोक्स रखते हैं तभी नेता जी सत्तारूढ़ पार्टी के सिपहसलारों को निरुत्तर करने के लिए उन्हीं बातों को रखने के माहिर होते हैं जो उनके लिए उठाई जा सकती है, वे पहले ही काऊंटर फाइट छेड़ देते हैं। कहीं न कहीं जनता भी इन्हें यह विश्वास दिला देती है कि पिछले पांच वर्षों में तुमने क्या किया था हमें कुछ याद नहीं है हम तो बस बदलाव चाहते हैं वह अलग बात है कि बाद में यह बदलाव कितना मंहगा पड़ सकता है। सत्तासीन भी सक्षम सारथी पाकर हवा में उड़ रहे हैं कि सब अपने-आप हो जायेगा, हमें कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। देश का क्या होगा, देश किन हाथों में सुरक्षित रहेगा यदि फिर से सेना की थाली को ही हजम करने वाले आ जाते हैं तो इसके कसूरवार वे भी रहेंगे जो हवा में ही उड़ रहे थे और अपने दायित्व को ठीक से निभाने में असक्षम रहे। देश की जनता को भी जागना पड़ेगा कि हम इतने भी मूर्ख नहीं है कि अच्छा-बुरा भी न समझ पाये। देश इस बात का साक्षी है कि भीड़तंत्र की अपेक्षा मौन धारण किये वो वोटर विजयी मुकुट पहनाते है जो सभी परिस्थितियों को देख-समझकर आने वाली पीढ़ी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए मैदान में उतरते हैं बशर्ते वह वोट डालने घर से बूथ तक आ जाये। अन्यथा पश्चिम बंगाल में कोरोना के भय से यही मौन तपस्वी घरों में दुबके रह गये और सैंकड़ों सीटे एक हजार से भी कम अन्तर पर दीदी जीतकर ले गई। राजनीति में जीत का महत्व है कैसे मिली यह सब समय की रेत में ढक जाता है। अतः जनता को ही नये भारत के निर्माण के लिए आगे आना होगा। 

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 

umeshpvats@gmail.com

यमुनानगर, हरियाणा 

9416966424 

सोमवार, 17 जनवरी 2022

'दीमक' नहीं देश को समर्पित है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

आलेख: 

दीमक' नहीं देश को समर्पित है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

- डॉ उमेश प्रताप वत्स

पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राज्यसभा सदस्य दिग्विजय सिंह ने आरएसएस की तुलना दीमक से की। विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के बारे में इतने निचले स्तर पर ब्यान देना बुझते जा रहे फड़फड़ाते दीपक की स्थिती को ब्यान कर रहा था। यह कोई पहला अवसर नहीं है कि जब दिग्गी राजा ने आरएसएस के विरुध्द इस प्रकार का जहर उगला हो अपितु यदा-कदा जब भी उन्हें अवसर मिला दिग्गी राजा ने संघ परिवार के लिए विवादास्पद ब्यान देकर अपने साथ-साथ कांग्रेस को भी मुश्किल में डाला है। अभी हालिया ब्यान में उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि "आप ऐसे संगठन से लड़ रहे हैं, जो ऊपर से नहीं दिखता। जैसे घर में दीमक लगती है, यह उसी तरह से काम करता है।"

दीमक जिस वस्तु में लग जाती है उसे समाप्त कर देती है जबकि संघ 1925 से ही राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया में मौन तपस्वी बनकर सतत् प्रयासरत है।

आगे उन्होंने कहा कि, 'संघ रजिस्टर्ड संस्था नहीं है। इसकी सदस्यता नहीं है, कोई अकाउंट नहीं है। संघ का कोई कार्यकर्ता जब आपराधिक कृत्य में पकड़ा जाता है, तो वे कहते हैं कि हमारा सदस्य ही नहीं है।'

वर्तमान में वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के उक्त ब्यान को समझने की अति आवश्यकता है अन्यथा भारत के हजार टुकड़े चाहने वाले इस प्रकार के ब्यान को ही ढाल बनाकर वैमनस्य फैलाने का कुचक्र चलाने में ओर अधिक ताकत के साथ लगेंगे।

