कविता - चंद्रयान-3
- डॉ उमेश प्रताप वत्स
आया तो पहले भी मामा, था मैं तेरे द्वार
दोनों बार दिखाया तूने , गुस्सा अपरम्पार
पर माँ बोली लगे है मामा , बुरा नहीं मानते
लगता है वह तेरा सच्चा , प्यार नहीं जानते
रिश्तों में तो चलता ही है, रूठना और मनाना
दिल पर लगा नहीं छोड़ते , मामा के घर जाना
धरती माँ की सीख मुझे , प्रोत्साहित कर जाती
रूठे मामा की फिर से , मुझको याद सताती
मैं माता की राखी लेकर , मामा के घर जाऊँ
यही सोच-सोचकर दिनभर , खुशी से मैं इतराऊँ
साजो-सामान बाँध चढ़ा मैं , चंद्रयान के वक्ष पर
चालीस दिन सफर किया, तब पहुंचा चांद के अक्ष पर
मामा ने भी छोड़ा गुस्सा , मुझको गले लगाया
बोला विक्रम तेरा धैर्य , मुझको बड़ा ही भाया
ले ले जो लेना है तुझको , खुला है मेरा द्वार
तेरे प्यार के आगे मेरा , तुच्छ दौलत-भंडार अब जब भी आना हो तुमको , निसंकोच चले आना
राखी का यह अमूल्य प्रेम तुम, बहना का फिर लाना
मामा-भांजे का ऐतिहासिक मिलन , विश्व देख रहा है
सदियों से ही मेरे भारत का, इरादा नेक रहा है
- कवि डॉ उमेश प्रताप वत्स
बहुत बढ़िया कविता भाई
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