रविवार, 12 जनवरी 2014

कोहरे की धुन्ध

कोहरे की धुन्ध


घर की चारदीवारी में, था मौसम का ज्ञान नहीं।
द्वार खोलकर झाँका बाहर तो, मानो बादल खड़ा यही।

बिच्छू के डंक जैसे कुछ, शीत-लहर ने चपत लगाई।
आह-ह-ह उहू-हू-हू करते दौड़े, हवा भी अन्दर घुस आई।

किट-किट दाँत, ठिठुरन में, गात भी जैसे जुड़ गया।
ठंडे हुए गर्मवस्त्र भी, गर्मी का प्रभाव उड़ गया।

मोटे-सोटे वस्त्र धारण कर, मोटर-गाडी पर चल दिया।
गज-भर आगे अन्धेरा था, सब धुंधला ही दिखाई दिया।

मन-दृष्टि ने दौड़ लगाई, पर्वतीय झोंपड़-पट्टी में।
जन-सुविधाओ से वंचित वो जन, जीवन बिताएं मिट्टी में।

ठंडक-ठिठुरन ठिठक गई, देख जीवटता पहाड़ी की।
जटिल पहाड़ी पगडंडी, ठंडक संग उनके कदमो में।

पहूँचा मन सड़कों पर देखा, लटका बच्चा कटि-वस्त्र में।
ठंड भगाती महिला को, पाषाण-चूर हथोड़ी कर में।

छोटे कदमों संग कदमताल, करता पहुँचा पीछे-पीछे।
स्वयं से भारी बस्तो के संग, देखा ठंड को उनसे पीछे।

न चाहते भी पहुँच गया, मन संसद के गलियारो में।
गेंद बनी थी जहाँ ठंडक, राजनैतिक दरबारों में।

भ्रष्टाचार की भट्टी में, ठिठुरन भी मानो हार गई।
देख के गर्मी नोटों की, कुर्सी छोड़ के भाग गई।

एक धुंध थी देश के अन्दर, सर्द-मौसम बहारों की।
मिट न पाएगी जटिल धुंध ये, भ्रष्टाचार कतारों की।

                                                            इस कोहरे को दूर करो, भविष्य देश का तभी बनेगा।

                                                            विश्व गुरु की प्रतिष्ठा में, बच्चा-बच्चा दम भरेगा।

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