शनिवार, 25 जून 2011

डर से साहस तक

डर से साहस तक

1

ठहरो...!

भयानक गंभीर चेहरा, करकस आवाज़, दाहिने हाथ की तर्जनी का कठोर ठहरने का संकेत, आग की लपटों की तरह ऊबलती आँखें, दृढ़ आदेशात्मक भाव-भंगिमा।

यही कहा था उस दाढ़ी वाले सफेदपोश व्यक्ति ने, जो उसी क्षण रज़भाये की पुलिया पर न जाने कहाँ से प्रकट हो गया था।

उसकी आवाज़ में हुक्मराना अंदाज था। उसे देखकर मेरी व मेरे मित्र की हवाईयाँ उड़ गई, चेहरें फीके पड़ गए, मन-मस्तिष्क पर भय का वातावरण छाया हुआ था, हम सहमे हुए से जहाँ के तहाँ ठहर गए। कुछ सोच पाते कि तत्काल अगला कठोर वाक्य गूँज उठा।

कहाँ गए थे?

सहमते हुए भय पर नियंत्रण कर तथा पूरा साहस बटोरकर मैंने उत्तर दिया-

सैर के लिए।

मैंने जोर लगाकर बोलना चाहा था, परन्तु आवाज़ मारे भय के सीने में ही दबकर रह गई थी, इसलिए जवाब बहुत धीमे स्वर में निकला था।

यह बात 1987 ई॰ की है। सर्द ऋतु की ठंड़ी रात के साढ़े नौ बजे थे। रात्रि भोजन के पश्चात् गुरुकुल-छात्रावास के स्थल तल के एक कमरे में हम आठवीं कक्षा के सभी छात्र प्रतिदिन की तरह इधर-उधर की बातें कर रहे थे। वैसे गुरुकुल का अनुशासन उन दिनों अत्यंत कठोर था, बिना आज्ञा के कोई भी कार्य नहीं होता था किन्तु स्कूल से मिले गृहकार्य को पूर्ण कर हम रात्रि भोजन के बाद फुर्सत के क्षण निकाल लेते थे। उस रात भी बातों-बातों में ही एक बहस छिड़ गई कि भूत होते है या नहीं?

जिन्होंने अपने गाँव, खेत-खलियानों में भूतों की घटनाएँ अपने परिजनों अथवा पड़ोसियों से सुन रखी थी, उनका दावा था कि भूत-प्रेत शत-प्रतिशत होते हैं।

जो इस पक्ष के थे कि भूत-प्रेत एक भ्रम है, उन पर गुरुकुल के आर्यसमाजी वातावरण का प्रभाव था। इधर-उधर की घटनाएं सुनाकर सब अपना पक्ष जोरदार ढ़ंग से रख रहे थे। भूत-प्रेत को न मानने वालों का प्रतिनिधित्व मैं कर रहा था।

बहस लंबी खिच जाने के बाद बात शर्त पर आ गई। हमारी कक्षा का ईश्वर सिंह जो कि पंजोखरा नीलोखेड़ी का रहने वाला था, बोला कि यदि तुम भूत-प्रेत को नहीं मानते तो तुम्हारे में से कोई एक श्मशान घाट में वहाँ से जले हुए मुर्दे की राख उठाकर लाओ, तब हम मानेंगे कि भूत-प्रेत वास्तव में कुछ नहीं होते। यह शर्त सुनकर कमरे में सन्नाटा छा गया। सब एक-दुसरे को देखने लगे। कुछ अन्तराल के बाद चुप्पी को तोड़ते हुए मैंने कहा-

मैं जाऊँगा राख लेने।

सभी साथी आवाक् से मुझे देखते रह गए। एक दो ने मना भी किया किन्तु निर्णय तो हो चुका था, अब तो किशोरावस्था की प्रतिष्ठा का प्रश्न था। शर्त में यह तय हो चुका था कि मुझे अकेले ही जाना होगा तथा एक बैटरी व छड़ी के अतिरिक्त कुछ भी साथ लेकर नहीं जाना। मैंने शर्त में तय सभी बातें स्वीकार की और निकल पड़ा एक दुस्सहासी कार्य को अंजाम देने के लिए।

