शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कविता- ‘प्रकृति की छाया’

मैं जब भी उदास होता हूँ , तेरी छाया में चैन मिलता हैं।
जब कहीं न सुलझ पाऊँ प्रभू , तू ही मेरे मन की सुनता हैं।।

कहते है मानव बढ़ रहा है , विकास की अंधी दौड में।
क्या ठीक क्या गलत छोड़ इसे , भौतिकता की होड़ में।।

अपने ही हाथों अपनो को , राह में पछाड़ रहा।
आगे बढते-बढते पीछे , क्या हो रहा अनजान रहा।। १।।

मानव की ताल चॉंद पर , अब कदम बढाया मंगल पर।
किंतु प्रकृति के बिना रहना , नर्क हो जाएं धरती पर ।।

फिर क्यूँ ढोल पीट रहा है , अपने बढते कदमों से ।
क्या प्रकृति से आगे निकल सकता है , अपने धुंधले कर्मों से ।। २ ।।

यह सत्य है आज भी मानव , भ्रमण करता प्रकृति का ।
चाहे समुद्र तट हो, द्वीप समूह , विचरण करता सृष्टि का ।।

किंतु कुछ सिरफिरे लोगो ने , ईश्वर से आगे सोची है।
प्रकृति का दोहन कर करके , सारी वसुन्धरा नोची है ।। ३ ।।

वन्य प्राणी हो चाहे बाज गिद, लुप्त होते जा रहे ।
जोहड, कूप, ताल, तलैया, ढूंढे से भी नहीं पा रहे ।।

आसमां से ऊँची चिमनी , बेहाल कर रही मानव को ।
गंदे नाले -कारखाने , दूषित करते गंगा जल को।। ४।।

अब तो सद्बुधि दे दो भगवन ,मैं बढ चलूं सत्य की खोज में।
मोह-माया, लोभ-क्रोध छोड इसे, दुलार पाऊँ तेरी गोद में ।।

प्रकृति का मैं शोषक नहीं , पोषक बन आभार दूँ ।
सच्ची शान्ति,आनन्दपथ पर, जग को संग ले आगे बढूं।। ५ ।।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर कविता, ऐसे ही मन के भावों को शब्दों में पिरोते रहें।

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  2. हाँ जी एक ही कविता ठेल कर चुप हो गए, अगली भी तो ठेलिए। :-)

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