सोमवार, 8 अगस्त 2022

मुद्दों से भटके नेता, अब चला नया दाँव - चित्त भी मेरी पट भी

 आलेख :

मुद्दों से भटके नेता, अब चला नया दाँव - चित्त भी मेरी पट भी

- डॉ उमेश प्रताप वत्स 

आपने वह कहावत तो सुनी ही है कि चाकू चाहे खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर गिरे अंतोगत्वा दोनों ही सूरत में कटना तो खरबूजे को ही है। चुनाव के दिन-प्रतिदिन बदलते परिवेश में यह कहावत सही साबित हो रही है कि शिकारी कोई भी दांव चले जाल में फंस कर फड़फड़ाना तो बेचारी जनता को ही है। वर्तमान चुनावी घमासान में ऐसी परिस्थिति बना दी गई है कि जनता के मुद्दे तो गये तेल लेने। बस विरोधी को पटखनी कैसे देनी है, सारा दारोमदार इसी पर है। हर ब्यान पर हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेला जाता है, मुस्लिम को भयभीत कर असुरक्षित होने का एहसास कराया जाता है। विपक्ष ने सत्तासीन पार्टी को धराशायी करने के लिए अभी भी कुछ मिसाइल संजोये रखी हुई है। असहनशीलता का शस्त्र बेशक कमजोर पड़ गया हो किंतु सांप्रदायिकता का घिसा-पीटा मुद्दा अब भी चल जाता है। इस बेदम मुद्दे को समय-समय पर सात समंदर पार से भी धार मिल जाती है। वे जब चाहे घोषणा कर देते हैं कि इस्लाम खतरे में है या सिख, इसाई खतरें में है। बेशक मुस्लिम का भविष्य शिक्षा के कारण, रोजगार के कारण, भाईचारे के कारण या कट्टरता के कारण खतरे में हो किंतु जमीनी समस्याओं से क्या लेना यदि वे दूर हो गई तब उनको भ्रमित करना भी तो मुश्किल होगा। अतः इतना कहना पर्याप्त है कि यदि योगी-मोदी फिर से आ गये तो फलां-फलां खतरे में है। दूसरी मिसाइल है दलित, पिछड़ी जातियों की। उन्हें भी रात-दिन डराया जाता है कि तुम्हारा आरक्षण छिन लिया जायेगा। तुम्हें सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया जायेगा। बिहार के पिछले चुनावों में सभी राजनैतिक विश्लेषक भाजपा की एक पक्षीय लहर बता रहे थे किंतु जैसे ही डॉ मोहन भागवत ने कहीं किसी परिपेक्ष्य में यह ब्यान दिया कि आरक्षण की पुनः समीक्षा होनी चाहिए। बस! यह ब्यान मुर्दा पार्टियों के लिए ऐसा रामबाण सिद्ध हुआ कि उन्होंने इसे हाथों-हाथ लपक लिया और कोमा में पड़े लालूजी उछलकर पहुंच गए जनता के बीच कि, 'हमार होते हुए कोनो माइ का लाल हमार भाइयों का आरक्षण छिन सकत है।' यद्यपि भागवत जी का मन्तव्य उन लोगों तक आरक्षण पहुंचाने का था जो वर्षों के बाद भी गरीबी का जीवन जी रहे हैं किंतु राजनैतिक बिसात पर सफाई देने का समय नहीं मिलता औैर उस ब्यान को हथियार बनाकर पिछड़ों का मसीहा बन लालू जी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आये। 