2

हमारा गुरुकुल युनिवर्सिटी के थर्डगेट से सटा हुआ था। गुरुकुल से लगभग दो कि.मी. दूर मिर्जापुर गाँव में रजभाये के किनारे कैथल रोड़ से रेलवे पटरी के बीच श्मशान घाट फैला पड़ा हुआ था।

रात के 10.30 बजे थे और मैं अपने दो सिपाही के रूप में बैटरी व डण्ड़े के साथ सर्द रात में एक ऐसे कार्य पर निकल पड़ा, जिसका ना तो कोई उद्देश्य था और ना ही कोई लाभ। आज के परिपेक्ष्य में देखें तो बाल्यकाल की एक दुस्सहासी तथा बचकानी हरकत लगती है। हाँ, कक्षा में हमारे ग्रुप की प्रतिष्ठा अवश्य दाँव पर लगी थी। तब मेरी उम्र कोई तेरह वर्ष की रही होगी और इस अवस्था में बच्चें प्रतिष्ठा के लिए ऐसे जोखिम भरे कार्य करने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं तो मैं भी हो गया था। पूरी कक्षा की योजना होने के कारण हमारे वार्डन (संरक्षक) को कुछ भी मालूम नहीं हुआ।

मन में अज्ञात भय, हजारों प्रश्न, आशंकाएँ परन्तु साहस और हिम्मत तथा दृढ़ संकल्प के साथ मैं बढ़ता ही जा रहा था कि तभी रास्ते में मुझे मेरा सहपाठी रामपाल मिला। रामपाल झज्जर का रहने वाला था और मेरा अच्छा दोस्त व शुभचिंतक था।

रामपाल... अरे! यहाँ क्या कर रहा है?

यार! अकेला मत जा, मुझे बहुत डर लग रहा है।

वह कंपकंपाते टूटते स्वर में बोला।

पहले से ही डरा हुआ, मैं उसके कहने के ढ़ंग से थोड़ा और डर गया था। किन्तु उसका व अपना मनोबल बढ़ाने के लिए हिम्मत के साथ बुलंद आवाज में बोला-

अरे तू चिंता मत कर, देख मैं यूँ गया और श्मशान घाट से राख लेकर यूँ आया।

लेकिन मैं तुझे ऐसे संकट में अकेला नहीं जाने दूँगा, मैं भी तेरे साथ चलूँगा।

ओह! नही भाई, तेरे सामने ही तो शर्त लगी थी कि अकेले जाना है।

भाड़ में जाये शर्त, अकेले को वहाँ कुछ हो गया तो.... नहीं-नहीं मैं भी साथ चलूँगा। और वह जाने की जिद करने लगा। उसकी जिद के आगे सारे किन्तु-परन्तु व्यर्थ हो गए, अब तक मुझे भी एक अज्ञात भय का अहसास होने लगा था। एक बार फिर मैंने रामपाल को समझाने का प्रयास किया कि तू विश्वास रख मुझे कुछ नहीं होगा। यदि हम दोनों गए तो बाद में सब मुझे डरपोक कहेंगे। क्या तुम यही चाहते हो कि तुम्हारे दोस्त को कोई डरपोक कहे।