यह सही है कि संघ का कोई रजिस्ट्रेशन नहीं है ना ही कोई सदस्यता है और कोई अकाउंट भी नहीं है किंतु आनन्दित और आश्चर्यचकित कर देने वाली बात यह है कि रजिस्टर्ड संस्था न होने पर भी आरएसएस विश्व की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था है। सदस्यता न होने पर भी करोडों देशवासी तन-मन-धन से इसके साथ जुड़े हुए हैं। अकाउंट न होने पर भी पिछले 97 वर्षों से आज तक कभी धन को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ। "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं की प्रेरणा से राष्ट्रहित में सेवा कार्य करने वाले स्वयंसेवकों का संगठन है।" संस्थाएं रजिस्ट्रेशन इसलिए कराती है ताकि वह सरकार अथवा प्रशासन से आर्थिक सहयोग लेकर सामाजिक कार्यों की योजना बना सके और यह भी सच्चाई है कि उसे धनदाता की निष्ठा पर ही निर्भर रहना पड़ता है, उनके तौर-तरीकों से कार्य करना विवशता बन जाती है। ऐसी स्थिति में आप विशुध्द रूप से कदापि राष्ट्रीय कार्य को मूर्त रूप नहीं दे सकते। रही बात अपराध की तो संघ का इतिहास उठाकर देख लें। पूर्वाग्राही होकर आरोप तो बहुत लगाये गये किंतु जाँच के बाद सभी आरोप निराधार पाये गये। सबसे बड़ा आरोप तो तब लगा जब 30 जनवरी 1948 सांय लगभग सवा पांच बजे अपने अनुचरों से घिरे महात्मा गांधी की नत्थूराम गोडसे ने हत्या कर दी जिसका आरोप भी संघ पर ही लगाया गया। महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने का आरोप पूर्व में तो सावरकर की हिंदू महासभा पर लगाया गया किंतु शीघ्र ही राजनैतिक लाभ लेने के लिए आरोप की दिशा घुमाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर कर दी गई। कांग्रेस का एक वर्ग जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से असहज महसूस कर रहा था, उसे इस संगठन को खत्म करने का एक अच्छा अवसर नजर आया। अतः तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषणों में गांधी हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दोष देना शुरू कर दिया। उन्होंने अमृतसर में घोषणा की, ‘राष्ट्रपिता की हत्या के लिए आरएसएस जिम्मेदार है।’

जबकि कोर्ट में गोडसे के दिये गये ब्यान के अनुसार,"13 जनवरी 1948 को दिन में क़रीब 12 बजे महात्मा गांधी दो माँगो को लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गए। पहली माँग थी कि पाकिस्तान को भारत 55 करोड़ रुपए दे और दूसरी दिल्ली में मुसलमानों पर होने वाले हमले रुकें। गांधी की भूख हड़ताल के तीसरे दिन यानी 15 जनवरी को भारत सरकार ने घोषणा की कि वो पाकिस्तान को तत्काल 55 करोड़ रुपए देगी। 'बस! इसी निर्णय से व्यथित होकर मैंने महात्मा गांधी जी पर गोलियां चला दी।"

हत्या की योजना में शामिल आठ लोगों पर कोर्ट में मुकदमा दर्ज हुआ। जज आत्माचरण ने गांधी की हत्या में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी की सज़ा सुनाई। विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्टैया, गोपाल गोडसे और दत्तात्रेय परचुरे को आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई।

जज ने सावरकर को बेगुनाह करार दिया और उन्हें तत्काल रिहा करने का आदेश दिया और आरएसएस पर तो कोर्ट में कोई आरोप था ही नहीं फिर भी नेहरू जी के राजनैतिक भय के कारण संघ को बदनाम, अपमानित करने का घोर प्रयास हुआ। दुनिया में शायद ही किसी संगठन की इतनी आलोचना की गई होगी, वह भी बिना किसी आधार के। संघ के ख़िलाफ़ लगा हर आरोप आख़िर में पूरी तरह कपोल-कल्पना और झूठ साबित हुआ है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि आज भी कई लोग संघ को इसी नेहरूवादी दृष्टि से देखते हैं।  गाँधी हत्या के बाद आरएसएस के सरसंघचालक गोलवरकर जी को जब नेहरू जी की जिद के कारण नागपुर में गिरफ्तार कर लिया गया तब उन्होंने कहा था कि, ‘संदेह के बादल जल्द छट जाएंगे और हम इससे बेदाग बाहर आएंगे। तब तक बहुत सारे अत्याचार होंगे, लेकिन हमें धैर्य के साथ यह सब सहन करना चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि संघ के स्वयंसेवक इस अग्निपरीक्षा में सफलता हासिल करेंगे।’ अंततः आरएसएस पर प्रतिबंध 11 जुलाई 1949 की आधी रात को ही हटाना पड़ा। गुरूजी को 13 जुलाई 1949 को बैतूल जेल से रिहा किया गया।