यह राजनैतिक मैदान तो ऐसे दलदल का समन्दर है कि न जाने अगला पड़ने वाला कदम आपको किस हाल में लेकर खड़ा कर दे। अभी यूपी में सरकार के रणबाँकुरे अति उत्साह में जैसे ही अपने किये गये कामों का हिसाब देने जनता के दरबार में पहुंचे तो विपक्ष के नेता जी ने भी मौके पर चौका जड़ते हुए रटी-रटाई बात फिर से दोहराते हुए कहना शुरु कर दिया कि इन्होंने किया क्या है अब तक, सड़कें हमने बनानी थी, फ्लाईऑवर हमने बनाने थे, मैडिकल कॉलेज की हमारी योजना थी, स्मार्ट सिटी का प्रोजेक्ट भी हमारा था। हम रिबन बाँधते गये और ये मौकापरस्त रिबन काटकर अपना नाम किये जा रहे हैं। अब कोई नेता जी से पूछे कि जब तुम्हें जनता ने पाँच वर्षों के लिए सिंहासन पर बैठाया था तो क्या केवल रिबन बाँधने के लिए बैठाया था। भाई कहीं रिबन काटकर या बिना काटे एक-आध प्रोजेक्ट पूरा तो करा देते। लेकिन जब दो इंच लंबी जुबान से ही काम चल जाये तो फिर विकास का बुलडोजर चलाने की क्या आवश्यकता? चुनाव के मैदान में इतनी खिचड़ी है कि ज्ञात ही नहीं हो पाता की युधिष्ठिर की सेना कौन सी है और दुर्योधन की कौन सी, कौन किसके पक्ष में है किसके विपक्ष में। यहां तो हर-एक सेना एक दूसरे से भिड़ती दिखाई दे रही है। कोई वोट लेने के लिए लड़ रहा है तो कोई वोट काटने के लिए और कोई तो यही गणित सजाकर बैठा है कि यदि मैंने इतने प्रतिशत वोट ले लिये तो फ्लां पार्टी को कितना नुकसान होगा और फ्लां को कितना। अधिकतर नेता जनता को आकर्षित करने के लिए नेक नीयत से उनके मुद्दे उठाने की अपेक्षा चुनाव मैनेजरों के तिकड़मबाज गणित पर ज्यादा निर्भर है। एक बहुत ही समझदार नेता जी पिछली सरकारों द्वारा की गई गल्तियों की सूची लेकर जैसे ही मीडिया में पहुँचे तो सामने वाले नेता जी ने उनके सूची बांचने से पहले ही चिल्लाना शुरु कर दिया कि महिला इस सरकार में असुरक्षित है, सबसे ज्यादा रेप हो रहे हैं, माफियाओं की सरकार चल रही है। रेपिस्ट का बचाव करने वाली सरकार है, साम्प्रदायिकता का जहर घोलती है, अपने-अपने लोगों को रेवड़ी की तरह नौकरियाँ बाँट रहे हैं, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं, विकास कोई किया नहीं विनाश करने पर तुले हुए हैं। मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुस्लिम करते हैं, लोगों की सुध नहीं है। अब सूची वाले नेता जी तो देखते रह गये। यही सब तो वह सूचीबद्ध करके कहने आये थे किंतु यह तो उन्हीं पर उडेल दिया गया। यह है मौके पर चौका। यह प्रयोग बहुत दमदार तरीके से चल रहा है कि कोई मुझे बेईमान कहे तो मैं पहले से ही चिल्लाना शुरु कर दूं कि यह दुनिया का सबसे बेईमान व्यक्ति है, इसके बाद यदि वह कहेगा भी तो बेअसर हो जायेगा। जनता को निरा मूर्ख समझने वाले नेता चुनावी मौसम में इतने रंग दिखाना शुरु कर देते हैं कि गिरगिट भी शरमा जाये। कोई सबकी लैला बनकर सबका मनोरंजन कर रहे हैं तो कोई सबका खसम बनकर दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं। सीमा पर पाकिस्तान का खतरा है या चीन घात लगाये बैठा है इन सब फालतू की बातों से नेता जी का क्या सरोकार। उनको तो यह पता है कि यदि इस बार भी गद्दी न मिली तो जो सेनापति सुविधाओं के लोभ में छतरी उठाकर साथ चल रहे हैं बाद में ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे। दूसरा नेता जी को यह भय भी सता रहा है कि पिछले दस वर्षों में जो राष्ट्र उत्थान का एक ढाँचा खड़ा हुआ है कहीं फिर से जीतने पर स्थाई भवन तैयार न हो जाए तो रही सही राजनीति की दुकान बंद होने के मुहाने पर खड़ी होगी। ये कभी धारा 370 पर, राममंदिर या तीन तलाक पर बहस नहीं करेंगे क्योंकि उन विषयों पर ये सभी बैकफुट पर है अपितु बहस या ब्यानबाजी उन मुद्दों पर अथवा देशहित के मुद्दों की ओर न जा सके इसी पर पूरा फोक्स रखते हैं तभी नेता जी सत्तारूढ़ पार्टी के सिपहसलारों को निरुत्तर करने के लिए उन्हीं बातों को रखने के माहिर होते हैं जो उनके लिए उठाई जा सकती है, वे पहले ही काऊंटर फाइट छेड़ देते हैं। कहीं न कहीं जनता भी इन्हें यह विश्वास दिला देती है कि पिछले पांच वर्षों में तुमने क्या किया था हमें कुछ याद नहीं है हम तो बस बदलाव चाहते हैं वह अलग बात है कि बाद में यह बदलाव कितना मंहगा पड़ सकता है। सत्तासीन भी सक्षम सारथी पाकर हवा में उड़ रहे हैं कि सब अपने-आप हो जायेगा, हमें कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। देश का क्या होगा, देश किन हाथों में सुरक्षित रहेगा यदि फिर से सेना की थाली को ही हजम करने वाले आ जाते हैं तो इसके कसूरवार वे भी रहेंगे जो हवा में ही उड़ रहे थे और अपने दायित्व को ठीक से निभाने में असक्षम रहे। देश की जनता को भी जागना पड़ेगा कि हम इतने भी मूर्ख नहीं है कि अच्छा-बुरा भी न समझ पाये। देश इस बात का साक्षी है कि भीड़तंत्र की अपेक्षा मौन धारण किये वो वोटर विजयी मुकुट पहनाते है जो सभी परिस्थितियों को देख-समझकर आने वाली पीढ़ी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए मैदान में उतरते हैं बशर्ते वह वोट डालने घर से बूथ तक आ जाये। अन्यथा पश्चिम बंगाल में कोरोना के भय से यही मौन तपस्वी घरों में दुबके रह गये और सैंकड़ों सीटे एक हजार से भी कम अन्तर पर दीदी जीतकर ले गई। राजनीति में जीत का महत्व है कैसे मिली यह सब समय की रेत में ढक जाता है। अतः जनता को ही नये भारत के निर्माण के लिए आगे आना होगा। 

-डॉ उमेश प्रताप वत्स 

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यमुनानगर, हरियाणा 

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