मुझे यहाँ कौन देख रहा है कि मैं तुम्हारे साथ जा रहा हूँ।

चाहे कोई न देख रहा हो बाद में पता चल ही जायेगा।

कुछ भी हो मैं तुम्हे मरने के लिए अकेला नहीं छोड़ सकता।

मरने की तो कोई बात ही नहीं।

परन्तु उसने मेरी एक न सुनी और हम दोनों शमशान की ओर बढ़े जा रहे थे।

विकराल रात्रि भी हमारे आगे-पीछे, दायें-बायें दौड़ी चली जा रही थी जैसे हमारी ही निगरानी करने का दायित्व निभा रही हो। सड़क के दोनों ओर बबूल के पेड़ अत्यंत डरावने तथा दूर-दूर तक फैले हुए खेत अमावस्य की रात्रि में समुद्र की भाँति विस्तृत काले पानी की तरह दिखाई दे रहे थे। दौड़ते हुए दूर किसी झाड़ी पर यदि हमारा ध्यान पड़ जाता तो कदम ठिठक जाते, ऐसे दिखाई जान पड़ता कि जैसे कोई छिपकर हमारी ही राह देख रहा है। हिम्मत करके आगे बढ़ते तो तभी स्पष्ट होता कि ये तो कोई झाड़ी है। एकबार तो रामपाल ने आदम आकृति की ओर संकेत किया, उसे देखकर मैं भी एकदम सहम गया, फिर निकट आने पर बोला कि यह भी कोई झाड़ी होगी। मन का डर हमें और अधिक डरा रहा था। फिर भी हम साहस कर बढ़े जा रहे थे तभी वह झाड़ी थोड़ी हिली तो दिल की धड़कन पहले से भी ज्यादा धक्-धक् करने लगी, फिर आत्मा की आवाज आई की ये हमारा भ्रम रहा होगा किन्तु जब वह झाड़ी पुनः हिली तो तत्काल पूरा शरीर काँप कर पसीने-पसीने हो गया, हम थोड़ी देर जहाँ के तहाँ रुक गए। हिम्मत कर हमने उस ओर टॉर्च मारी तो एक जंगली बिलाव उस झाड़ी में से निकलकर हमारी ओर आया। तब जाकर जान में जान आई और हम फिर दौड़ते हुए मंजिल की ओर बढ़ने लगे।

एकबार फिर हमारे बढ़ते कदम मन्द पड़े। इस बार कोई प्रेत का डर नहीं बल्कि चकाचौंध कर देने वाली लाईटें फैंकता एक ट्रक हमारे पीछे की ओर से बढ़ा चला आ रहा था, साथ आ रही थी कुछ धीमी-धीमी आदम आवाजें। ट्रक अपनी तीव्रता से हमें क्रॉस कर आगे निकल गया तथा आवाज भी आनी बंद हो गई और हम ये सब अनदेखा कर आगे बढ़ने लगे। थोड़ी ही देर में हम रजभाये की पुलिया पर थे जहाँ से शमशान का विस्तृत फैलाव दूर-दूर तक देखा जा सकता था। जहाँ आजकल की तरह कोई शैड या संस्कार करने के लिए निश्चित स्थान नहीं था।

3

रामपाल ने एक बार फिर प्रयास किया। यार छोड़, वापिस चलते है। कभी..... उसके बोल उसके मुँह में ही दब कर रह गए थे। किन्तु मैं उसका आशय समझ गया था।

परन्तु मैंने भी निश्चय कर लिया था कि अब खाली हाथ नहीं लौटना, चाहे परिणाम कुछ भी हो। मैं पूरा साहस बटोर कर हिम्मत के साथ श्मशान की ओर बढ़ने लगा, यकायक मेरे कदम स्वतः ही रुक गए। मुझे क्षणभर में ही अपने माँ-बाप, बहन-भाई सब याद आने लगे। मेरी आँखों के सामने एक ही पल में मेरी अब तक की सारी दुनिया चलचित्र की भाँति रह-रहकर आने लगी। फिर एक पल को ख्याल आया कि यदि राख उठाते ही कुछ हो गया तो मेरे घरवाले रजभाये की पुलिया तक रोते-बिलखते आयेंगे परन्तु फिर भगवान को याद किया, गायत्री मंत्र का जाप भी किया और मैं अदम्य साहस के साथ दौड़कर शमशान में गया तथा असंख्य मुर्दों की राख के ढ़ेरों में से एक से मुट्ठी भरी और बिना पीछे देखे तीर की भाँति दौड़कर रामपाल के पास आया जैसे ही हम पलटकर वापिस दौड़ने लगे तभी हमारे कदम जहाँ के तहाँ जमीन में गड़ गए। हम बूरी तरह घबरा गए क्योंकि जहाँ क्षणभर पहले प्राणी मात्र नाम का कोई संकेत भी नहीं था, केवल काल-रात्रि के साथ, साँय-साँय चलती शीत लहर, पुलिया की दीवारों से टकराता रजभाये का पानी, कंटीली झाड़ियों के साथ खड़े कीकर के पेड़ तथा झिंगुर के साथ अन्य जंगली जीवों की डरा देने वाली आवाजों के सिवाय कुछ भी नहीं था, वहाँ ये सफेद कपड़ों में यह दाढ़ी वाला व्यक्ति कहाँ से आ गया? जिसे देख हमारी हवा सरक गई थी। हमारी आवाज रुंध गई थी। चेहरे की हवाईयाँ उड़ चुकी थी। उसकी नजर हमे ही घूर रही थी, हम चाहकर भी उस अचानक टपकी समस्या से बच नहीं सकते थे। हम कुछ सोच पाते तभी वह सफेद पोश हमारी ओर आया। उसकी आँखें ज्वाला की भाँति दहक रही थी, चेहरे पर कठोर भाव लिए उसने हमें रुकने का संकेत करते हुए कहा-