जब पाकिस्तानी सेना की टुकड़ियों ने अक्तुबर 1947 में कश्मीर की सीमा लांघने की कोशिश की तो सैनिकों के साथ कई स्वयंसेवकों ने भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए लड़ाई में प्राण दिए थे। विभाजन के दंगे भड़कने पर जब नेहरू सरकार पूरी तरह हैरान-परेशान थी तब संघ ने पाकिस्तान से जान बचाकर आए शरणार्थियों के लिए 3000 से ज़्यादा राहत शिविर लगाए थे।

सेना की मदद के लिए देश भर से संघ के स्वयंसेवक जिस उत्साह से सीमा पर पहुंचे, उसे पूरे देश ने देखा और सराहा। स्वयंसेवकों ने सरकारी कार्यों में और विशेष रूप से जवानों की मदद में पूरी ताकत लगा दी। सैनिक आवाजाही मार्गों की चौकसी, प्रशासन की मदद, रसद और आपूर्ति में मदद, और यहां तक कि शहीदों के परिवारों की भी चिंता संघ के स्वयंसेवकों ने की।

1965 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान लालबहादुर शास्त्री जी ने क़ानून-व्यवस्था की स्थिति संभालने में मदद देने और दिल्ली का यातायात नियंत्रण अपने हाथ में लेने का आग्रह किया ताकि इन कार्यों से मुक्त किए गए पुलिसकर्मियों को सेना की मदद में लगाया जा सके। घायल जवानों के लिए सबसे पहले रक्तदान करने वाले भी संघ के स्वयंसेवक थे। युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाईपट्टियों से बर्फ़ हटाने का काम संघ के स्वयंसेवकों ने किया था ताकि सेना के जहाज बिना गतिरोध के आवाजाही कर सके।

21 जुलाई 1954 को दादरा को पुर्तगालियों से संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा ही मुक्त कराया गया, 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई। संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया, पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया। संघ के स्वयंसेवक 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में प्रभावी रूप से शामिल हो चुके थे। संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू किया। हालत बिगड़ने पर अंततः भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और 1961 में गोवा आज़ाद हुआ।

आज भी कहीं कोई ट्रेन दुर्घटना हो, विमान दुर्घटना हो, चक्रवाती तुफान आये अथवा बाढ़ की विभीषिका हो सर्वप्रथम संघ के स्वयंसेवक ही अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।

"सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया,

सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुख:भागभवेत।"

इस भारतीय चिंतन को प्रबल बनाने का एक मात्र यशस्वी साधन संघ कार्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन के माध्यम से इस राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचाने का उदात्त  लक्ष्य अपने सामने रखा है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को जागृत संस्कारित संगठित कर शक्तिशाली समाज एवं राष्ट्रीय जीवन की योजना बनाई है तथा दैनिक शाखा व अन्य विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में प्रचलित ऊंच- नीच, छुआछूत आदि रूढ़ियों को समाप्त कर समरसता एवं स्वाभिमान का भाव जगाकर ,अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता हुआ दिखाई दे रहा है। अतः देश की जनता अब सही और गलत का निर्णय लेने में सक्षम है। किसी को भी आरएसएस जैसे सर्वमान्य संगठन के बारे में विवादित ब्यान देने से बचना चाहिए।

- डॉ उमेश प्रताप वत्स

umeshpvats@gmail.com

यमुनानगर, हरियाणा

9416966424


मंगलवार, 4 जनवरी 2022

लघुकथा - शादी

 जैसे ही अमरसिंह की रिंगटोन बजी, श्मशानघाट में सबका ध्यान उसकी ओर गया। थोड़ा पीछे होकर फोन रिसीव करते हुए पत्नी को बोले, "तुम तैयार होकर बाहर रोड़ पर आ जाओ," यही से सीधे शादी में चल पड़ेंगे।"


