गुरुवार, 28 मार्च 2013

वो जा रही थी...........

वो जा रही थी
वो जा रही थी आधी, धोती में,
इज्जत संभाले सहमी हुई
भरी जवानी में वृद्धा जैसी
कई दिन से
भरपेट भोजन नहीं खाया
क्योंकि
भोजन के लिए काम नहीं
जहां काम मिला वहां गिद्ध थे
खाना देने से पहले
उसे खा जाना चाहते थे
उसकी भरी जवानी को
आंखों में ऊतार कर
स्वयं तैर कर उसको
डूबो देना चाहते थे
किन्तु वो...
गरीब थी लाचार नहीं
स्वाभिमानी संस्कारी थी
मजबूर नहीं
वह कई दिन भूखा रह सकती थी
आधी धोती में तन को लपेटे
चटाई पर सो सकती थी
अपने बच्चें को
देख सकती थी भूख में तड़फते हुए
किन्तु....
इज्जत.... मान....
यही तो था उसके पास
किसी भी कीमत पर इसे
बिखरने नहीं दिया, लुटने नहीं दिया
क्योंकि वो
पश्चिम हवा की ब्यार से
लड़खड़ाती नहीं थी
वो इस माटी से पली-बढ़ी थी
आबरू की कीमत को जानती थी
भीड़ की आंखों को पहचानती थी
तभी तो जहों सौदा होता था
उस काम को ठोकर मारकर
आगे बढ़ जाती थी
अनिश्चित, अनजान, कंटीले राह पर
अनभिज्ञ, सहमी सी
किन्तु...
इज्जत की पोटली को सिर पर थामे
एक ओर काम की तलाश में
कुछ आस में
वो जा रही थी...........वो जा रही थी...........



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