ठहरों....!

हम अपने डर को छुपाने का असफल प्रयास करते हुए जहाँ के तहाँ रुक गए। हमारे कानों को जैसे और कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था। वो साँय-साँय करती हवा, झिंगुर की आवाज, किनारों से टकराती रजभाये की आवाजें मानो सब उस कठोर आवाज के सामने भयभीत होकर शाँत हो गए हों। सुनाई दे रहा था तो केवल उस सफेदपोश का अन्धेरे को चीरता हुआ वह कठोर स्वर। हमारे कुछ सोचने से पहले ही उसका दुसरा प्रश्न था-

कहाँ गए थे?

जवाब देने के लिए बोलना चाहा, किन्तु आवाज गले में ही अटक गई। कही वह दोबारा न पूँछ ले इस डर से जोर लगाकर बोला-

सैर करने। (आवाज बहुत धीमे से निकल पाई थी)

फिर कोई प्रश्न नहीं किया। इतनी रात को सैर...., कहाँ से आए हो, या इतनी दूर क्यों आए हो अथवा इतनी रात गए श्मशान घाट में क्या कर रहे हो आदि कुछ भी न पूछकर कठोरता व भयावह तरीके से भाग जाने का संकेत किया था और हम इशारा पाते ही सिर पर पैर रख ऐसे भागे कि फिर हमने पीछे मुड़कर देखने का साहस नहीं किया। दिमाग पर अनेक प्रश्नों का बोझ लिए हम दौड़े जा रहे थे। आखिर यह सफेदपोश व्यक्ति कौन था? कहाँ से आया था? अपने ही प्रश्नों का उत्तर स्वयं ही देते हुए सोचने लगा कि शायद कोई गाँव का चौकीदार हो। फिर स्वयं ही इस उत्तर का खण्डन करते हुए दुसरा प्रश्न कि यदि चौकीदार होता तो उसके कपड़े सफेद क्यों? हाथ में बैटरी, डण्ड़ा कुछ तो होता। फिर सोचा कि गाँव का ही कोई व्यक्ति नींद ना आने के कारण पुलिया पर आकर बैठ गया होगा, या फिर कोई शराबी..........किन्तु उसके मुँह से दारू कि दुर्गन्ध भी नहीं आ रही थी। ना ही उसके पास कोई ठण्ड़ से बचने के लिए खेश-कम्बल था। रह-रहकर फिर वही प्रश्न दिमाग में घूमने लगा कि वह था कौन?

दिमाग में चल रहे असंख्य प्रश्नों के कारण सुलझने की बजाय और अधिक उलझते हुए हम यूँ दौड़े चले जा रहे थे जैसे दूर-दूर तक फैले अंधकार रूपी विशाल सागर में लहरें किनारों की ओर सतत् रूप से बढ़ी चली जा रही हो अथवा किसी ने दौड़ते रहने की चाबी भर दी हो। चारों ओर अंधकार से भरी रात्रि व जंगली जीवों की मिली जुली भयानक आवाजें हमारे भय को और अधिक बढ़ा रही थी। हम अन्धेरे को चीरते हुए ऐसे भागे जा रहे थे मानो हमारे कदम स्वयं ही आगे को भागने के लिए बारी-बारी से निकल रहे हो तथा रुकने के लिए किसी भी आज्ञा की अवहेलना को तत्पर हो।