कहानी-संग्रह "उम्र की साँझ पर" समीक्षा

 साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह कथन निसंदेह सत्य है जिसकी प्रमाणिकता के लिए आप किसी भी काल खंड का अध्ययन करके देख लीजिए। मुंशी प्रेमचंद, भारती, निराला, पंत, दिनकर आदि रचनाकारों ने तात्कालिक परिस्थितियों का चरित्रचित्रण अपनी कृतियों में किया है। रचनाकार के कृतित्व से ही व्यक्तित्व झलकता है। लेखक अपने समस्त जीवन की अंतर्व्यथाओं और संघर्षों का अनुभव एक दर्पण की भांति समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है जो मार्गदर्शन का अद्भुत व अनुपम उदाहरण होता है जिस पर चलकर हम अपना जीवन सुगम बना सकते हैं और बनाते भी है। साहित्य ने ही सर्वथा समाज की दिशा तय की है। इसी कड़ी में डॉ उमेश प्रताप वत्स जी का प्रस्तुत कहानी-संग्रह "उम्र की साँझ पर " एक प्रबल उदाहरण है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि प्रस्तुत कहानी-संग्रह को यदि संस्मरणात्मक कथा-संग्रह कहा जाए।

इस संग्रह की कहानियाँ 'आखिर वह कौन था' 'चरखों की पंचायत', 'बहू का धर्म', 'एडवेंचर कैंप', 'उम्र की साँझ पर', 'सज्जन पुरुष', 'दया' और 'स्कूल की फीस' की लेखक ने काल्पनिक रचना नहीं की है अपितु इनमें मुख्य पात्र या सहायक पात्र के अपने बाल्यकाल, किशोर एवं यौवन काल का जीवंत अभिनय किया है और आज अर्थात् वर्तमान काल में पूर्ण ईमानदारी के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दी है। साहित्यकार अपनी कृतियों के माध्यम से समाज के समक्ष जीवन के सैद्धांतिक पक्ष के साथ-साथ प्रयोगात्मक पक्ष भी रखते हैं। डॉ उमेश प्रताप वत्स जी ने जीवन के प्रयोगात्मक पक्ष में अपने अब तक के समस्त जीवन की तपस्या को अति सुंदर ढ़ंग से प्रस्तुत किया है जिसमें संस्कारों के उच्चतम आयामों को छूने के साथ मानवीय, पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों का प्रदर्शन बखूबी किया है। 

'आखिर वह कौन था' कहानी में डॉ वत्स ने छात्रावास में रहने वाले किशोरावस्था छात्रों की

जिज्ञासाओं, मन में उपजी आशंकाओं को भय व साहस के मिश्रित भावों के साथ सफलतापूर्वक उकेरा है। 'स्कूल की फीस' भी उसी कालखंड का दर्शन करवाने के साथ-साथ छात्रों की मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना के साथ-साथ विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में भी माता-पिता के मानसिक व शारीरिक संघर्ष को उकेरती है जो सैंकड़ों कष्टों को सहते हुए भी अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए कटिबद्ध है। 'चरखों की पंचायत' कहानी ने दादी-नानी की स्मृति को पुनः जीवित कर दिया जो मेरे अनुसार प्रत्येक बच्चें के जीवन में स्वर्णकाल की भांति है। आज की भौतिक जिंदगी में शायद ही उस सुखद दृश्य की कल्पना कर सके जो लेखक ने इस कहानी में प्रस्तुत किया है। उस समय कैसे दादी, ताई, चाची व आस-पड़ोस की महिलाएं सामूहिक रूप से चरखा कातती हुई परम्परागत लोकगीतों की बारिश करती थी। चरखा कातना व्यवसाय के साथ-साथ महिलाओं की समस्याओं को उठाने का केंद्र भी होता था। लेखक ने इस कहानी में बालिका शिक्षा पर भी जोर दिया है। 'बहू का धर्म' कहानी में संस्कारी बहू अपने मान-सम्मान की चिंता न कर अपने ससुर की मर्यादा बनाए रखने के लिए अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करती है। निज हित को त्याग ससुराल हित के लिए झंझावातों में उलझकर भी अपना पथ नहीं त्यागती। 