4

अचानक दौड़ते रहने की लय ताल में अवरोध आया, अन्धेरे को चीरती हुई भय उतपन्न कर देने वाली हँसी की आवाजें हमारे पीछे की ओर अर्थात् श्मशान की दिशा से हमारा पीछा करती समीप से सुनाई देने लगी। रात की खामोशी में जैसे किसी ने अड़चन डाल दी हो, बड़े भयानक तरीके से गिद्द के जैसे दोनों हाथ फैलाए दो व्यक्ति की आकृति के बत्तीसी निकालते हुए राक्षस की भाँति अट्टाहस करते हुए हमारी ओर आ रहे थे, अन्धेरे में उनके चमकीले दाँत ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे कंकाल के मुख में चाँदी के दाँत फिट किये हो। भयानक अट्टाहस के साथ जैसे-जैसे वे नजदीक आते जा रहे थे, हमारे दिल की धड़कन भी तेज होती जा रही थी। हमारा मस्तिष्क जैसे शून्य में चला गया था, हम कुछ सोच ही नहीं पा रहे थे। उनका जोर-जोर से हंसना और भी भयावह दृश्य बना रहा था, इतना डर तो उस सफेदपोश व्यक्ति से सामना करते हुए भी नहीं लगा क्योंकि वो भी देखने में इतना डरावना नहीं था किन्तु इनके चील के पंखों की भाँति लहराते हाथ ऐसा प्रतीत करवा रहे थे, मानो श्मशान से राख उठाने पर हमारी खबर लेने स्वयं प्रेतात्माएं ही उड़ी आ रही हो। हमारा शरीर मारे डर के शिथिल हुआ जा रहा था। रामपाल मुझसे कुछ कहना चाह रहा था किन्तु उसकी आवाज उसके गले में ही फंस गई थी, मात्र होठ ही हिल रहे थे। मेरी भी आवाज होठों पर आने में असमर्थ हो रही थी। फिर सम्पूर्ण ताकत लगाकर बोलने से मेरी आवाज निकली, मैंने रामपाल से कहा कि-

मरना तो है ही किन्तु कायरता से नहीं अपितु पूरा मुकाबला करके ही मरेंगे।

रामपाल ने समर्थन में सिर हिला दिया। हमारे प्राण सूखे जा रहे थे परन्तु जब तक वे प्रेत-आत्माएं भयानक रूप लिए हमारे पास तक आते, हम लड़ने की मुद्रा में आ गये। पास आते ही मैंने तो एक जबरदस्त मुष्टी प्रहार सामने वाले प्रेत के मुंह पर जड़ भी दिया। किन्तु ये क्या...........दोनो प्रेत कोई ओर नहीं हमारी ही क्लास के लड़के थे, बलकार नीलोखेड़ी तथा धर्मसिंह ललहाड़ी। धर्मसिहं के बड़े-बड़े दाँत जो कुछ देर पहले बहुत विकराल लग रहे थे, वही पहचान का कारण बने।

इतना भद्दा मजाक

मैंने बड़े आक्रोश के साथ कहा धर्मसिहं को।

तभी रामपाल ने कहा- तुम श्मशान की ओर से कैसे आये, जबकि हम दौड़ते हुए गए तो रास्ते में तो कही दिखाई नहीं पड़े।

तब बलकार ने सारी कहानी बताई कि, ईश्वर ने तुम्हारे जाने के बाद हमें छात्रावास की पिछली दीवार फाँदकर छोटे रास्ते से तुमसे पहले श्मशान पर जाने को कहा ताकि श्मशान में ही तुम्हें डराया जा सके क्योंकि ईश्वर भी तुम्हारी हार-जीत को अपनी प्रतिष्ठता का प्रश्न मान रहा था।

फिर श्मशान घाट पर क्यों नहीं डराया। मैंने धर्मसिहं से पूछा।

जब तुम श्मशान की ओर दौड़े जा रहे थे तो हम तुमसे आगे थे और हमने ट्रक की लाईट में तुम दोनो को देख लिया था, फिर कही हम भी तुम्हे लाईट में दिखाई न दे जाये, अतः हम बगल के खेत में छुप गए और तब तक तुम हमें क्रॉस कर चुके थे। फिर हम तुम्हारी वापिस आने की राह देखते रहे, जब तुम आगे निकल गए तो हम पीछे की ओर से तुम्हे डराने आये ताकि तुम्हे लगे कि श्मशान की ओर से आए हैं।

लाये हो राख बलकार ने पूछा।

ओर क्या, ये देख और मैंने मुट्ठीभरी राख उसे दिखाई। फिर हम चारों बातें करते हुए वापिस छात्रावास में आ गए।

छात्रावास के सभी विद्यार्थी सोये पड़े थे किन्तु हमारी कक्षा उत्सुकता से जाग रही थी कि मैं श्मशान घाट से राख लेकर आया हूँ या खाली हाथ। सभी साथियों के मन में यही बात घूम रही थी। रात के ग्यारह बजने वाले थे और अपने प्रतिद्वन्दी ईश्वर की अपेक्षा के विपरीत मैंने राख से भरी मुट्ठी उसे व अन्य सहपाठियों को खोलकर दिखाई। सभी हैरान व आश्चर्यचकित होकर मुझे देखने लगे तथा मेरी हिम्मत व साहस के कसीदे पढ़ने लगे। मैं भी अपनी शान में गायी जा रही प्रशंसा से सेर घी सा पीता रहा और सब मिलकर मुझे चने के पेड़ पर चढ़ाते रहे।

ईश्वर सिंह से अपनी हार बर्दास्त नहीं हो रही थी तो वह सबके बीच उठकर बोला कि जब हमारी शर्त में अकेला जाना तय हुआ था तो यह अपने साथ रामपाल को क्यों लेकर गया? इसलिए शर्त तो यह हार गया।

नहीं ये हार इसकी नहीं तुम्हारी है।

रामपाल गर्ज उठा। पहली बात तो ये कि यह मुझे अपने साथ लेकर नहीं गया बल्कि मैं जबरदस्ती से हठ करके साथ गया था तथा दुसरी बात यह कि तुमने एक बीस रुपये की शर्त के लिए इतना घटियापन दिखाया कि हमारे जाने से पहले ही दो लड़को को श्मशान में भेजने का षड़यंत्र किया ताकि वे हमें डरा सके। यदि ये दोनो श्मशान पहूँच जाते तो हमारे प्राण-पखेरू दहशत के मारे वैसे ही उड़ जाते। प्रभू की कृपा से हम ठीक-ठाक लौट तो आए हैं।

सुना भी जाता है कि इसीप्रकार की शर्त में कोई श्मशान में कील गाड़ने गया था, जल्दी-जल्दी में कील उसकी धोती के पल्ले में गड़ गई, जब वह चलने लगा तो धोती खिंचने से दहशत के मारे वही मर गया। सभी ने ईश्वर को इस बात पर बहुत बूरा-भला कहा, दोनो पक्षों में कुछ देर बहस चलती रही फिर सब सो गए।

परन्तु मैं देर रात तक न सो पाया। मेरे जहन में वही दाढ़ी वाला सफेदपोश व्यक्ति घूमता रहा कि आखिर वह था कौन? क्योंकि वह ना तो हमारे विद्यालय का था कि ईश्वर ने भेज दिया हो और ना ही आस-पास का। उसने जिसप्रकार हमें रोका, पूछा और फिर जाने का संकेत किया, यह सीन दिमाग से निकलने का नाम ही न ले रहा था। सुना था कि प्रेत के पैर पीछे की ओर उल्टे होते है किन्तु हम तो मारे डर के उसके पैर भी न देख पाये।

आखिर वह था कौन?

इसी सवाल का जवाब सोचते-सोचते न जाने कब मेरी आँख लग गई तथा आज तक भी यह प्रश्न कि आखिर वह कौन था ज्यों का त्यों मेरे सामने खड़ा है।

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