 'एडवेंचर कैंप' कहानी में प्रेम में उपेक्षित युवा अपने क्षोभ को शांत करने के लिए हिंसा पर उतर आता है। 

 'सज्जन पुरुष' कहानी के माध्यम से लेखक ने समाज के ऐसे लोगों पर कटाक्ष किया है जो अपनी सुविधानुसार मुखौटे बदलता रहता है। उसे सामाजिक पीड़ाओं से कोई सरोकार नहीं है। वह केवल और केवल निज हित का ही चिंतन करता है। सज्जन पुरुष तो अन्य व्यक्तियों को भी यही सुझाव देते हैं कि दूसरों के जीवन में उपजी कठिनाइयों में हस्तक्षेप करना असमाजिक व अमर्यादित कार्य है। 

 'दया' कहानी के माध्यम से लेखक ने दर्शाया है कि किस प्रकार लोग स्वार्थ-सिद्धि के लिए संवेदनशील व सहायक प्रवृत्ति वाले इंसानों की भावनाओं से खेलकर ठगने का कार्य करते हैं। इनके इन अनुचित कृत्यों से कई बार जरूरतमंद व्यक्ति सहायता पाने से वंचित रह जाते हैं। 

 कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी "उम्र की साँझ पर" में मुख्य पात्र कुश्ती का सुप्रसिद्ध खिलाड़ी है जो आस-पास के क्षेत्र की शान है। समाज में उसके व्यक्तित्व का प्रभुत्व व लोगों के दिल में अगाध श्रद्धा के उपरांत उम्र की ढलान पर संतान द्वारा उपेक्षित किये जाने पर वह यमराज की कृपा की अपेक्षा करता है। मानवीय व पारिवारिक मूल्यों के ह्रास पर डॉ. वत्स ने सफलतापूर्वक उदाहरण प्रस्तुत किया है। 

 "कुली नं. 122" बॉलीवुड की चकाचौंध से प्रेरित युवाओं को घर से भागने की स्थिति को इंगित करती है। लंबे संघर्ष व टूटते मनोबल के कारण उन्हें अन्य कार्य करने को विवश होना पड़ता है। कहानी "आइ. पी. एस. नेता" में संस्कारी युवा अंतिम क्षणों में अपना धैर्य नहीं टूटने देता और जनता के समर्थन से संघर्ष करता हुआ भ्रष्ट तंत्र के विरुद्ध खड़ा रहता है और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यथासंभव प्रयास करता है और तमाम अवरोधों के बावजूद कर्त्तव्य पथ पर निरंतर बढ़ता रहता है।

 डॉ वत्स ने अपनी इस कृति के माध्यम से युवाओं को झकझोरते हुए निस्वार्थ कर्म करने और प्रेरणा देने का कार्य सफलतापूर्वक किया है। लेखक ने युवाओं की भावना का सही व सटीक विश्लेषण कर उनके उत्तम मार्गदर्शन का सफल प्रयास किया है। लेखक के सार्थक प्रयास ने उनके उद्देश्य की सफल प्राप्ति कर ली है, यह कहने में मुझे कोई संदेह नहीं है।

 छात्रावास, जीवन के संघर्ष, विविध आयामों एवं साहसिक घटनाओं का प्रतिफल है कहानी-संग्रह। भाषा की दृष्टि से भी यह उत्तम कृति है। जिसमें लेखक ने आम बोलचाल की भाषा के स्तर को स्थानीय शब्दों का प्रयोग करते हुए उच्चतम श्रेणी तक उठा दिया है। ग्रामीण कहावतों व लोकगीतों की पंक्तियो को उत्तम ढ़ग से समायोजित कर इन्होंने पुस्तक को उच्च स्तरीय बना दिया है। भाषा शैली का प्रभाव पाठकवृंद को पुस्तक से जोड़ने में सहायक सिद्ध हुआ है। उत्तम साहित्य प्रेमियों को यह कहानी-संग्रह अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि यह पुस्तक आन्नद के साथ-साथ साहित्यिक संतुष्टि भी प्रदान करती है।

 समीक्षक

 नरेश चौधरी

 मांधना, पंचकूला